बिहार जनादेश के निहितार्थ

बिहार की जनता ने चुनाव पूर्व अनुमानों, राजनीतिक विश्लेषकों तथा एग्जिट पोल के नतीजों से उलट महागठबंधन को दो तिहाई से अधिक सीट दे कर नीतीश कुमार की सत्ता बरक़रार रखी है. इस जनादेश के निहितार्थ क्या हैं? इस पर चर्चा करने से पूर्व एक नजर चुनाव पूर्व राज्य एवं राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक नजर डालते है.

लोकसभा चुनाव 2014 से कुछ माह पूर्व नीतीश कुमार ने एन डी ए से गठबंठन समाप्त कर दिया. तब से उनकी सरकार राजद और कांग्रेस की मदद से चल रही है. लोकसभा चुनाव 2014 में एन डी ए ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अभूतपूर्व सफलता अर्जित की. एन डी ए ने राज्य में 40 में से 33 सीट जीत कर इतिहास रच दिया. नीतीश कुमार की जदयु मात्र दो सीट जीत कर चुनाव में तीसरे स्थान पर रही. 22 स्थानों पर पार्टी के उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई. राज्य में एन डी ए का मुख्य मुकाबला राजद से था. नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा में 282 तथा एन डी ए ने 333 सीट जीत कर नया कीर्तिमान कायम किया. बी जे पी ने उसके बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखण्ड विधानसभा चुनाव में भी शानदार सफलता अर्जित की. जहाँ हरियाणा और झारखण्ड में पार्टी पूर्ण बहमत से सरकार बनाने में कामयाब रही वही महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने में सफलता पाई. महाराष्ट्र में बी जे पी पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. पार्टी का प्रदर्शन जम्मू एवं कश्मीर में भी अच्छा रहा जहाँ बी जे पी पी डी पी के साथ सरकार में हैं. लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली भारी पराजय के कारण नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. जीतन राम मांझी राज्य के नए मुख्यमंत्री बने जिन्हें राजद और कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था. पिछले साल जदयू ने एक बार फिर नीतीश कुमार को विधायक दल का नेता चुना जिसे जीतनराम मांझी ने मानाने से इंकार कर दिया. लेकिन विधायकों का बहुमत नीतीश कुमार के साथ था. भारी राजनैतिक गहमागहमी बाद अंतत: जीतन राम मांझी को इस्तीफा देना पड़ा. एक बार फिर नीतीश कुमार राज्य के मुख्यमंत्री बने. उधर जीतनराम मांझी ने कुछ विधायकों के साथ अलग ग्रुप बनाया जो बाद में नया राजनीतिक दल “हम” बना. इस चुनाव में हम ने एन डी ए के साथ मिलकर चुनाव लड़ा.

“सब का साथ सब का विकास” के वादों के साथ केंद्र की सत्ता में आई नरेन्द्र मोदी की सरकार पिछले 17 महीनो में विकास कार्यों के लिए कम, विवादों के लिए ज्यादा सुर्ख़ियों में रही है. इस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा असहिष्णुता बड़ा मुद्दा बन गया है. देश के बुद्धिजीवी, लेखक, सहित्यकार, रंगकर्मी, पत्रकार तथा फ़िल्मी हस्तियों ने न केवल विरोध किया है बल्कि राष्ट्रीय पुरस्कारों को लौटाकर इसे बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है. इसका प्रभाव बिहार के चुनाव पर भी पड़ा. नेताओं के विवादस्पद बयान और प्रधानमंत्री की चुप्पी ने कमजोर तबकों, अल्पसंख्यकों के मन में संशय और भय का वातावरण बनाया जिसका इस चुनाव पर असर पड़ना लाजिमी था.

बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 30 जनसभा को संबोधित किया. प्रधानमंत्री की सभा में भीड़ तो उमड़ी मगर भीड़ वोट में तब्दील न हो सका. स्वयं प्रधानमंत्री का विवादास्पद बयान भाजपा के खिलाफ गया. मसलन डी एन ए और इडीयट जैसे जुमलों को लोगों ने पसंद नहीं किया. नीतीश कुमार ने इसे बिहार की अस्मिता, स्वाभिमान बिहारी बनाम बाहरी की बहस की तरफ मोड़ कर न केवल मोदीजी को बैकफुट पर ला दिया बल्कि वे महागठबंधन के पक्ष में वोटरों को एकजुट करने में भी सफल रहे. आरक्षण पर मोहन भागवत के बयान ने भी एन डी ए के खिलाफ वातावरण बनाने का काम किया. राजनीति के चतुर खिलाडी लालू प्रसाद यादव ने भागवत के बयान का न केवल मुखर विरोध किया बल्कि उन्हें अनायास ही इस चुनाव में एक ऐसा मुद्दा मिल गया जिसका भरपूर उपयोग उन्होंने अपने वोटरों को यह समझाने के लिए किया कि अगर बी जे पी की सरकार राज्य में बनती है तो आरक्षण नीति में बदलाव होगा जो उनके खिलाफ जायेगा जिसका असर इस चुनाव पर पड़ा. सोसल मिडिया पर भी यह मुद्दा गरमाया. राज्य में 36 आरक्षित सीटों में से एन डी ए के खाते में मात्र 7 सीट आया जबकि 2010 के चुनाव में उसे 21 सीट प्राप्त हुआ था.

चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश सफल नहीं हो सकी. गाय की पूंछ पकड़ कर चुनावी वैतरणी पार करने की कबायद परवान नहीं चढ़ी. इस सन्दर्भ में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का बयान अत्यंत ही निम्न स्तर का रहा. जब उन्होंने कहा कि अगर भाजपा बिहार में हारती है तो पाकिस्तान में पटाखा फूटेगा. अच्छी बात यह रही कि बिहार की जनता ने इसे महत्त्व नहीं दिया. महागठबंधन के नेताओं ने नरेन्द्र मोदी की हर चाल को नाकाम कर दिया. वे मतदाता को यह समझाने में सफल रहे कि झांसे में नहीं आना है. दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने कालाधन की वापसी और महंगाई को बड़ा मुद्दा बनाया था. जनता से वादा किया था कि 100 दिन में काला धन वापस लायेंगे, हर खाते में 15 लाख रू होगा. पिछले 17 महीने में न तो काला धन वापस आया न ही खतों में 15 लाख रू जमा हुए. उल्टे महंगाई बेकाबू हो गई. प्याज और दाल ने लोगों को रुलाया. प्याज 80 और दाल 200 रू किलो के पार पहुँच गया . केंद्र सरकार के मंत्री महंगाई पर नियंत्रण करने के बजाय राजनीति करते रहे, राज्य सरकार पर दोषारोपण करते रहे. महागठबंधन के नेता इसे चुनावी मुद्दा बनाने में कामयाब हुए.

