सुब्बाराव : अपने जमाने के जीवित गांधी
अपने मधुर गीतों तथा निश्छल प्रेम से असंख्य लोगों के हृदय में वास करने वाले डॉ. एस एन सुबाराव, जिन्हें दुनिया भाई जी के नाम से जानती है, का जीवन गांधी विचार के प्रचार -प्रसार, राष्ट्रप्रेम, सद्भावना एवं शांति के लिए समर्पित था। सात दशक से भी ज्यादा समय तक राजनीतिक – सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहने वाले भाई जी अपने जमाने के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो जीवन पर्यंत युवाओं के प्रेरणा के स्रोत रहे। उन्हें राष्ट्र निर्माण, रचनात्मक कार्य एवं सामाजिक सरोकार से जोड़ते रहे। चाहे भागलपुर का दंगा हो या उत्तराखंड का भूकंप, कंधमाल की हिंसा हो अथवा मुंबई का आतंकी हमला सब जगह भाई जी अपने युवा टोली के साथ शांति , मैत्री एवं सद्भावना का संदेश लेकर हाजिर रहे।
सुब्बाराव का जन्म 7 फरवरी 1929 को बंगलुरु कर्नाटक में हुआ था । 13 वर्ष की उम्र में ही सन् 1942 में सड़कों पर भारत छोड़ो का नारा लिखने के अपराध में उन्हें गिरफ्तार किया गया मगर उम्र कम होने के कारण चार-पांच घंटे थाना में रखने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन इस घटना से उनके जीवन में नया मोड़ आया । राष्ट्रीय विचार के लोगों से उनका सम्पर्क हुआ। वे शुरू में विद्यार्थी फेडरेशन और बाद में विद्यार्थी कांग्रेस के सदस्य बने। जब 2 अक्टूबर, 1943 को बंगलुरु में राष्ट्र सेवा दल की इकाई की स्थापना हुई थी तो वे उससे जुड़ गए। बाद में राष्ट्र सेवा दल का नाम बदलकर कांग्रेस सेवादल हो गया। सुब्बाराव के पिता वकील थे। उनके पिता चाहते थे कि उनका कोई लड़का वकील बने। छह भाईयों और दो बहनों में सिर्फ सुब्बाराव ने वकालत की पढ़ाई की थी। उनकी इच्छा थी कि कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वकालत के साथ-साथ लोक सेवा का काम करें। लेकिन छात्र जीवन में ही वे कांग्रेस सेवा दल के संस्थापक एन एस हार्डीकर के संपर्क में आ गए थे। हार्डीकर की पारखी नजर उन पर थी। वकालत की पढ़ाई पूरा करते ही हार्डीकर ने उन्हें दिल्ली बुला लिया। सुब्बाराव 17 अक्टूबर, 1951 को दिल्ली पहुंचे । उन्हें कांग्रेस सेवा दल का कार्य सौंपा गया। इस काम के लिए उन्हें 120 रु मानधन मिलता था। सुब्बाराव जी बताते है कि उस समय उनकी आवश्यकता 100रु की थी चूंकि वहां 100का कोई श्रेणी नहीं था इसलिए 120रु मानधन तय हुआ।
सुब्बाराव जी 1943 से 1969 तक राष्ट्र सेवा और कांग्रेस सेवा दल के माध्यम से देश के युवा शक्ति को प्रेरणा देते रहें। सेवा दल में अपनी लगन, परिश्रम एवं प्रतिभा के बल पर उन्होंने सबको प्रभावित किया, उसे नई ऊंचाई तक पहुंचाया। उनके सौम्य व्यक्तित्व से पंडित जवाहरलाल नेहरू काफी प्रभावित थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू पार्टी के मुख्यालय में आते थे तो सुब्बाराव को देखते ही प्रसन्न हो जाते थे और भाई जी से गीत गाने की मांग करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बने तब भाई जी का सम्पर्क अनेक राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से हुआ। पंडित जवाहरलाल नेहरू के आशीर्वाद एवं मोरारजी देसाई के सहयोग से मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में 1960 में एक अंतरराष्ट्रीय युवा शिविर का आयोजन हुआ जो लंबे समय तक चला और अंततोगत्वा इस शिविर के माध्यम से चंबल घाटी के दुर्दांत डाकुओं के आत्मसमर्पण का मार्ग प्रशस्त हुआ। उन्होंने कांग्रेस के तात्कालीन अध्यक्ष श्री के कामराज, श्री निजलिंगगप्प, श्री मोरारजी देसाई एवं श्रीमती इंदिरा गांधी के भाषणों का भी सभाओं में अनुवाद किया। 