आज की चुनौती एवं युवा
हर समाज के सामने कोई सवाल होता है और उसे वह अपने स्तर से हल करने की कोशिश करता है। विज्ञान के इस युग में मनुष्य ने भौतिक उपलब्धियां तो बहुत हासिल कीं, सुख-सुविधा व आराम के साधनों का अम्बार लगा दिया। एक से बढ़कर एक संहारक हथियारों का निर्माण किया, जिससे पूरी दुनिया को मिनटों में समाप्त किया जा सकता है। मनुष्य अंतरिक्ष में पहुंच गया है। मंगल व अन्य ग्रहों पर पहुंचने की कवायद तेज हो गयी है। सूचना क्रांति ने पूरे विश्व को एक वैश्विक गाँव में तब्दील कर दिया है। दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले आपस में इस प्रकार बात-चीत कर सकते है मानो वे अगल-बगल में बैठे हो। सूचना क्रांति ने जिन्दगी को बहुत सुगम बना दिया है। कुछ दशक पहले तक आम आदमी जिन चीजों की कल्पना नहीं कर सकता था, उसका आज सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है। इन चमत्कारी उपलब्धियों और भौतिक समृद्धि के बावजूद दुनिया आज गहरे संकट में फँसती जा रही है। आज दुनिया के सामने तीन बड़े सवाल हैं, जिनका हल अभी ढूढ़ना बाकी है और जिसके बिना ये तमाम चमत्कारी उपलब्धियाँ बेकार साबित होंगी।
पहला हिंसा और आतंकवाद। सारी भौतिक संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद विश्व शांति की स्थापना आज सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है। दुनिया का शायद ही कोई देश या हिस्सा है जो हिंसा और आतंकवाद से प्रभावित नहीं है। चाहे भारत हो या पाकिस्तान, अफगानिस्तान हो या इराक, अमेरिका हो या फ्रांस या अन्य कोई देश सभी हिंसा और आतंकवाद की चुनौती से जूझ रहे हैं। विज्ञान और तकनीक की मदद से जमा किया गया हथियारों का जखीरा इसे रोकने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं, दूसरा है पर्यावरण का संकट। विकास के भोगवादी माॅडल के कारण यह संकट गहराता जा रहा है। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। विश्वभर के वैज्ञानिक, समाजशास्त्री तथा पर्यावरणविद् यह मानने लगे हैं कि पर्यावरण संकट के कारण पूरी मानव सभ्यता विनाश के कगार पर पहुँच रही है। तीसरी बड़ी चुनौती भूख, गरीबी और आर्थिक मंदी की है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भोजन के अधिकार पर नियुक्त विशेष प्रतिनिधि प्रो. हिलाल ईल्वर का मानना है कि विश्व में एक अरब लोग भूखे हैं। जमीन, पानी और संसाधनों की उपलब्धता से जुड़े पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी के प्रभाव के फलस्वरूप आधुनिक औद्योगिक कृषि प्रणाली अब इस दुनिया की भूख शांत नहीं कर पाएगी। दुनिया का आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। 2008 में आयी मंदी से अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी पूरी तरह उभरी नहीं है। यूरोजोन संकट में है, ग्रीक के संकट ने स्थिति को और भी कठिन बना दिया है, चीन की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ गयी है। कुछ वर्ष पूर्व यूरोप एवं अमेरिका के युवाओं द्वारा शुरू किया गया आन्दोलन ‘अकुपाई द वाल स्ट्रीट’ ने अमेरिकी तथा पश्चिमी देशों की विकास के वर्तमान माॅडल पर गहरे सवाल खड़े कर दिए है जिस पर पुनर्विचार करना लाजिमी हो गया है।
आजादी के बाद देश ने विकास का जो रास्ता अपनाया उससे अमीरी और गरीबी तथा गाँव और शहर के बीच विषमता काफी बढ़ी है। एक तरफ दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बंगलूरू आदि जगमगाते महानगर है तो दूसरी तरफ उजड़ते गाँव, लुटते-पिटते किसान हैं। 