आजादी के सपने जो बन न सके अपने

असंख्य लोगों के असीम त्याग और बलिदान और लम्बे संघर्ष के बाद 15 अगस्त,1947 को देश को आजादी मिली। हमारे शहीदों और राष्ट्रनिर्माताओं का सपना क्या था? वे कैसा आजाद भारत बनाना चाहते थे?

आजादी की लड़ाई में एक धारा क्रांतिकारियों का था। जिसका नेतृत्व चन्द्रशेखर आजाद करते थे और  भगत सिंह, सुखदेव आदि उसमें शामिल थे। भगत सिंह का कहना था कि  ‘हमारी क्रांति का लक्ष्य एक नवीन न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था है। पूंजीवाद को समाप्त कर वर्गहीन समाज की स्थापना करना और विदेशी और देशी शोषण से जनता को मुक्त कर आत्मनिर्णय द्वारा जनता को अवसर देना है।’ भगत सिंह एक ऐसा राष्ट्र बनाना चाहते थे जिसमें व्यक्ति के द्वारा व्यक्ति का और राष्ट्र के द्वार राष्ट्र के द्वारा का शोषण नहीं हो।वे साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता दोनो के खिलाफ थे।

गांधी जी एक एेसा राष्ट्र बनाना चाहते थे जिसमें समाज का अंतिम व्यक्ति यह महसूस करे कि वह आजाद है और इसके विकास में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। गांधी जी कहा  था  कि ‘ मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उनका देश है जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है।  मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिस में ऊंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा । जिसमें विविध संप्रदायों में पूरा मेलजोल होगा।  ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।  उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों को।  शेष सारी दुनिया के साथ हमारा संबंध शांति का होगा यानी न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे,  इसलिए हमारी सेना छोटी से छोटी होगी । ऐसे सब  हितों  का,  जिसका करोड़ों  मूक लोंगों के हितों  से कोई विरोध नहीं है, पूरा सम्मान किया जाएगा,  फिर वो  विदेशी हो या विदेशी । अपने लिए मैं यही कह सकता हूं कि मैं देशी और विदेशी के फर्क से नफरत करता हूँ। यह मेरे सपनों का भारत।’

आज  देश की स्थिति क्या है? उन सपनों का क्या हुआ?   हम उसके   कितने करीब पहुंच पाए हैं?

आजादी और उसके बाद जिस दृष्टि, दिशा, मूल्यों  और कार्यक्रमों पर राष्ट्रीय सहमति थी उसको चुनौती  देनेवाली, उस राष्ट्रीय सहमति को विघटित करने वाली और राष्ट्र को विपरीत दिश में ले जाने वाली कटिबद्ध ताकतें आज हाशिए से केन्द्र में आ गयी हैं। भारत का नव मध्यम वर्ग में सूचना क्रांति के द्वारा उत्तर आधुनिक युग की मानसिकता का विस्फोट हो रहा है। यह नयी मानसिकता आधुनिकता से उपजी  सभी मानववादी अवधारणाओं और मूल्यों को नकारती है।  यह सादगी के मूल्य और जीवन शैली का अवमूल्यन करती है। पृथ्वी को विलास और विहार भूमि के रूप में परिभाषित कर  अमर्यादित भोगवाद के लिए जमीन तैयार करती है। यह मानव और प्रकृति और सभी मानवीय रिश्तो को नैतिक बंधनो से मुक्त कर अनैतिकता का विस्तार करती है। यह मानव स्वतंत्रता की ऐसी परिभाषा प्रस्तुत करती है,जिसकी परिणति उग्र व्यक्तिवाद में होती है और उन सभी पारंपरिक संस्थाओं के आधार को नष्ट करती है,जो मानव समाज को  सुरक्षा और निरंतरता प्रदान करते आए है। भारत  के मध्यम वर्ग में इस प्रकार की मानसिकता का उभार  एकदम नई प्रक्रिया है, जो भारतीय  पुनर्जागरण और स्वतंत्रता संग्राम की सभी आस्थाओं, मूल्यों, प्रतिबद्धताओं और सपनों पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। मध्यमवर्ग राष्ट्र निर्माण  और विकास में योगदान की दृष्टि सेे अयोग्य, असक्षम और असमर्थ साबित हो रहा है। उसकी जड़े अपनी देश की मिट्टी से कटती जा रही है और वे अपने देश के जन साधारण से अलग होते जा रहे हैं।वह पश्चिमी देशों के इस मिथक से अभी तक मुक्त नहीं है कि पश्चिमी  सभ्यता का अनुकरण ही भारत की नियति है यानी पश्चिम का विकास माँडल ही हमारे विकास का माँडल है।  स्पष्ट है यह संकट विकास की उपभोक्तावादी पश्चिमी माँडल को  अपनाने से उत्पन्न हुआ है । विकास की सही अवधारणा लोगों के बीच लाने की आवश्यकता है। विकास का मतलब भोग पर आधारित  सिर्फ  उच्च तकनीक और बड़ी पूंजी से चलने वाले बड़े उद्योग,बड़े-बड़े बांध, मॉलऔर मल्टीप्लेक्स, स्मार्ट सिटी ,  नगर महानगर का विकास क्यो है? भारत तो गाँवों का देश है गाँवों के विकास के बिना देश का विकास संभव नहीं है।  इसलिए मौजूदा विकास नीति पर पुनर्विचार की आवश्यता है।