लोकसभा चुनाव 2014 में एन डी ए को 172 विधानसभा क्षेत्र में बढ़त मिली थी. लेकिन विधानसभा चुनाव में यह बढ़त बरक़रार न रहा. भाजपा यह मानकर चल रही थी कि पप्पू यादव, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और ओवैसी के कारण महागठबंधन के मतों का विभाजन होगा जिसका लाभ एन डी ए को मिलेगा. फिर राम विलास पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी प्रयाप्त संख्या में पिछड़ों और दलित वोट को एन डी ए के पक्ष में मोड़ने में सफल होगें. मगर चुनाव नतीजो के विश्लेषण से पता चलता है कि मुलायम सिंह यादव, पप्पू यादव और ओवैसी के कारण न तो महागठबंधन के मतों का विभाजन हो सका और न ही राम विलास पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी के कारण एन डी ए के मतों में कोई खास इजाफा हुआ. भाजपा के रणनीतिकार मतदाताओं के मन आंकने में विफल रहे. इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी एक तीर से दो शिकार करना चाहते थे. पहला तो भाजपा को जीताना और दूसरा नीतीश कुमार से अपना हिसाब चुकता करना. अंतिम क्षण में नीतीश कुमार द्वारा नरेन्द्र मोदी के सम्मान में आयोजित भोज को रद्द करना तथा 5 करोड रू गुजरात सरकार को लौटाना वे भूले नहीं थे. इसलिए उन्होंने बिहार में 30 चुनावी सभा की. कई स्थानों पर दो बार सभा की. जबकि अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में सालभर में एक बार भी नहीं गए. फिर दिल्ली विधानसभा के चुनाव हारने के बाद बिहार में चुनाव हारने का मतलब था उनके लिए राजनीतिक जोखिम का बढ़ना. एक तो पार्टी के अन्दर और बाहर उनका विरोध बढेगा. दूसरा पार्टी के अन्दर चुनाव जीतानेवाले नेता की छवि पर भी प्रश्नचिन्ह लगना. इसलिए इस चुनाव में उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी. मगर बिहार की जनता ने उनकी कल्पनाओं और योजनाओं को परवान नहीं चढ़ने दिया. राज्य में एन डी ए की करारी हार हुई. राज्य के 6 जिले ऐसे रहे जहाँ नरेन्द्र मोदी ने सभा की मगर भाजपा के खाते में एक भी सीट नहीं आया.

2005 से सत्ता से बाहर लालू प्रसाद यादव की राजद पिछले लोकसभा चुनाव में चार सीटों पर सिमट गई. हालाँकि उन्हें 18.4 प्रतिशत मत मिले थे. नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व वाली एन डी ए से मुकाबला के लिए उन्हें एक मजबूत सहयोगी दल की जरुरत थी. दूसरी तरफ एन डी ए से नाता तोड़ने के बाद लोकसभा चुनाव 2014 में यह स्पष्ट हो गया कि नरेन्द्र मोदी का मुकाबला नीतीश कुमार सिर्फ अपने बूते नहीं कर सकते. इस पृष्ठभूमि में जनता परिवार की एकता की पहल हुई. परिस्थितियों ने लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमारको एक साथ आने के लिए जमीन तैयार किया. लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद कांग्रेस के पास कोई ज्यादा विकल्प नहीं बचा था. इस प्रकार राज्य में राजद, जदयू एवं कांगेस का महागठबंधन अस्तित्व में आया. गठबंधन के नेताओं ने समझौते को जमींन पर उतारने में विवेक का परिचय दिया. टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक पूरे तालमेल से काम किया जिसका परिणाम यह हुआ कि महागठबंघन में शामिल दल अपने वोट को घटक दलों के पक्ष में स्थानांतरित करने और एकजुट रखने में सफल हुए. भाजपा ने जीतन राम मांझी को एन डी ए में मिला कर महादलित वोट में विस्तार करने की कोशिश की. मगर जीतन राम मांझी कोई चमत्कार नहीं कर पाए और मुश्किल से एक सीट जीत पाए, एक सीट पर उन्हें स्वयं हार का सामना करना पड़ा. वैसे जीतन राम मांझी कोई खास जनाधार वाले नेता कभी नहीं रहे हैं. नीतीश कुमार ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया और उन्ही के खिलाफ उन्होंने बगावत कर दिया जिसे भाजपा ने हवा दिया और इस चुनाव में नीतीश के खिलाफ इस्तमाल करने की कोशिश की. भाजपा का यह दाव काम न आया और उसे करारी हार का सामना करना पड़ा. चुनाव में महागठबंधन को 41.9 प्रतिशत वोट और 178 सीट मिला. जिसमें राजद को 80 जदयू को 71 तथा कांग्रेस को 27 सीट शामिल है. एन डी ए को 34.1 प्रतिशत वोट और 58 सीट जिसमें भाजपा को 53 लोजपा को 2 रालोसपा को 2 और हम को 1 सीट मिला. 7 सीट अन्य के खाते में गया जिसमें तीन सीट सीपीआई एम् एल का भी शामिल है.

