बदलाव की मृग मरीचिका से आगे
लोकतंत्र का महापर्व चुनाव बिहार में दस्तक दे रहा है। इसलिए राज्य में राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गयी है। राजनीतिक दल सक्रिय हो गये हैं। चुनाव जीतने के लिए एक तरफ राजद, जद (यू) तथा कांग्रेस का महागठबंधन है तो दूसरी तरफ एन. डी. ए. में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा से अतिरिक्त जीतन राम मांझी की हम शामिल है। अन्य छोटी-बड़ी पार्टियां भी चुनावी समीकरण बनाने व बिगाड़ने में जुट गयी हैं।
आजादी के बाद से अब तक के सफरनामे पर गौर करे तो पाते हैं कि बिहार राजनीति की प्रयोगशाला एवं बदलाव की भूमि रही है। चाहे डा. राम मनोहर लोहिया का 1967 में ‘कांग्रेस हटाओ, 1977 में जनता लहर, फिर 1989 में वी. पी. सिंह का जनता दल का दौर अथवा 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एन. डी. ए. का अभियान हो, बिहार की जनता ने हमेशा इसमें बढ़चढ़ कर भागीदारी की, बदलाव की बयार को संबल प्रदान किया तथा सत्ता परिवर्तन में साथ दिया। इन राजनीति प्रयोगों ने देश की राजनीतिक में युगान्तकारी प्रभाव डाले । 1967 में राज्य में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी जिसने देश में गैर-कांग्रेसी सरकार की सम्भावना को जमीन दी जिसकी परिणति 1977 में पहली बार केन्द्र में गैर-कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार में हुई। इसने देश में पनप रही तानाशाही की प्रवृत्ति को नष्ट कर लोकतंत्र की नींव को मजबूत किया जिसका प्रभाव दूरगामी हुआ। 1989 में वी. पी. सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को बिहार की जनता का भरपूर साथ मिला। 1989 में वी. पी. सिंह के नेतृत्व में केन्द्र में तथा 1990 में बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी जिसे मंडल की राजनीति ने ठोस राजनीतिक जमीन प्रदान की। राज्य में चारा घोटाला और उसके बाद उत्पन्न परिस्थिति में लालू प्रसाद यादव के विरोध की राजनीति का नेतृत्व नीतीश कुमार ने किया और 2005 में पहली बार राज्य में एन. डी. ए. की सरकार पूर्ण बहुमत से नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी। 16वी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार ने एन.डी.ए. का साथ छोड़ दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी तथा एन.डी.ए. को मिली अभूतपूर्व सफलता के बाद एक बार फिर लालू प्रसाद यादव एवं नीतीश कुमार एक साथ हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीति समाज परिवर्तन एवं निर्माण का सशक्त माध्यम हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि आजादी के बाद से अब तक बिहार में जो राजनीतिक आन्दोलन हुए, सत्ता परिवर्तन हुए, उससे बिहार के हिस्से में क्या आया? हर परिवर्तन का कुछ न कुछ सकारात्मक पक्ष अवश्य होता है। मगर किसी परिवर्तन या बदलाव का मूल्यांकन इस आधार पर होगा कि वह अपने घोषित लक्ष्य को हासिल करने में कितना कामयाब हुआ अथवा कितना उसके नजदीक पहुंचा। पचास के दशक में बिहार की गिनती देश के श्रेष्ठ प्रशासनिक राज्यों में होती थी। बिहार 14 राज्यों में चैथे स्थान पर था। आज यह पिछड़ा, बिमारू प्रदेश आरजकता और अव्यवस्था का पर्याय बन गया है। कभी बिहार