कोविड-19 संकट के कारण भारत समेत पूरी दुनिया आज गहरे संकट में है । एक तरफ पूरा विश्व इस महामारी से अक्रांत है,  लाखों लोगों की जान गई है और करोड़ों लोग इस बीमारी से संक्रमित  है।  दूसरी तरफ इस बीमारी से निपटने के लिए उपाय के रूप में तालाबंदी से अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस गई है । भारत की स्थिति तो और भी चिंताजनक है । कोविड-19 संकट से पहले ही भारत में मांग आधारित सुस्ती  थी । कोविड-19 संकट से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था नॉमिनल जीडीपी के आधार पर 45 साल के न्यूनतम स्तर पर तथा रियल जीडीपी के आधार पर 11 साल के न्यूनतम स्तर पर थी।  कोविड-19 संकट के बाद स्थिति और भी भयावह हो गई है। इंटरनेशनल मोनेटरी फंड की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में मध्यम वर्ग सिकुड़ रहा है।  विश्व बैंक के अनुसार भारत ही नहीं संपूर्ण दक्षिण एशिया गरीबी उन्मूलन से मिले फायदे को गंवा सकता है । विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री हैस टिमर  का कहना है कि भारत में आर्थिक परिदृश्य अच्छा नहीं है।  रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार इस वर्ष विकास दर ऋणात्मक  हो सकता है।  सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी के अनुसार यह  – 6 फीसदी  तक जा सकता है । सरकार द्वारा इस संकट से निपटने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं वह नाकाफी साबित हो रहे हैं । अर्थशास्त्री  आर्थिक संकुचन की संभावना देख रहे हैं। उनकी   राय बन रही है कि आर्थिक सुस्ती गहरी और लंबी चलने वाली है जो 1970 के बाद के दशक के बाद सबसे खराब स्थिति होगी।  इस संकट से निपटने के लिए आवश्यक है कि लोगों की आजीविका की  सुरक्षा तथा लोगों के हाथ में नगद पहुंचे । उद्योगों के लिए पूंजी की व्यवस्था हो। इसके  के लिए सरकार समर्थित क्रेडिट गारंटी योजना लागू किया जा सकता है । संस्थानिक स्वायत्तता सुनिश्चित कर वित्तीय  संस्थानों की समस्या का हल ढूंढना चाहिए।