1966 में उन्होंने राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन को पत्र लिखा कि गांधी शताब्दी, जिसके राष्ट्रीय समिति के वे अध्यक्ष थे, केवल सभा समारोह तक सीमित न रह जाए। उस पत्र का परिणाम यह हुआ कि गांधी शताब्दी की जनसंपर्क समिति का मंत्री सुब्बाराव को बनाया गया तथा गांधी निधि के मंत्री देवेंद्र भाई को समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया । सुब्बाराव मानते थे कि गांधी विचार को फैलाने का सबसे अच्छा माध्यम शिविर होता है, जहां समूह जीवन, श्रम कार्य , सामूहिक सर्व धर्म प्रार्थना आदि कार्यक्रम होते हैं । श्री नारायण देसाई के सहयोग से सेवाग्राम में 3 सप्ताह का एक केंद्रीय शिविर का आयोजन हुआ। इसके बाद देश में अनेक स्थानों पर शिविर लगाए गए, जिसमें हजारों स्त्री – पुरुषों ने भाग लिया। 1969 -70 में एक बड़ी लाइन तथा एक छोटी लाइन पर भारत के कोने कोने में गांधी रेल प्रदर्शनी दिखाई गई जिसके निर्देशक सुब्बाराव थे।
गांधी रेल प्रदर्शनी के निर्देशक के नाते सुब्बा राव को कुछ मानदेय मिला था उससे कहीं गांधी कार्य होना था। सुब्बाराव को कई जगहों से निमंत्रण था। उनमें एक था चंबल घाटी में जौरा, जिला मुरैना , मध्य प्रदेश की। सुब्बाराव ने तय किया कि गांधीजी के अहिंसा तत्व का प्रयोग करने का सबसे उत्तम स्थान हिंसा और आतंकवाद से ग्रस्त चंबल घाटी होगी। भारतीय तिथि अनुसार गांधी जयंती के पूर्व 27 सितंबर 1970 को जौरा में एक खंडहर से मकान में महात्मा गांधी सेवा आश्रम की स्थापना हुई। पीवी राजगोपाल और अन्य दो तरुणों ने आश्रम की जिम्मेदारी संभाली। दो वर्ष बाद भाई जी के प्रयास एवं लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से उस समय के खूंखार माने जाने वाले बागी गिरोहों के आत्मसमर्पण का कार्यक्रम बना तो शांति मिशन के मंत्री महावीर भाई के सलाह पर आश्रम को ही समर्पण स्थल चुना गया । मोहर सिंह, माधौ सिंह तथा अन्य बागियों सरदारों के नेतृत्व में 14 – 16 अप्रैल, 1972 को 186 बागियों ने महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने हथियार डालकर जौरा में समर्पण किया। जिस काम को करने में प्रशासन और सरकार विफल रही उस काम को गांधी का एक अनन्य सिपाही अपने मधुर गीतों और प्रेम से करने में सफल हुआ, जो किसी चमत्कार से कम नहीं था और आजादी के बाद अहिंसा के सर्वोत्तम प्रयोगों में से एक था। उसके बाद भी बटेश्वर , उत्तर प्रदेश तथा तालाब शाही, राजस्थान में भी बागियों के आत्मसमर्पण हुए। जिसके फलस्वरूप आश्रम शांति, सद्भावना और अहिंसक प्रक्रिया के केंद्र के रूप में देश विदेश में प्रसिद्ध हुआ।
यहां एक घटना का उल्लेख करना प्रसांगिक होगा। सन 1976 में उत्तर प्रदेश में आत्मसमर्पण की तैयारी चल रही थी। जमुना नदी के किनारे बटेश्वर गांव में समर्पण होना था। भाई जी जंगलों में घूम घूम कर अलग अलग बागियों समूह से चर्चा कर रहे थे। इसमें उत्तर प्रदेश पुलिस भी सर्वोदय कार्यकर्ताओं को सहयोग कर रही थी। इस बीच बटेश्वर के एक गांव में बागी गिरोह से भाई जी की बैठक निश्चित की गई थी। गांव के चबूतरे पर भाई जी बैठकर गांव के लोगों से चर्चा कर रहे थे। इस बीच एक तरफ से बागी दल आता दिखाई दिया। किंतु कुछ क्षणों में दूसरी तरफ से गोली चलना शुरू हो गया। गांव के लोग इधर-उधर छिप गए। भाई जी दोनों तरफ से चलने वाली गोलियों के बीच में शांत चबूतरे पर बैठे रहे। भाई जी ध्यान में मग्न हो गए। थोड़ी देर में गोली चलना बंद हो गई और धीरे-धीरे लोग भाई जी के सामने आकर बैठने लगे। हुआ यह था कि अलग-अलग बागी समूह भाई जी से मिलने आ रहे थे, किंतु दोनों को लगा कि सामने वाले पुलिस के लोग हैं हमारे साथ धोखा हो रहा है। इसलिए दोनों ओर से गोली चलना शुरू हुआ। किंतु किसी मध्यस्थ ने वस्तुस्थिति से दोनों को अवगत कराया तब जाकर दोनों समूह मिलकर भाई जी के पास आए और एक अप्रिय घटना घटने से बच गई । इस गोलीकांड की सूचना वायरलेस के माध्यम से पूरे देश में फैल गई। उसमें यह भी आशंका व्यक्त की गई थी कि सुब्बाराव जी के जीवन सुरक्षित होने की पुष्टि नहीं हुई है। बाद में भाई जी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश के बागियों ने बटेश्वर तथा राजस्थान के बागियों ने तालाब शाही में आत्मसमर्पण किया।