के शिक्षण संस्थानों की गिनती देश के शीर्ष शिक्षण संस्थानों में होती थी, आज माध्यमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के लिए बिहार के छात्र दिल्ली, चेन्नई, बंगलूरू, हैदराबाद आदि महानगरों तथा अन्य राज्यों का रुख करते हैं। राज्य में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक की स्थिति अत्यन्त जर्जर एवं दयनीय है। यही स्थिति चिकित्सा व्यवस्था की है। राज्य में आठ मेडिकल काॅलेज हैं। ऊपर से नीचे तक चिकित्सा का पूरा ढाँचा है। मगर हालात इतने खराब हैं कि लोगों को साधारण बीमारी के उपचार के लिए भी बाहर जाना पड़ता है। दिल्ली, वेलोर के अस्पतालों में आप बिहार से आए मरीजों की लम्बी कतार देख सकते हैं। राज्य से श्रम-शक्ति और मेधा-शक्ति का पलायन लगातार हो रहा है। पलायन बिहार की मुख्य समस्या बन गयी है। यहाँ के सुविधा सम्पन्न और गरीब वर्ग दोनों पलायन कर रहे हैं। सुविधासम्पन्न तबका बेहतर सुविधा, पढ़ाई और सुख-चैन से जिन्दगी जीने के लिए यहाँ से पलायन कर रहे हैं। गरीब तबका आजीविका कमाने और अमीरों के आधिपत्य से मुक्ति के लिए पलायन कर रहे हैं।
बिहार की जनता में परिवर्तन की तीव्र आकांक्षा है। इसलिए यहाँ की जनता ने समय-समय पर जो भी नेतृत्व सामने आया, उस पर विश्वास करके बदलाव के पक्ष में अपना पूरा समर्थन दिया । फिर भी बिहार विकास के दौर में पिछड़ता क्यों चला गया, और आज इसकी हालत इतनी दयनीय क्यों हो गयी है? इसके लिए जिम्मेवार कौन है? क्या नेतृत्व से चूक हुई, या विकास की योजनाओं में कोई कमी रह गई, अथवा इन योजनाओं को जमीन पर उतारने वाला तंत्र मुकम्मल नहीं था, संसाधनों का अभाव अथवा अन्य कोई कारण? बिहार के पिछड़ेपन के लिए संसाधनों का अभाव, भूमि सुधार का राजनीति एजेन्डा से गायब होना, केन्द्र सरकार की भेदभावपूर्ण नीति, आन्तरिक उपनिवेशवाद (देश में विकास की पूंजीवादी माॅडल के कारण) सुशासन एवं भ्रष्टाचार की आदि की खूब चर्चा होती है। मगर एक और कारण है जिसकी चर्चा बहुत कम होती है, वह यह कि बिहार में राजनीति आन्दोलन तो बहुत हुए मगर सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन नहीं हुआ। जो भी आंदोलन हुए राजनीतिक या आर्थिक मुद्दे से जुड़े रहे। लेकिन आर्थिक विकास और राजनीतिक भागीदारी तब तक कामयाब नहीं हो सकती, जब तक सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर समाज में बराबरी का दर्जा कायम न कर दिया जाय। मेरे ख्याल में बुद्ध और महावीर के बाद बिहार में सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार के आन्दोलन नहीं हुए। पिछड़ेपन के कारणों का जवाब इसके विस्तार में जाकर खोजना होगा।
अंग्रेजों ने जो जमींदारी प्रथा कायम की, वह बिहार के पिछड़ेपन के लिए व्यापक रूप से जिम्मेदार है। इस व्यवस्था को अंग्रेजो ने एक संस्थागत रूप दिया और आर्थिक विकास और राजनीतिक शक्ति के रूप में जोड़ दिया, जिसके फलस्वरूप शोषण में बढ़ावा हुआ और विषमता में वृद्धि हुई। जमींदारों ने साधनों का उपयोग विकास के लिए नहीं किया। जमींदारों के पास जो भी पूंजी थी, साधन था, उसका उपयोग आम आदमी के विकास के लिए नहीं किया गया। जमींदारी प्रथा का मूल उद्देश्य बिना काम किए उपज का अधिक से अधिक हिस्सा हड़प लेना था। दूसरा नतीजा यह