नशा समाज को पंगु बनाता है
—अशोक भारत
देश में नशा का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। खास करके युवा वर्ग इसकी चपेट में आ रहे हैं, जो चिन्ताजनक है। मदिरापान करने वालों की संख्या में हो रही बढ़ोतरी के कई पहलू हैं, जिनमें सरकारी नीति, आधुनिक बनने का गलत अहसास, सामाजिक नियंत्रण का ढीला पड़ना, बढ़ रही सामाजिक स्वीकृति तथा विकास की गलत अवधारणा (मॉडल) शामिल है।
सरकारों का जोर मदिरा का उत्पादन एवं बिक्री से ज्यादा से ज्यादा आमदनी करना है। उत्तर प्रदेश सरकार के आबकारी विभाग के वर्ष 2012-13 के कार्यपूर्ति दिग्दर्शन में कहा गया है कि ‘उपभोक्ताओं को मानक गुणवत्ता की मदिरा उचित दाम पर उपलब्ध कराने व प्रदेश के राजस्व में समुचित वृद्धि सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वर्तमान आबकारी नीति लागू की गयी है। स्पष्ट है कि सरकार ज्यादा से ज्यादा मदिरा बेच कर अधिक से अधिक राजस्व की उगाही करना चाहती है। उपर्युक्त दस्तावेज में स्वीकार किया गया है कि वर्तमान आबकारी नीति के अन्तर्गत आबकारी राजस्व में लगातार वृद्धि हो रही है। विभाग ने न्यूनतम व्यय पर अधिकतम राजस्व अर्जित करके कार्यक्षमता और दक्षता के क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है। विभाग ने वर्ष 2011-12 में राजस्व की प्राप्ति में 21.02 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कर कुल 8139.09 करोड़ रुपये तथा वर्ष 2013-14 में 11875 करोड़ रुपये अर्जित की है। सरकार का वर्ष 2014-15 में राजस्व प्राप्ति का घोषित लक्ष्य 14500 तथा वर्ष 2015-16 में 17500करोड़ रुपये हैं।
सरकार की यह नीति भारतीय संविधान की धारा 47 के खिलाफ एवं समाज को पंगु बनाने वाली है। संविधान की धारा 47 में कहा गया है कि ‘‘राज्य अपनी जनता के पोषक भोजन और जीवन निर्वाह के स्तर को ऊँचा करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्रारम्भिक कर्तव्यों में मुख्य समझेगा और विशेषतया राज्य यह प्रयत्न करेगा कि नशीले पेयों और नशीली दवाइयों के, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, प्रयोग का निषेध हो, सिवाय उनके जो चिfिकत्सा के काम की हैं।’’
लेकिन आजादी के 67 वर्ष बाद भी सरकारें सबों को पोषक भोजन एवं जीवन-निर्वाह के स्तर को ऊंचा करने में विफल रही हैं। आज भी देश का हर चौथा आदमी भूखा है और हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। यह राष्ट्रीय शर्म की बात है। वह भी तब जब देश एक महाशक्ति बनने की होड़ में शामिल है। दूसरी तरफ सरकार शराब के उत्पादन एवं बिक्री को प्रोत्साहन देने में लगी है। सरकार की आबकारी नीति अंतर्विरोध से परिपूर्ण एवं गुमराह करने वाली है। एक तरफ सरकार मद्यनिषेध के लिए अभियान चलाती है और दूसरी तरफ मदिरा के उत्पादन एवं बिक्री से अधिकतम राजस्व की उगाही का लक्ष्य भी निर्धारित करती है, जिसके आर्थिक, सामाजिक प्रभाव अत्यन्त घातक हैं।
महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘जो राष्ट्र शराब की आदत का शिकार है, उसके सामने विनाश मुँह बाये खड़ा है। इतिहास में इसके कितने ही प्रमाण हैं कि इस बुराई के कारण कितने ही राष्ट्र मिट्टी में मिल गये।’’ उन्होंने इसे शरीर व आत्मा के लिए हानिकारक व्याधि कहा था। उनका मानना था कि ‘‘मद्यपान एवं अन्य नशीले पेयों का व्यसन अनेक दृष्टियों से मलेरिया एवं ऐसे ही अन्य रोगों से उत्पन्न व्याधि से भी बुरा है। क्योंकि जहां मलेरिया आदि से केवल शरीर को ही क्षति पहुंचती है वहां मद्यपान से शरीर एवं आत्मा दोनों ही क्षतिग्रस्त होते हैं।’’
मदिरापान किसी भी समस्या का समाधान नहीं अपितु समस्याओं की जड़ है। अत्यधिक शराब के सेवन से लीवर में सूजन, अल्सर, पीलिया, नपुंसकता, हृदय से संबंधित बीमारियां, नाड़ी संस्थान के विभिन्न रोग, बेहोशी तथा अन्य प्रकार की व्याधियां जन्म लेती हैं। मदिरापान से पेट में गैस और दर्द तो होता ही है, कालान्तर में यह अल्सर का कारण बनता है। मदिरापान से आँतों को शोषित करने की क्षमता में कमी आ जाती है। ७५ प्रतिशत लोग जिनके लीवर में सूजन पायी जाती है, उनके पीछे अल्कोहल जरूर होती है। इसमें भूख का कम लगना, बेचैनी, उल्टी होना और पाचन संबंधी विकार उत्पन्न होते हैं। यकृत की कोशिकाओं में सूजन से यकृत काम करना बंद कर देती है। कभी-कभी अल्कोहल ज्यादा मात्रा में लेने से अवशोषित सोडियम और पानी का संचालन में कठिनाई होती है। फलस्वरूप शरीर की अन्य जैविक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं।
