इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

महिलाओं के खिलाफ देश में बढ़ रहे हिंसा,बर्बरता,बालात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले बेहद चिंताजनक हैं।  पिछले दिनों 16 अगस्त को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में 13 वर्ष की दलित बच्ची के साथ बलात्कार,  बलात्कार के बाद गला दबाकर मारना ,  उसकी आंख और जीभ  को क्षतिग्रस्त करने की मानवता को कलंकित करने वाली लोमहर्षक घटना प्रकाश में आई है । लड़की की शव  गन्ने की खेत में पाई गई है।  यह कोई पहली घटना नहीं है। 6 अगस्त, 2020  को  6 साल की बच्ची को उसके घर के सामने से अगवा कर उसका रेप किया गया और खून से लथपथ वह  झाड़ियों में फेंक दी गई।  बच्ची के निजी अंगों पर गंभीर चोटें हैं। उपचार के लिए उसे  मेरठ के एक अस्पताल में  भर्ती करया गया।  5 अगस्त , 2020 को बुलंदशहर जिले के खुर्जा में 8 साल की बच्ची के साथ रेप की कोशिश हुई जब उसने शोर मचाया तो गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी गई।  इस बच्ची का शव भी गन्ने के खेत में फेंका हुआ मिला।  1 जुलाई , 2020 को मुजफ्फरनगर में 8 साल की बच्ची का रेप किया गया और गला घोट कर हत्या कर दी गई।  उसका शव भी  गन्ने के खेत में मिला।  10 अगस्त को  ग्रेटर नोएडा, दादरी  की  सुदीक्षा भाटी की मौत बुलंदशहर के  औरंगाबाद के निकट सड़क दुर्घटना में हो गई।  उसके परिजनों का कहना है कि मोटरसाइकिल से दो युवक उसे परेशान कर रहे थे और अचानक मोटरसाइकिल उसके बाईक  से आगे आ जाने से वह गिर गई और उसकी मृत्यु हो गयी। शायद ही कोई दिन ऐसा हो जहां इस तरह के दुखद और मानवता को शर्मसार करने वाले समाचार पढ़ने को न मिलता हो।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि उत्तर प्रदेश में न्यूनतम अपराध है।  लगभग एक पखवाड़े के अंदर घटी  ये  घटनाएं न्यूनतम अपराध की घटनाओं की स्याह तस्वीर पेश करती है।  ये वो  घटनाएं हैं जो खबरों में आ गई,  संभव है कि ऐसे कई मामले हो  जो मीडिया रिपोर्ट्स तक नहीं पहुंच सके। नेशनल क्राइम ब्यूरो रिपोर्ट के अनुसार  वर्ष 2018 में देश में महिलाओं के खिलाफ कुल अपराधों की संख्या 378, 277 दर्ज की गई है जबकि वर्ष 2017 में यह संख्या 359, 849 थी । महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में देश के शीर्ष तीन राज्यों में उत्तर प्रदेश का स्थान प्रथम है,  जहां कुल अपराधों की संख्या 59, 455 है।  दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र जहां कुल अपराधों की संख्या 54497 और तीसरे पश्चिम बंगाल है जहां अपराधों की   बाद में कुल 30394 संख्या दर्ज की गई।  वर्ष 2018 में बालात्कार  के सर्वाधिक मामले मध्यप्रदेश में दर्ज किए गए।  यहां कुल बलात्कार की संख्या 5450 थी।  महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल मामलों में 10. 3 बालात्कार के  केस थे। बालात्कार के कुल दर्ज मामलों में सिर्फ 27.2 को ही सजा मिली जबकि कुल दर्ज मामलों में से 85.3 फीसदी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किया गया।  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फरवरी में विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव देते हुए कहा थाकि  ‘इस देश में रामराज्य  ही चाहिए,  समाजवाद नहीं चाहिए।  हमारी सरकार रामराज्य  की अवधारणा को जमीन पर उतारने के लिए प्रतिबंध है ।’  उत्तर प्रदेश में अन्य अपराधों में भी वृद्धि देखने को मिली है। अपराधी बेखौफ  हैं। पत्रकार और पुलिस  पर भी हमले और हत्या के कई मामले प्रकाश में आए हैं।   तो यह सवाल उठना  लाजिमी  है कि क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसी प्रकार के रामराज्य राज्य में लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं?