निकला कि वे न तो कुछ कर पाये और न ही अपनी आंतरिक संरचना (पूंजी) का ही विकास कर पाये। दूसरे राज्यों मंे विकास हुआ, क्योंकि वहाँ शोषण तो हुआ लेकिन उत्पादन कर पूंजी बचाई गयी और उसका उपयोग विकास के कार्य में भी किया गया। अर्थात बिहार में जमींदारों और राजाओं ने राज-धर्म का पालन नहीं किया। बिहार की बदहाली का प्रमुख कारण सामाजिक व्यवस्था में बराबरी की कमी रही है। हालांकि यह कमी शुरू से रही है, लेकिन यह विभाजन इधर बढ़ गया है। अगड़ा-पिछड़ा अथवा सवर्ण और अवर्ण के बीच ही यह विभाजन नहीं है, बल्कि उनके बीच भी उपजातियां है। इस उपजाति में भी कई स्तरों पर विभाजन है। इस विभाजन का परिणाम यह निकला कि कोई शक्ति उभरकर सामने नहीं आई जो स्थानीय लोगों को नेतृत्व प्रदान कर आगे बढ़ने की दिशा दे सके। राज्य ने भी इस विभाजन को तोड़ने का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया, बल्कि उसे और आगे बढ़ाया। जिस पार्टी की सरकार बनी, उसने सबको प्रतिनिधित्व देने के नाम पर प्रत्येक जाति को अपनी सरकार में शामिल कर जाति की राजनीति को बढ़ावा दिया। यह सब चीज विकास के कार्य में रोड़ा है। जब पूरे समाज के लिए योजना नहीं बनाई जाय तो पिछड़ापन तो रहेगा ही, किसी भी सरकार के दौर में सामाजिक मान्यता नहीं बदली। व्यक्ति बदल गए, पार्टिया बदल ली गयीं, परन्तु जो सामन्ती विचारधारा है उसके स्वरूप में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दिया। आम जनता के सामने मौलिक बदलाव की दिशा कभी नहीं आई। यहाँ के अधिकांश आन्दोलन राजनीतिक शक्ति के अन्दर अपनी भागीदारी के लिए तथा सामाजिक सम्मान पाने के लिए चलाए गए। लेकिन ऐसा कोई आन्दोलन नहीं हुआ जो सामाजिक सांस्कृतिक सुधार को गति और दिशा प्रदान करे। समाज में जो बराबरी का अभाव है, जकड़न है, वह टूट नहीं पा रही है। फलस्वरूप छिपी हुई जो ऊर्जा है उसका उपयोग करना सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसलिए बिहार का संकट तब तक समाप्त नहीं हो सकता जब तक आप लोगों को बराबरी का हिस्सा देकर उनकी क्षमता, शक्ति का उपयोग कर, समाज के उत्थान में भागीदार नहीं बनाते।
इस पृष्ठभूमि में एक बार फिर राज्य में चुनाव की बिसात बिछ गई है। वैसे देखें तो जो भी राजनीतिक दल या गठबंधन चुनाव में आमने-सामने हैं, उनमें से एक भी दल या गठबंधन ऐसा नहीं जिसकी सरकार बिहार में नहीं रही हो। लोकसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व तक राज्य में नीतीश कुमार के नेतृत्व में आठ से अधिक वर्ष तक एन.डी.ए. की सरकार थी, तब भाजपा के नेता सुशासन एवं सरकार की उपलब्धियों का बखान करते हुए नहीं थकते थे। अब उन्हें नीतीश कुमार की सरकार में बुराई ही बुराई नजर आ रही है। यह राजनीतिक अवसरवादिता का श्रेष्ठ उदाहरण है। राज्य में राजनीतिक अवसरवादिता का खेल नया नही है, वर्षो से चला आ रहा है। कभी नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के कथित जंगल राज के खिलाफ अभियान चलाया था, अब दोनों साथ-साथ चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। इस चुनाव में मुद्दे वही, चेहरे वही सब पुराना है, सिर्फ बोतल बदल गयी है। जो साथ-साथ चुनाव लड़ रहे थे अब आमने-सामने है जो एक दूसरे के खिलाफ थे अब साथ-साथ है। नाम विकास का और नजर जाति समीकरण पर। दोनों गठबंधन इसी को ध्यान में रखकर चुनावी नैय्या पार करने की कवायत में जुट गए हैं।
