— अशोक भारत
यह चिन्ता का विषय है कि देश में खेती की जमीन तेजी से घट रही है। पिछले एक दशक में खेती योग्य 12.5 करोड़ हेक्टेयर में से 1 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर जमीन खेती से बाहर हो गयी है। खेती की जमीन का तेजी से घटने के गम्भीर परिणाम होंगे। पहले तो इससे अनाज के उत्पादन एवं खाद्य सुरक्षा पर प्रतिवूâल असर पड़ेगा। खाद्यान्न के लिए विदेशों पर निर्भरता बढ़ेगी, इसे आयात करना पड़ेगा जो देश के लिए घातक होगा। इस समय देश में हर चौथा आदमी भूखा है, लगभग हर दूसरा बच्चा (47%) कुपोषण का शिकार है। इससे स्थिति और भी खराब होगी।
दूसरी देश में भूमिहीनता की समस्या बढ़ेगी। भूमिहीनता की समस्या देश में गरीबी, बेरोजगारी एवं गैर-बराबरी का मुख्य कारण है। अंग्रेजों की भूमि संबंधी गलत नीति के कारण देश में भूमिहीनता की समस्या काफी बढ़ गयी। आजादी के बाद यह उम्मीद बढ़ी थी कि इस समस्या का कोई हल निकल जायेगा। आजादी के बाद की तत्कालीन सरकारों के शुरुआती संकेतों से इस उम्मीद का बल भी मिला। विभिन्न राज्य सरकारों ने भूमि सुधार के लिए कई पहल की जैसे जमींदारी उन्मूलन, भूमि हदबंदी कानून आदि। संत विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन द्वारा भूमिहीनों के लिए 45 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन प्राप्त किया था। जो पूरी दुनिया में अपने आपमें अद्वितीय एवं अनोखी घटना थी। लेकिन सरकारों की इच्छा-शक्ति के अभाव तथा उदासीनता के कारण भूदान की कुल प्राप्त जमीन में से लगभग आधी जमीन का बँटवारा नहीं हो सका। जो हुआ उसमें बहुतों के पास जमीन के कागज हैं मगर कब्जा नहीं है, और इस प्रकार इस समस्या से निजात पाने का एक ऐतिहासिक अवसर हमने गवाँ दिया।
इस समय देश के 41.6 प्रतिशत ग्रामीण परिवार भूमिहीन है। जो जमीन है वहां जमीन का वितरण बहुत विषम है। ऊपरी सिरे के 5.2 प्रतिशत परिवारों के पास 42.8 प्रतिशत जमीन की मिलकियत है। मध्यम 9.4 प्रतिशत परिवारों के पास 56.6 प्रतिशत जमीन की मिलकियत है। शेष 90.5 प्रतिशत परिवारों के पास कुल जमीन का मात्र 43.4 प्रतिशत मिल्कियत है। इस बीच खेतों की जोत के आकार भी छोटे हुए हैं। खेतों की जोतों की कुल संख्या 9.3 करोड़ से बढ़कर 10.1 करोड़ हो गयी है। देश में 66 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनके पास 2.5 एकड़ या उससे छोटी जोत है। जबकि 18 प्रतिशत के पास 2.5 से 5 एकड़ तक छोटी जोत है। मध्यम जोत यानी 5-10 एकड़ वाले 9 प्रतिशत लोग हैं। सिर्फ 5 प्रतिशत लोगों के पास 10 एकड़ या उससे अधिक भूमि है। जाहिर है खेतों की जोतों के आकार एवं वितरण में गहरी विषमता है। जिसको हल किये बिना गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याओं का हल मुश्किल है।
मगर सरकार की आर्थिक नीति ठीक इसके विपरीत है। आर्थिक उदारीकरण की नीति गरीबों, आमजनों के खिलाफ तथा बड़े घरानों, निगमों तथा पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने वाली है, जिसके तहत सरकार किसानों की उपजाऊ जमीन छीनकर कारपोरेटों, पूंजीपतियों को दे रही है। खेती की जमीन एक्सप्रेसवे, विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज), बाँधों, विद्युत परियोजनाओं, औद्योगिक कोरीडोर, औद्योगिक इकाइयों परमाणु ऊर्जा संयंत्र, औद्योगिक इकाइयों तथा शहरीकरण के काम में लग रही है। देश की 60-65 प्रतिशत आबादी अभी भी रोजगार के लिए खेती पर निर्भर है। ओडिशा सरकार दक्षिण कोरिया की इस्पात कम्पनी पास्को को 4000 एकड़ से ज्यादा भूमि उपलब्ध करा रही। पास्को कम्पनी ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले में 52000 करोड़ रुपये के निवेश से इस्पात कारखाना लगाने वाली है। जिसका वहां के किसान कड़ा विरोध कर रहे हैं। इतना ही नहीं कम्पनी द्वारा बनाये जाने वाले बंदरगाह के कारण पहले से स्थित पारादीप बंदरगाह का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायेगा। हरियाणा