16 दिसंबर,  2012 को दिल्ली में कुख्यात निर्भया कांड हुआ था।  उसमें पारा मेडिकल की  एक छात्रा के साथ हिंसा और बलात्कार के जघन्य घटना को अंजाम दिया गया।  इसके खिलाफ दिल्ली सहित पूरे देश में आंदोलन हुआ।  आंदोलन के दबाव में सरकार ने महिला यौन उत्पीड़न के खिलाफ कड़े कानून बनाए । दोषियों को त्वरित सजा दिलाने के लिए विशेष न्यायालय में मुकदमा चला तथा दोषियों की फांसी की सजा दी गई । उम्मीद थी इस घटना के बाद  हुए आंदोलन से  जागृति आएगी और जो  कड़ा   कानून बना  उससे महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न, बालात्कार और हिंसा की घटनाओं  में कमी आएगी।  लेकिन बाद की घटना इस बात के सबूत हैं कि महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मामलों में कमी के बजाय वृद्धि हुई है । 27 नवंबर,  2019 को हैदराबाद,  तेलंगाना में एक पशु चिकित्सक डॉक्टर प्रियंका रेड्डी की अपराधियों ने बलात्कार करने के बाद जलाकर हत्या कर दी।  बाद में पुलिस ने चार अपराधियों को गिरफ्तार किया और घटनास्थल पर पुलिस इनकाउंटर  में चारों अपराधियों की मृत्यु हुई। अभी हाल मेंं ही  बिहार के अररिया जिले में कोर्ट ने नया कीर्तिमान स्थापित किया।  कोर्ट ने गैंगरेप की शिकार पीड़िता,  जो अपना बयान दर्ज कराने वहां गई थी, को ही जेल भेज दिया।  इतना ही नहीं पीड़िता को केस दर्ज कराने में मदद के लिए उनके साथ गए दो व्यक्तियों को भी जेल भेज दिया।   

सवाल उठता है कि निर्भया कांड के बाद  कड़ा  कानून  बना ,  अपराधियों को मृत्युदंड की सजा हुई,  कह सकते न्याय हुआ और प्रियंका रेड्डी  हैदराबाद केस में  पुलिसिया न्याय भी हुआ।  मगर इसके बाद भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा, उत्पीड़न और    बालात्कार   की संख्या  में वृद्धि दर्ज हुई है।  इसके साथ ही बलात्कार के बाद जान से मारने,  शरीर के अंगों को क्षत  विक्षत करने,  जलाने जैसे क्रूर और हैवानियत की हद पार करने जैसी घटनाएं प्रकाश में आ रही है।  एक बात  जो परेशान करने वाली  है वह यह  कि  6 साल,  8 साल, 10 साल की मासूम बच्चियां इन दरिन्दों के  हवस की शिकार हो रहीं  हैं। मानवता को कलंकित करनेवाला  हिंसा और क्रूरता की ऐसी मिशाले  देखने को मिल रही है जिसने हैवानियत की  सारी हदें पार कर ली है । यह  एक रुग्ण  समाज का लक्षण है ।  क्या यह समस्या सिर्फ विधि व्यवस्था का मामला है,  जिसे कानून और प्रशासन की सक्रियता से हल किया जा सकता है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि पुलिस के द्वारा सक्रियता दिखाने  से , समय पर उचित कार्रवाई करने और न्यायिक प्रक्रिया में  विलंब को कम करने से स्थिति में फर्क पड़ेगा।  डॉ प्रियंका रेड्डी के केस में पुलिस ने शुरू में यह कहकर एफ आई आर दर्ज करने में आनाकानी की, कि  लड़की किसी के साथ भाग गई होगी। सामान्य लोगों का पुलिस थाना का यह अनुभव है कि उनकी शिकायत या तो दर्ज नहीं होती  अथवा दर्ज की जाती है  तब तक काफी देर हो जाती है, जिससे अपराधी को अपराध को अंजाम देने के बाद सुरक्षित भागने और साक्ष्यों को मिटाने में मदद मिलती। कानून व्यवस्था के साथ-साथ यह  सामाजिक सांस्कृतिक मसला भी है इसका संबंध हमारी विकास नीति से भी है।

 इसका एक सामाजिक सांस्कृतिक आयाम भी है।  यह उन मूल्यों और  मान्यताओं के क्षरण और गिरावट  का भी घोतक है जो हमें संस्कृति से प्राप्त होते हैं।  संस्कृति में वे सारे कौशल और जीवनयापन के  ढंग शामिल है जो मनुष्य को मानव समाज में  परंपरा  और मनुष्य के पारंपरिक संबंधों से प्राप्त होते हैं।  इस अर्थ में हिंदी शब्द ‘संस्कार’  संस्कृति को ठीक-ठीक अभिव्यक्त करता है । हमारा संस्कार अपने समाज के व्यक्तियों के संपर्क से प्राप्त वह गुण है जिसे हमने इस तरह आत्मसात कर लिया है कि विभिन्न स्थितियों में उसके अनुरूप हम बिना प्रयास के स्वत:  यथोचित व्यवहार करते हैं।  अगर कोई ऐसा अपेक्षित व्यवहार करने में चूक जाता है तो उसे संस्कारहीन कहा जाता है।  लोगों के व्यवहारों को नियंत्रित करने में सूचनाओं की  निर्णायक भूमिका होती है। मनुष्य के सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में  संस्कृति भी ऐसे ही सूचनाओं  की स्त्रोत होती है,  जिससे समाज में व्यक्तियों का व्यवहार निर्धारित होता है।  संस्कृति आदमी को  आवृत करने वाला वह  परिवेश है जो जीवन को पूरी तरह से नियंत्रित करता है।