शराब के सेवन से रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होती जाती है और व्यक्ति की जीवन प्रत्याशा कम होती जाती है। मानसिक दुर्बलता, क्रोध, उत्तेजना, संदेह, स्मृतिनाश व विभिन्न प्रकार की मनोविकृतियां मदिरापान की ही देन हैं। अपराधों एवं दुर्घटनाओं की जननी है शराब, क्योंकि कोई भी कुकृत्य होशपूर्ण अवस्था में करने का साहस न करने वाला व्यकित नशे के उन्माद में सहज ही ढेरों अपराध व दुर्घटनाओं का कारण बनता है। एक अध्ययन के अनुसार 37 दुर्घटनाओं का कारण शराब है। 15-20 प्रतिशत सिर पर चोट लगने की घटना का (Brain Injury) कारण भी शराब है। आत्महत्या करने वालों में 34 प्रतिशत शराब का सेवन करने वाले होते हैं। कार्यस्थल पर होने वाली दुर्घटना में 40 प्रतिशत शराब के कारण होती हैं तथा कार्य स्थलों में 27 प्रतिशत गैरहाजिरी का कारण शराब है। पति द्वारा पत्नी पर की जाने वाली 85 प्रतिशत हिंसा का कारण शराब को पाया गया है।
वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है शराब, क्योंकि मद्यपान के कारण व्यक्ति टूटता है, परिवार टूटता है, सुहाग उजड़ते हैं, स्त्री जाति अपमानित होती है, लोग दीवालिया बनते हैं, घर बिकते हैं, खून होते हैं और मानवता नष्ट होती है।
सरकार का तर्क है कि विकास योजनाओं को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराने में आबकारी विभाग द्वारा उपलब्ध राजस्व का योगदान महत्त्वपूर्ण है। विभाग का दावा है कि उसके द्वारा अर्जित राजस्व का 99 प्रतिशत भाग विकास परियोजनाओं के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ऊपरी तौर पर देखा जाये तो सरकार का दावा सही प्रतीत होता है, मगर गहराई से परीक्षण करने पर तस्वीर का दूसरा पहलू उभर कर सामने आता है। महात्मा गांधी ने मद्यपान और अन्य नशीले पेयों से होने वाली राज्य की आय को निकृष्टतम ढंग का कराधान माना था। लेकिन बाजारवादी अर्थव्यवस्था में हमारे सोचने-विचारने के तौर-तरीकों एवं मान्यताओं में गुणात्मक परिवर्तन हो गया है। सारा ध्यान संसाधन जुटाने पर है, चाहे वह जैसे भी अर्जित किया जाये। यही सरकारों का मुख्य एजेण्डा हो गया है। जनस्वास्थ्य, सामाजिक न्याय, लोककल्याणकारी राज्य का विचार गौण हो गया है। महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘मैं हजारों लोगों को शराबी होने के स्थान पर भारत का वंâगाल राज्य के रूप में परिणति होना पसन्द करूंगा। यदि भारत को सुरापान से सर्वथा मुक्त करने का मूल्य चुकाने के लिए भारत को शिक्षा से भी वंचित रहना पड़े तो मुझे यह स्थिति स्वीकार है।’’ मगर आजकल यह विचार प्रचलन में नहीं है और हम राष्ट्रपिता के प्रेरणादायक उत्पादक विचार को भुलाने में लगे हैं।
सवाल यह उठता है कि अगर गुजरात राज्य पूर्ण मद्य निषेध के बावजूद देश के सर्वाधिक विकसित राज्यों में से एक है तो फिर अन्य राज्यों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता। स्मरण रहे कि १६वीं लोकसभा चुनाव में गुजरात का विकास मॉडल बड़ा मुद्दा बना था, जिसे जनता का पूरा समर्थन मिला। असल में राजस्व की हानि केवल कोरा भ्रम है। महात्मा गांधी मानते थे कि ‘‘राजस्व की हानि केवल ऊपरी तौर पर ही होती है। इस पतनोन्मुखी कर के हटा लिए जाने से मद्यपान से मुक्त करदाता अधिक कमाने में और अच्छी तरह से व्यय करने में समर्थ हो सकेगा। अत: ऐसा होने से केवल व्यक्ति को ही लाभ नहीं होगा अपितु राष्ट्र को ठोस आर्थिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।’’
वैसे देखा जाये तो शराब के कारण होने वाले राजस्व लाभ की तुलना में हानि अधिक है। इसके (शराब) के कारण किये जाने वाले आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय, स्वास्थ्य सेवा, पुलिस, प्रशासन, न्यायालय आदि के खर्चे का आकलन किया जाये तो प्राप्त राजस्व की तुलना में व्यय ही ज्यादा होता है। एक अध्ययन में यह पाया गया है कि शराब से प्राप्त आय की तुलना में उसके कारण होने वाला कुल व्यय ६० प्रतिशत ज्यादा होता है।
शराब एक ऐसी बुराई है, जिसे जड़मूल से समाप्त किये बिना स्वस्थ्य एवं समृद्ध राष्ट्र का सपना साकार नहीं हो सकता। अत: हम सबको पूर्ण नशामुक्त समाज की स्थापना हेतु अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। हम सबका दायित्व है कि सम्पूर्ण मानवता को मद्य एवं मादक पदार्थों से बचाने हेतु अपनी-अपनी भूमिका को अंजाम दें। स्वयं नशीले पदार्थों का परित्याग करें। जन-जन तक इसके दुष्परिणामों और भ्रांतियों की जानकारी को पहुंचायें। पूर्ण नशामुक्त समाज की स्थापना हेतु जन-जागृति पैâलाएं तथा लोक-शक्ति का निर्माण करें।
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