के फतेहाबाद में परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ वहां के किसान पिछले ढाई वर्ष से आंदोलन कर रहे हैं। महाराष्ट्र के रायगढ़ में सरकार की रिलायन्स को 32000 एकड़ भूमि देने की योजना थी जिसे किसानों द्वारा कड़ा विरोध किये जाने के कारण रद्द करना पड़ा। फ्रांस की इंजीनियरिंग कम्पनी अरेवा के सहयोग से महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में बन रहे जैतापुर परमाणु बिजलीघर का वहां के किसान एवं मछुआरे विरोध कर रहे हैं। कर्नाटक के बेलारी जिले में अवैध खनन का मामला सुर्खियों में रहा है जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने भी नाराजगी जताई है। बेलारी जिले में ही किसानों के सिंचित एवं उपजाऊ 1200 एकड़ भूमि पर सरकार हवाई अड्डा बनवा रही है जिसके खिलाफ किसान आंदोलन चला रहे हैं। पश्चिम बंगाल में किसानों के कड़े विरोध के कारण सरकार को नंदीग्राम एवं सिंगूर परियोजना को रद्द करना पड़ा। अंतत: वहां की जनता ने पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार को चुनाव में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। मध्य प्रदेश के मंडला जिला के चुटका तथा गुजरात के भावनगर के मीठीबीडी में लगने वाले परमाणु ऊर्जा संयंत्र का वहां के किसान विरोध कर रहे हैं। तिरूनवेली, तमिलनाडु के कुडनकुलम परमाणु बिजलीघर का भारी विरोध हो रहा है। वहां के मछुआरे इस परियोजना के खिलाफ निर्णायक संघर्ष में है। स्पष्ट है विकास परियोजनाओं, औद्योगिक इकाइयों तथा शहरीकरण के लिए खेती की जमीन ली जा रही है। सरकार ऐसा कानून बना रही है जिससे कम्पनियों को जमीन हस्तान्तरण सुगम हो सके। प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास, पुनस्थापना अधिनियम 2011 ऐसा ही कदम है। इस मसौदा में सार्वजनिक आवश्यकता का दायरा बढ़ाकर इसमें ढाँचागत विकास, नेशनल इन्वेस्टमेंट एंड मैनुफैक्चरिंग जोन, उद्योग एवं शहरीकरण को शामिल किया गया है। इसका एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इससे भूमि अधिग्रहण में निजी कम्पनियों की भूमिका प्रमुख हो जायेगी। उद्योगपतियों एवं निर्माण कम्पनियों को सीधे जमीन खरीदने का अधिकार मिल जायेगा। निजी कम्पनियों, निगमों तथा निर्माण कम्पनियों के पक्ष में बनने वाला यह कानून गाँव एवं खेती को और कमजोर करेगा।
भारतीय कृषि आज गहरे संकट में है। पिछले एक दशक में लगभग ढाई (2.5) लाख किसानों ने आत्महत्या की है। कृषि संकट की जद में सरकार की गलत नीतियां एवं विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू. टी. ओ.) का कृषि समझौता है। कृषि समझौते के पांच मुख्य प्रावधान है—कृषि बाजारों को खोलना, घरेलू मदद, बाजार पहुंच, निर्यात अनुदान, सेनेटरी और फाइटो सेनेटरी माप। घरेलू मदद (डोमेस्टिक सपोर्ट) के प्रावधान सरकार की उन सभी नीतियों को प्रतिबंधित करते हैं जिसके माध्यम से कृषि एवं किसानों की मदद की जाती है। जैसे कृषि प्रसार सेवाओं, कृषि शोध, सिंचाई, किसानों के उत्पादों को मूल्य मदद, क्रेडिट आदि क्षेत्र में पूंजी निवेश, बाजार पहुंच के प्रावधानों के तहत देश को खाद्यान्न के आयात का अनिवार्य प्रावधान करना पड़ता है। कृषि समझौते के तहत सरकार द्वारा अपने कृषि उत्पादों को निर्यात प्रोत्साहन के लिए अनुदान देने की मनाही होती है। कृषि को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोल देने से यह संकट और गहरा गया है। कृषि के हरित क्रांति वाले मॉडल में ज्यादा पानी और रासायनिक खादों और कीटनाशकों की जरूरत पड़ती है। जी.एम. बीजों को बनाने वाली कम्पनियों का दावा है कि ये बीज कीटरोधी होते है। मगर हकीकत कुछ और ही है। अब कीटों की नई प्रजातियां पैदा हो गयी हैं जिसके लिए किसानों को नए कीटनाशक इस्तेमाल करने पड़ते हैं। रासायनिक खादों के अत्यधिक उपयोग के कारण जमीन की उर्वराशक्ति घट रही है। उत्पादन स्तर को बनाए रखने के लिए और ज्यादा रासायनिक खाद की जरूरत पड़ती है। अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के उपयोग के कारण नदियों का पानी भी प्रदूषित व जहरीला बन रहा है। खेती उपयोग में आने वाली सारी चीजें महंगी होती जा रही हैं, जबकि कृषि उत्पाद का वाजिब मूल्य उस अनुपात में किसान को नहीं मिल रहा है। जिसका परिणाम यह हुआ कि खेती आज घाटे का सौदा हो गयी है।