1930 में नमक सत्याग्रह के समय गांधीजी ने तत्कालीन वायसराय को पत्र लिखकर पूछा था, आपकी आमदनी और सबसे गरीब आदमी के बीच का फासला 5000 गुणा है, फिर भी आप नमक पर टैक्स लगाते है। उम्मीद थी आजादी के बाद स्थिति में सुधार होगा। मगर हुआ बिल्कुल उल्टा। आज सबसे अमीर और गरीब आदमी के बीच का फासला कई लाख गुणा हो गया है। पिछले दो दशकों में लगभग तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। आज खेती घाटे का सौदा हो गया है। किसानों की स्थिति इतनी दयनीय है कि आज कोई भी किसान का लड़का किसान बनना नहीं चाहता। यह स्थिति देश के लिए अत्यन्त चिन्ताजनक है। किसान की इस स्थिति के लिए सरकार की वह नीति जिम्मेदार है जिसके तहत पूंजीपतियों-उद्योगपतियों के हित में किसान के श्रम का मूल्य बहुत कम कर के आँका जाता है, ताकि अर्थव्यवस्था पटरी से न उतरे। जिसका परिणाम यह निकला कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था चैपट हो रही है और किसान कर्ज के जाल में फँसकर आत्महत्या करने को मजबूर है। आर्थिक विषमता बढ़ने का मतलब है गरीबी, बेरोजगारी, भूख एवं कुपोषण में इजाफा होना। आज देश का हर दूसरा बच्चा कुपोषित है और हर चैथा आदमी भूखा है। जनगणना के ताजा आँकड़े यह बताते हैं कि देश के 51 प्रतिशत परिवार गरीब है। देश के 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल संसाधनों का 75 प्रतिशत है। इस भीषण विषमता ने देश को दो भागों में बाँट दिया है। देश के 10 प्रतिशत लोगों के पास जीने के सभी साधन सुगमता से उपलब्ध हैं और दूसरी तरफ देश की बहुसंख्यक आबादी के पास जीने का कोई साधन या आधार उपलब्ध नहीं है। जिसके पास थोड़ा है भी, वह विकास परियोजनाओं की बलिवेदी पर सर्वस्व न्यौछावर करने को मजबूर है। यह देश का अत्यन्त निर्धन तबका है जो आजीविका की तलाश में दर-दर भटकने, अत्यन्त अमानवीय स्थिति में जीने को मजबूर है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत कर, किसानों को संबल प्रदान कर स्थिति में बदलाव किया जा सकता है, मगर सरकार की प्राथमिकताओं में स्मार्ट सिटी और शहरीकरण को बढ़ावा देना है, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट और भी बढ़ेगा। अगर गाँव नहीं बचेगा, किसान नहीं बचेगा, तो देश भी नहीं बचेगा। यह आज की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। विषमता के कारण समाज में हिंसा एवं अपराध को बढ़ावा मिलता है, जिससे सबसे ज्यादा युवा वर्ग एवं कमजोर तबका प्रभावित होता है।
आर्थिक विषमता के साथ-साथ सामाजिक विषमता में भी वृद्धि हुई है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार, हिंसा एवं यौन अपराध में बेतहाशा वृद्धि हुई है। नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सबसे दुःखद तो यह है कि इसमें पुलिस की संलिप्तता आये दिन उजागर होती रहती है। स्थिति इतनी खराब है बेटियां अपनी माँ के गर्भ में भी सुरक्षित नहीं है। यह एक बीमार समाज के लक्षण है। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’ में आधुनिक सभ्यता को एक रोग बताया था। आज उनकी बातें सच साबित हो रही हैं। देश में साम्प्रदायिक एवं फासीवादी ताकत फिर उभार पर है। हाल के दिनों में देश में साम्प्रदायिक तनाव एवं हिंसा में वृद्धि हुई है जो बहुत चिन्ताजनक है। भारत सनातन, जैन, बुद्ध एवं सिख चार-चार धर्मो का उद्गम स्थल है। यहाँ विश्व के सभी प्रमुख धर्मो के अनुयायी रहते हैं। भारत की संस्कृति समन्वय की संस्कृति है। सबके साथ रहने एवं मिलकर चलने की परम्परा सदियों से विकसित हुई है। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो विश्व धर्म संसद में हिन्दू धर्म की इसी विशिष्टता से लोगों को अवगत कराया था जिससे हिन्दू या वैदिक धर्म का डंका पूरे विश्व में फैला। महात्मा गांधी ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया, वे भारतीय संस्कृति के नवनीत थे। उन्होंने सर्व धर्म समभाव को प्रमुख रचनात्मक कार्यक्रम बनाया, 18 रचनात्मक कार्यक्रमों में पहला स्थान दिया। कुछ लोग इस देश में नफरत और विद्वेष की राजनीति में विश्वास करते हैं, यह भारतीयता के खिलाफ है। भारतीयता सरल स्वस्थ जीवन की आकांक्षा है, जो विश्वशांति एवं बंधुत्व का पोषक है। भारत और भारतीयता को मजबूत करना आज के युवाओं का युग धर्म है।