बिहार में सत्ता के दावेदार राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि बिहार से श्रम-शक्ति एवं मेधा-शक्ति का पलायन कैसे रोकेंगे। उसकी स्पष्ट योजना जनता के सामने रखनी चाहिए। बिहार की श्रम-शक्ति से पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों की कृषि एवं उद्योग- धन्धे चल रहे है। वहाँ की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है और बिहार का खस्ता हाल है। बिहार के छात्र तथा पैसे के बदौलत कोटा, पूना, हैदराबाद, बंगलोरू, चेन्नई, दिल्ली आदि स्थानों के शिक्षण संस्थानें फल-फूल रहे हैं, सफलता के परचम लहरा रहे हैं और बिहार विपन्न और कंगाल है। बिहार में जल सम्पदा की कमी नहीं है। नदी, ताल, तलैया, पोखर, मन आदि की बहुलता है। इनका सही प्रबंधन कर राज्य में समृद्धि के अन्नत द्वार खुल सकते हैं। सिंचाई की उचित प्रबंधन कर कृषि, जो बिहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, को नई ऊंचाई तक पहुंचाया जा सकता है। यहाँ की मिट्टी अत्यन्त उपजाऊ है कृषि उत्पादन में राज्य पंजाब से भी आगे जा सकता है। राज्य में उपलब्ध जन सम्पदा का सही उपयोग कर मत्स्य पालन के द्वारा लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है। मगर यहाँ के मछुआरे रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों में भटकने को मजबूर हैं और राज्य में प्रतिदिन सैकड़ों ट्रक मछली आन्ध्रप्रदेश से आती हैं, इस प्रकार राज्य का करोड़ो रुपया बाहर चला जाता है। अगर यहां संसाधन यहाँ लगता तो निश्चित ही राज्य ही तस्वीर कुछ और होती। इस प्रकार मुजफ्फरपुर की लीची, हाजीपुर का केला, दरभंगा का मखाना, भागलपुर का सिल्क आदि ऐसे अनेक क्षेत्र है जहाँ न तो ज्यादा पूंजी की आवश्यकता है और न उच्च तकनीक की। सिर्फ उपलब्ध संसाधनों के सही नियोजन एवं प्रबंधन से न केवल कई लाख लोगों को रोजगार मिलेगा बल्कि राज्य से हो रहा पलायन भी रुकेगा और उसका उपयोग राज्य के विकास मंे हो सकेगा। बिहार के छात्र, शिक्षक एवं साधनों से अन्य राज्यों में अनेक शिक्षण संस्थान बुलंदी के शिखर पर हैं। अगर राज्य में उचित वातावरण बनाया जाए, लोगों को प्रेरित एवं तैयार कर शिक्षण संस्थान खोले जायें तो न केवल राज्य का अरबों रुपया बाहर जाने से बचेगा, जिसका उपयोग राज्य के विकास में हो सकेगा बल्कि राज्य में उचित शैक्षणिक वातावरण का निर्माण भी होगा। इसके लिए बिहार के विकास के लिए अलग से योजना बनानी होगी । देश में विकास का जो माॅडल चल रहा है, जिसके कारण बिहार की आज यह दुर्दशा है, वही माॅडल बिहार के विकास में कारगर नहीं होगा।
बिहार को चाहिए ईमानदार, कल्पनाशील एवं जुझारू नेतृत्व जो बिहार को सामंती-सांस्कृतिक अवरोधों से मुक्तकर बिहार को विकास की नयी ऊँचाई पर ले जाने के लिए कृत संकल्पित हो । इस चुनाव में ऐसा नेतृत्व सामने नहीं है। सांस्कृतिक आन्दोलन से ऐसा नेतृत्व सामने आएगा। इसके लिए समाज को पहल करनी होगी। सरकार और समाज के सहयोग से बनेगा नया बिहार।
अशोक भारत
कृष्णा निकेतन, बलाई कैम्पस
छाता चैक, मुजफ्फरपुर- 842001
मो.: 9430918152, 8004438413
Recent Comments