इस चुनाव पर पूरे देश की नज़र थी. नरेन्द्र मोदी ने इसे प्रधानमंत्री बनाम मुख्यमत्री की लड़ाई में तब्दील कर दिया. पार्टी के न केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तीन महीने से बिहार में कैंप किए हुए थे बल्कि केंद्र सरकार के अधिकांश मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री तथा देशभर से पार्टी के कार्यकर्ता यहाँ डेरा डाले हुए थे. भाजपा ने इसे राष्ट्रीय महत्त्व का बना दिया. पार्टी दिल्ली में मिली हार को दुहराना नहीं चाहती थी. लेकिन दिल्ली में मिली भारी पराजय से पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा. भाजपा यह समझने में नाकाम रही कि चुनाव राजनीति की ठोस जमीन पर लड़ी और जीती जाती है. सिर्फ हाइप क्रिएट करने तथा चुनावी जुमलों की मदद से नहीं. नीतीश कुमार की साफ-सुथरी छवि और विकास कार्य तथा लालू प्रसाद यादव का मजबूत जनाधार ने महागठबंधन के पक्ष में जीत की आधारशिला रखी. इस चुनाव परिणाम का देश की राजनीति पर असर पड़ेगा. चुनाव के नतीजे से विपक्ष को नई ऊर्जा मिली है. बिखरे हुए विपक्ष को एकजुट करने की प्रक्रिया तेज होगी. जिसमें लालू प्रसाद यादव एवं नीतीश कुमार की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. भाजपा को अबतक बिखरे हुए विपक्ष से सामना हुआ था अब एकजुट विपक्ष से मुकाबला होगा जो आसान नहीं होगा. इस जनादेश का प्रभाव उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल केरल आदि राज्यों में होने वाले विधानसभा के चुनाव पर भी पड़ेगा. चुनाव नतीजो ने कांग्रस में नया जोश भर दिया है.

विकास बनाम विकास की लड़ाई में राज्य की जनता ने नीतीश कुमार को व्यापक समर्थन दिया है. मगर लालू प्रसाद के साथ गठबंधन में अपने चुनावी वादों को पूरा करना नीतीश कुमार के लिए काफी चुनौतीपूर्ण होगा. मुख्य सवाल यह है कि मुख्यमंत्री विकास का कौन-सा मॉडल अपनाने वाले है. विकास का वही मॉडल यहाँ नहीं चल सकता जिसके कारण पिछले पांच दशक में बिहार श्रेष्ठ प्रशासनिक राज्य से बीमारू राज्य में तब्दील हो गया. मुख्य चुनौती बिहार के श्रम एवं मेधा शक्ति का पलायन रोकना है. इसके लिए श्रम बाहुल्य कृषि एवं कृषि आधारित उद्योग-धंधे, जिसका राज्य में अपार संभावना है, का देशज मॉडल खड़ा करना होगा. ध्वस्त हो चुकी शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाओं के खास्ता हाल को दुरुस्त करना होगा. आपराधिक गतिविधियों पर भी नियंत्रण करना होगा. अगर अगले पांच वर्ष में नीतीश कुमार- लालू प्रसाद की टीम यह कार्य कर पाई तो बिहार देश के शीर्ष विकसित राज्यों में शुमार हो सकता है, क्योकि तब राज्य में उपलब्ध संसाधनों, मेधा एवं श्रम शक्ति का रचनात्मक उपयोग विकास कार्यों के लिए हो सकेगा. अगर ऐसा होता है तो यह देश के लिए भी मिशाल होगा. नहीं तो यह जनादेश गुमनामी के इतिहास में दर्ज होने के लिए अभिशप्त होगा.

अशोक भारत

bharatashok@gmail.com

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