प्रश्न यह उठता है कि खेती को हम क्या मानते हैं? यह सम्पत्ति है या जीवन का आधार? गांव एवं खेत न केवल जीवन के आधार हैं बल्कि भारत में संस्कृति एवं सामुदायिक सभ्यता के भी आधार हैं। गांधीजी ने यूरोप में विकसित पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता के विकल्प में नई सभ्यता की बात कही थी उसका आधार गांव ही था। जिस विकास के मॉडल में सत्ता एवं सम्पत्ति का केन्द्रीकरण होता है और बड़ी संख्या में लोग जीविकोपार्जन के साधन से बेदखल कर दिए जाते हैं उसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है। वर्तमान विकास के मॉडल में खेती को जानबूझ कर अलाभप्रद बनाया गया है। अलाभकर खेती एवं गांव के श्रम के मूल्य को कम रखने की साजिश को लम्बे समय तक बनाए रखने के बाद अब यह मनोवैज्ञानिक माहौल बनाया जा रहा है—खेती बेचने में ही किसान का भला है।
जब भी उद्योग की बात होती है तो बड़े विशालकाय उद्योग की बात होती है। उद्योग के विकास का अर्थ ग्रामीण उद्योग का विकास क्यों नहीं? भारत गांवों का देश है, देश की लगभग 70 फीसदी आबादी अभी भी गांवों में रहती है। ग्रामीण उद्योग के विकास के बिना देश का सही मायने में विकास सम्भव नहीं है। ग्रामीण उद्योग के विकास से ही बेरोजगारी, गरीबी की समस्या का युक्तिसंगत समाधान हो पायेगा। इससे लोगों की क्रयशक्ति बढ़ेगी तथा एक समृद्ध एवं मजबूत भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा। इससे शहरों में बढ़ रही भीड़ में भी कमी आयेगी। वहां की परिवहन व्यवस्था तथा मूलभूत नागरिक सुविधा उपलब्ध कराने पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव भी घटेगा। शहरों में पानी, बिजली, यातायात आदि जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने सुदूर इलाकों का दोहन-शोषण का सिलसिला भी थमेगा।
जल, जंगल, जमीन एवं खनिज प्राकृतिक संसाधन हैं। इन्हें संसाधन कहने के बजाय विरासत कहना ज्यादा ठीक है। ये लोगों की जीविका के आधार एवं कुदरत के नायाब उपहार हैं। हमारी संस्कृति में भी मान्यता है ‘सबै भूमि गोपाल की’ अर्थात् सभी भूमि गोपाल की यानी भगवान की, भगवान के प्रतिनिधि स्वरूप समाज की। लेकिन देश की सरकारें अपने को मालिक समझकर इसका इस्तेमाल कर रही हैं। अब वक्त आ गया है यह सवाल खड़ा करने का कि प्राकृतिक विरासत का मालिक कौन—सरकार या समाज? सरकार को तो समाज बनाता है जबकि समाज स्वयंभू है अर्थात् स्वरचित, इसे कोई बनाता नहीं। सरकार को वेतन समाज देता है राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक सभी वेतनभोगी सेवक हैं। व्यवस्था की दृष्टि से समाज ने अपने वेतनभोगी सरकारी सेवक को जल, जंगल, जमीन आदि का प्रबंधन का दायित्व सौंपा है। वे न्यासी हैं इसके मालिक नहीं इसे बेचने का अधिकार उन्हें नहीं है। लेकिन सरकार इसे बेचने में जुटी हुई है।
आज यह वक्त की माँग हो गयी है कि जल, जंगल, जमीन आदि जीवन के आधार पर हो रहे कारपोरेटी हमले व्यवसायीकरण को रोका जाय। यह आवाज बुलंद हो कि जमीन समाज की सरकार की नहीं। अब गांव-गांव से जनता ही सरकार की संकल्पना को अमली जामा पहनाने का वक्त आ गया है। गांव में ग्रामसभा का गठन हो जो यह प्रस्ताव पारित करे कि जमीन समाज की सरकार की नहीं तथा इसके लिए कानून बनाने के लिए सरकार को बाध्य करे। आवश्यकता इस बात की है कि देश में सामाजिक परिवर्तन एवं नव निर्माण के लिए कार्य करने वाली शक्तियां एकजुट हो तथा प्राकृतिक विरासत की हिफाजत के लिए मिलकर राष्ट्रीय अभियान चलाये।
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