 भोग पर आधारित आधुनिक विकास के मॉडल से भी इस समस्या के तार जुड़े हैं। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की यह खासियत है कि अनावश्यक वस्तुओं को मनुष्य के लिए आवश्यक बना देती है और इस प्रकार मनुष्य की सीमित आवश्यकताओं को सीमाहीन ।  शुरू में हर नया उत्पाद एक छोटे समूह को उपलब्ध होता है और उसे हासिल करने की होड़ शुरू हो जाती है।  क्योंकि साधन सीमित है और देश में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी का जो  आलम है उसमें परिश्रम करने के बाद भी हर व्यक्ति को उसकी आवश्यकता और  इच्छानुसार गरिमामय जीवन जीने का अवसर उपलब्ध नहीं हो पाता।   आक्रामक विज्ञापन जो मीडिया (विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) ,सिनेमा  और इंटरनेट द्वारा परोसा जा रहा है वह समाज पर और विशेष रुप से  नई पीढ़ी पर अपना गहरा प्रभाव डालते हैं। यह उनके अन्दर एक खास तरह की जीवनशैली और भोग वासना  की तीव्र इच्छाशक्ति का निर्माण करते हैं,  जिसे वे हर हालत में हासिल करना चाहते हैं। चूकि उस तरह की जीवन शैली बहुत छोटे  समूह को  उपलब्ध होता है इसलिए अधिकांश लोग  इसे प्राप्त करने से बंचित रह  जाते है। लेकिन उसे हाशिल करने उनकी लालसा कायम रहती है, उसकी  पूर्ति के लिए उन्हें कोई भी मार्ग अपनाने में संकच नहीं होता।  हिंसा  और यौन उत्तेजना से भरे  विज्ञापन ,  और अब तो समाचार चैनलों की बहस भी समाज में हिंसक और विभाजनकारी वातावरण बनाने का काम कर रहे हैं, किशोर मन को विकृत और  कुंठित करते हैं और अपराध   करने के लिए  जमीन तैयार करते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी है जहां बौद्धिक विकास पर बहुत जोर है,  मगर छात्र-छात्राओं का  नैतिक विकास बिल्कुल नहीं  या न  के बराबर होता है।  आचार्य  विनोबा भावे ने शिक्षा में योग, उद्योग और सहयोग को आवश्यक माना था।  योग यानी चित्त पर अंकुश कैसे रखना, इन्द्रियों पर कैसे सत्ता रखना, मन पर कैसे काबू पाना, जबान पर कैसे सत्ता पाना यह जानना। उद्योग =  उत् +योग यानी ऊचा योग।उद्योग के बिना न गुण विकास होता है न गुणों की परख। सहयोग यानी सब का सहयोग, सृष्टि के साथ एक रुपता।  मगर आज की शिक्षा व्यवस्था में इसका सर्वथा अभाव है। महात्मा गांधी ने आधुनिक सभ्यता  के  इस रुझान को पहचाना था और  इसके  खिलाफ  सचेत किया था । हिंद स्वराज्य में उन्होंने कहा था  कि ‘भोग भोगने से भोग की लालसा बढ़ जाती है इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की सीमा बांध दी थी।’ भारत में सूचना क्रांति के द्वारा उत्तर आधुनिक युग की मानसिकता का विस्फोट हो रहा है।  यह  नयी  मानसिकता आधुनिकता से उपजी   सभी मानवीय अवधारणाओं और मूल्यों को नकारती है।  यह  सादगी के मूल्य और जीवन शैली का अवमूल्यन करती है । पृथ्वी को विलास और विहार की भूमि के रूप में रूप में  परिभाषित कर अमर्यादित भोगवाद के लिए जमीन तैयार करती । सभी मानवीय रिश्तों  को नैतिक बंधनों से मुक्त कर अनैतिकता   का विस्तार करती है।  यह  मानव स्वतंत्रता  की ऐसी परिभाषा प्रस्तुत करती है जिसकी परिणति उग्र व्यक्तिवाद में होता है।  उन सभी  पारंपरिक संस्थाओं के आधार को नष्ट करती है जो मानव समाज को सुरक्षा व निरंतरता प्रदान करते आए  हैं । भारत के अनिवार्य पश्चिमीकरण आज के संदर्भ अमेरिकीकरण  को  गांधी जी ने चुनौती दी थी और भारतीय चिंतन और व्यवहार को नया ऐतिहासिक  मोड़  दिया था । गांधीजी के पश्चिमी विरोध और स्वदेशी की अवधारणा को असली अर्थों,  आयामों और मूल प्रेरणाओ को आज के संदर्भ में गहराई से समझने की जरूरत है। महात्मा गांधी ने हिन्दस्वराज्य में   अगाह किया  था कि ‘ यह सभ्यता(आधुनिक औद्योगिक सभ्यता) एक रोग है। यह खुद नाशवान  है और दूसरों को भी नाश करने वाली है।