दुनिया में परिवर्तन की अगुवाई हमेशा युवाओं ने की है। युवा आदर्श के लिए जीता और आदर्श के लिए मर सकता है। युवा अवस्था की सबसे अच्छी बात यह है कि शरीर के विकास के साथ-साथ उसके विचार भी परिपक्व होते जाते हैं। उसमें नयी उमंग, नया उत्साह होता है। युवा नये विचारों का प्रतिनिधि होता है। उसमें अपना मार्ग खुद बनाकर चलने का माद्दा होता है। 23 साल की उम्र में जब भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए हंँसते-हंँसते फाँसी के फन्दों को वरण किया था तो वह युवा था। विवेकानन्द ने जब शिकागो के धर्मसंसद में भाषण दिया था, तब वे युवा थे। कार्ल माक्र्स ने अपना पहला शोध प्रबंध कम्युनिस्ट घोषणा का प्रस्तुत किया था तब वे 28 वर्ष के युवा थे, जो पूरी दुनिया में समाजवादी व्यवस्था का आधार बना। पिछली शताब्दी में अपने शोध प्रबंध से विज्ञान के क्षेत्र में पूरी दुनिया मंे क्रांति लानेवाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने जब सापेक्षतावाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया तब वे 25 वर्ष के थे। भगवान बुद्ध ने जब घर छोड़ा तब युवा थे। अन्याय, अनीति से लड़ने के अहिंसाक हथियार सत्याग्रह की ईजाद जब महात्मा गांधी ने की, तब उनकी उम्र 34 वर्ष थी।
भारत दुनिया का सबसे युवा आबादी वाला देश है। यहाँ 25 वर्ष के कम आयु के लोगों की संख्या 54 प्रतिशत है। लेकिन भारत में युवाओं की स्थिति ठीक नही है, उनमें हताशा और निराशा है। इसका एक कारण तो यह है कि आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण में युवा-शक्ति के रचनात्मक उपयोग की कोई योजना नहीं बनाई गई। सब कुछ सरकार के भरोसे छोड़ दिया गया। यह मान लिया कि अपनी सरकार आ गई, अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। सरकार की भूमिका प्रमुख हो गई, समाज गौण हो गया। दूसरे, देश में कोई युवा नीति नहीं बनाई गई जिसका नतीजा यह हुआ कि युवा दिग्भ्रमित हो भटकाव के शिकार हो गए। फलस्वरूप समाज का सबसे उत्पादक तबका राष्ट्र निर्माण के बजाय विध्वंस व अन्य गतिविधियों में लग गया। इस सब का कुल परिणाम यह हुआ कि देश आज गरीबी, बेरोजगारी, विषमता, अशिक्षा, हिंसा और आतंकवाद, साम्प्रदायिक हिंसा, तनाव आदि आर्थिक और सामाजिक विषमता के भँवरजाल में फँस गया है। इस भँवरजाल से निकलने का रास्ता क्या है ? आदमी बीमार होता है तो डाॅक्टर के पास जाता है, जब पूरे समाज में बीमारी फैली हो तो उसका उपचार युवा ही कर सकता है। इसलिए आवश्यकता है कि युवा-शक्ति सामाजिक सरोकार और राष्ट्र निर्माण के कार्य से जुड़े, इसकी ठोस योजना बनाने की। इसके लिए सतत प्रशिक्षण प्रबोधन की व्यवस्था हो, उन्हें कार्यकुशल एवं दक्ष बनाया जाए, उनके कौशल का विकास हो ताकि वे आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होकर अपनी पूरी क्षमता का उपयोग स्वयं एवं समाजहित में कर सकें। प्रशिक्षण द्वारा उनके नेतृत्व गुण विकास को निखारा जाए, तथा सक्षम बनाया जाए ताकि वे मौजूदा चुनौती का सफलतापूर्वक सामना कर सकें, नये समाज तथा राष्ट्र के निर्माण में अपनी कारगर भूमिका निभा सकें। एक ऐसे भारत का निर्माण कर सके जहाँ सबको इज्जत के साथ जीने का अवसर मिल सके। महात्मा गांधी ने आर्थिक समानता एवं सामाजिक न्याय के बिना राजनैतिक आजादी को अधूरा माना था। वे ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करें कि यह उनका देश है-जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है। जिसमें ऊँचे और नीचे जैसे वर्गो का भेद नहीं हो और विविध सम्प्रदायों में पूरा मेलजोल हो। ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो। उसमें स्त्रियों के वही अधिकार हों जो पुरुषों के हों। देश-दुनिया के साथ हमारा संबंध शांति का होगा, न तो हम किसी का शोषण करेंगे, न किसी के द्वारा शोषण होने देंगे।
अब समय आ गया है इन सपनों को साकार करने के लिए एकजुट प्रयास करने का। यह काम अकेले कोई सरकार या राजनीतिक दल नहीं कर सकता। समाज के पुरुषार्थ एवं युवाओं के समर्पित, संकल्पित नेतृत्व में साकार होगा यह सपना। इसके लिए देश मंे युवाओं के बीच एक सक्रिय अभियान चलाने की आवश्यकता है।
अशोक भारत
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मो.: 9430918152, 8004438413
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