इस संकट के दौर में लोकतांत्रिक एवं  मानव अधिकारों का भी संकुचन देखने को मिल रहा है।  विचारों पर सरकारों का पहरा  बढता जा रहा है। जो सरकार की नीतियों के खिलाफ है वह देश के खिलाफ है, देशद्रोही है, ऐसा माहौल बन रहा है। अमेरिका और भारत दुनिया के दो  बड़े लोकतंत्र हैं। अमेरिका में वहाँ की पुलिस राष्ट्रपति से कह सकती कि अगर आप अच्छा नहीं बोल सकते तो चुप रहिए।  लेकिन भारत में अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए गुजरात पुलिस की  सुनीता यादव को नौकरी छोड़ने के लिए बाद्ध होना  पड़ता है। क्योंकि उसने एक मंत्री पुत्र के खिलाफ कारवाई की जो सरकारी आदेशों का उललंघन कर रहे थे। यह हमारे यहाँ का लोकतंत्र है। 25 मई,  2020 को अफ्रीकी मूल के अमेरिकन जार्ज फ्लायट की पुलिस ज्यादती में  मृत्यु हो गई।  उसके  मृत्यु बाद अमेरिका में भारी विरोध प्रदर्शन हुए।  लोगों ने राष्ट्रपति भवन वाइट हाउस को घेर लिया।  अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सेना से कार्रवाई करने  को कहा।  सेना ने  राष्ट्रपति ट्रप से कहा उनका काम संविधान की रक्षा करना है आपकी रक्षा करना नहीं।  यहां दो बातें स्पष्ट होती है । पहला तो यह कि देश में संविधान सर्वोच्च है और दूसरा सेना द्वारा कर्तव्य का निर्भीकता पूर्वक पालन।  क्या आज की परिस्थिति में भारत में यह संभव है?  यह भारत और अमेरिका के लोकतंत्र का फर्क है।  अमेरिका के हार्वर्ड  विश्वविद्यालय और एम आइ टी ने  राष्ट्रपति ट्रप के  इमिग्रेशन एण्ड कस्टम्स इनफोर्समेंट कानून के खिलाफ मुकदमा किया। यहाँ तो ऐसी स्थिति में सीधे देशद्रोह के मुकदमा में जेल जाना पड़ सकता है। हालांकि संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी ,  समानता के अधिकार तथा  संविधानिक उपचार के अधिकार नागरिकों के मूल अधिकार में शामिल हैं।  लोकतंत्र का चौथा स्तंभ प्रेस विशेषकर टीवी चैनलों के पत्रकार पत्रकार कम और सरकार और किसी पार्टी के प्रवक्ता ज्यादा लगते हैं।  संविधान की दुहाई देकर शपथ लेने वाले नेता संविधान की धज्जियां उड़ाते नजर आते हैं।  आजादी के 73 साल बाद एक बहुत ही भयावह स्थिति है । जिस आजादी के लिए  हमारे शहीदों ने असंख्य  कुर्बानियां  दी   और वर्तमान में जो तस्वीर उभर रही है,   वह कहीं से भी आश्वत करनेवाले नहीं है,  बल्कि हमारे शहीदों का अपमान है।

देश में साम्प्रदायिक और फासीवादी शक्तियां उभार पर है। साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता एवं  फासीवाद एक ही सिक्के के दो अलग-अलग चेहरे हैं। महात्मा गांधी ने 29 जनवरी,1948 को एक बयान (जिसे उनका आखिरी वसीयतनामा कहा जाता है) में कहा था कि ‘ लोकशाही के मकसद के तरफ हिन्दुस्तान की प्रगति के दरमियान सैनिक सत्ता पर नागरिक सत्ता को प्रधानता देने की लड़ाई अनिवार्य है।’  राजसत्ता लोकहित और नैतिक बल के आगे झुके इसके लिए लोकशक्ति को मजबूत करने की आवश्यकता है। नैतिक शक्ति आधारित लोक संगठनों का निर्माण एवं उसके माध्यम से नए मूल्यों को दाखिल करने की आवश्यकता है। लोक शिक्षण के द्वारा लोकविरोधी नीतियों के विरुद्ध व्यापक संवाद एवं  सत्याग्रह  के माध्यम से लोक शक्ति का निर्माण और लोकसत्ता की स्थापना आज वक्त की मांग है।  आज अगर खामोश रहे, तो कल सन्नाटा छाएगा।

अशोक भारत

मो. 8709022550

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