इसलिए उन कारकों को समझना जरूरी है जो मौजूदा क्षरण और गिरावट के लिए जिम्मेदार है,  तभी हम इसका कोई कारगर समाधान ढूंढ पाएंगे।  मौजूदा भोग  पर आधारित विकास की नीति में  गैर बराबरी और हिंसा के बीज निहित हैं।     इसलिए विकास के मौजूदा अवधारणा पर  पुनर्विचार  की आवश्यकता है ।  हमारे कार्यपालिका और विधायिका को जनता के प्रति ज्यादा  संवेदनशील और जिम्मेदार बनाने की जरुरत है।   विलंब न्याय को  नकरता है,  इस विचार को अमल में लाना न्यायपालिका की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए । पुलिस प्रशासन को लोगों के प्रति विशेषकर गरीब जनता के प्रति ज्यादा संवेदनशील और जिम्मेदारी से  कार्य करने  की आवश्यकता है। इसलिए पुलिस बल में  सुधार और पुर्नगठन आवश्यक है।  सिर्फ कानून बनाने से काम नहीं चलेगा, जरूरत इस बात की है कि कानून को मानने वालों की जमात बढायी जाय।    परिवार समाज की प्रथम पाठशाला है,  जो उपभोक्तावाद और उत्तर आधुनिकता के दौर में कमजोर हुआ है । बच्चों को जो बचपन में परिवार  में संस्कार  मिलता  है उसका असर उसके पूरे जीवन पर  पड़ता है । इसीलिए परिवार संस्था को मजबूत बनाने  जरूरत है।  प्रथम सत्याग्रही और भूदान यज्ञ के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे का मानना है कि उनकी मां का शिक्षा का उनके जीवन  पर गहरा  असर है। वे  कहते हैं  कि  उनकी मां की शिक्षा नहीं मिलती तो मुझे भूदान यज्ञ का विचार नहीं आता  था। ज्यादातर परिवारों में शुरू से ही लड़का एवं लड़की का भेद किया जाता है।  जो आगे चलकर कई प्रकार की समस्याएं पैदा करती हैं।  परिवार में प्रारंभ से ही अगर माता-पिता या अभिभावक बच्चों में यह संस्कार दें कि लड़का लड़की में कोई फर्क नहीं है,  सभी समान है । शक्ति का स्रोत आत्मबल है,  जो स्त्री पुरुष में एक जैसा है।  परिवारों में लड़का को तरजीह देने,  विशेष सुविधा  देने की प्रवृत्ति पर लगाम लगे , लड़के को सही संस्कार देने की पहल माता-पिता या  अभिभावक सचेष्ट  करें तो स्थिति में सुधार संभव है। उन्हें यह भी बोध  कराया जाना चाहिए कि महिलाओं के शरीर पुरुषों के आक्रमण के लिए नहीं हैं , सृष्टि  की व्यवस्था को कायम रखने के लिए परमात्मा या कुदरत ने यह व्यवस्था की  है। सभी समान हैं। सभी प्राणियों के प्रति और  सृष्टि के प्रति आदर- भाव होना  मनुष्य का  स्वधर्म है। स्वधर्म का तात्पर्य मूल स्वभाव, कर्तव्य से है।  इससे स्वस्थ एवं  सुन्दर वातावरण का निर्माण होगा । लड़कों या पुरुषों में  जो विकृत या कुंठा देखने को मिल रहा है उसमें  काफी फर्क पड़ेगा। इसके लिए व्यापक जनजागरण और  एक   सामाजिक – सांस्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता है। यह काम सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं हो सकता। इस कार्य में समाज को आगे आना होगा, इसे मजबूती प्रदान करना होगा। समाज के प्रबुद्धजनों, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार और युवाओं को पहल करना  होगा।

 हो गई है पीड पर्वत सी पिघलनी चाहिए,

 इस हिमालय से कोई गंगा  निकलनी चाहिए।

अशोक भारत

मो. 8709022550

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