सुब्बाराव ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लिया और उसे संबोधित किया। सन 1960 में वे सोवियत संघ गए। स्वयंसेवी संस्थाओं की अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लेने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने उन्हें आमंत्रित किया। शिकागो में स्वामी विवेकानंद जनशताब्दी को भी उन्होंने संबोधित किया। वर्ष 1998 में असेंबली ऑफ यूथ ने उन्हें फ्रेंक फुट और बर्लिन में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। जब 1969 में कांग्रेस में विभाजन हुआ तब भाई जी ने दोनों समूह से मधुर संबंध बनाए रखने के लिए कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्र रूप से सेवा कार्य में जुट गए। गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष आर आर दिवाकर के अनुरोध पर वे गांधी शांति प्रतिष्ठान के आजीवन सदस्य बने।
चंबल घाटी के विकास का लक्ष्य तय करने के लिए सुब्बाराव जी ने शिविरों को अपना साधन बनाया । इन शिविरों की ताकत युवा थे। भाई जी शिविरों में युवाओं को आह्वान करते, उन्हें जोड़ते, उन्हें प्रशिक्षित करते और चल निकलते विकास की डगर पर। 1976 से 1980 तक महात्मा गांधी सेवा आश्रम के जरिए चंबल घाटी में अनेक शिविर आयोजित किए गए। छोटे-छोटे गांवों को भी वे नहीं छोड़ते थे। मोधना, जवाहर और बागचीनी गांव में 34 राष्ट्रीय एकता युवा शिविर आयोजित किए गए जिनमें हजारों युवक युक्तियों ने भाग लिया। विकास का पथ तय करने के लिए 1981 में उन्होंने 45 गांव की साइकिल यात्राएं की। गांव में घूम घूम कर बच्चें, बड़े, बुजुर्ग सबसे उनका दुख दर्द जानने की कोशिश करते थे, जो संभव हो जाता उसे वे अपने आश्रम और शिविरों के माध्यम से दूर करते और जहां उन्हें लगता कि यहां प्रशासनिक स्तर पर कार्रवाई की जरूरत है वहां प्रशासन से मदद की मांग करते। शिविरों के माध्यम से युवा आसानी से जुड़ जाते थे। भाई जी का विचार था कि युवा शक्ति ही देश की शक्ति है बस हनुमान की तरह युवाओं को जागृत करने की आवश्यकता है।
भाई जी ने राष्ट्रीय युवा योजना की स्थापना की। इसके माध्यम से लगाए गए शिविरों में देश भर के हजारों युवक युवतियों को संस्कारित करने का काम भाई जी ने किया। राष्ट्रीय एकता, सद्भावना शिविरों के माध्यम से देश में राष्ट्रीय एकता एवं सद्भावना का संदेश फैलाया। उनका मानना था कि देश का बहुत पैसा भवन निर्माण, उद्योग , बांध, सड़कों पर खर्च हुआ लेकिन अब देश में चरित्रवान नागरिकों के निर्माण पर अपनी शक्ति खर्च करनी होगी। यदि चरित्रवान नागरिक का निर्माण नहीं हुआ तो देश का सारा विकास निरर्थक है । इसलिए वे जीवन पर्यंत युवाओं को शिविरों के माध्यम से संस्कारित करने का काम करते रहे। भाई जी ने न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी युवाओं को प्रेरित और संस्कारित करने के लिए शिविर लगाए । बरसात के महीनों में वे विदेश जाते थे अमेरिका, यूरोप आदि देशों में शिविर लगाते थे।
देश के महापुरुषों के सपनों को साकार करने तथा उनके संदेशों को जन जन तक पहुंचाने के लिए स्वामी विवेकानंद जी के शिकागो व्याख्यान की शताब्दी समारोह के अवसर पर रेल मंत्रालय एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सौजन्य से राष्ट्रीय युवा योजना के तत्वाधान में सद्भावना रेल यात्रा तीन चरणों में निकाली गई । प्रथम चरण 2 अक्टूबर 1993 से 31 मई 1994 तक 244 दिनों की थी। इसमें 26 प्रांतों के 1867 युवा भाई बहनों की भागीदारी रही। दूसरी 27 जनवरी, 1995 से 27 मार्च, 1995 तक। इसका समापन 27 मार्च को नई दिल्ली में सांसदों के साथ बैठक के साथ से हई । सद्भावना यात्रा का तीसरा चरण गांधी की 125 वीं जयंती के अवसर पर 2 अक्टूबर,1995 पोरबंदर से प्रारंभ हुई और भूदान आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोवा भावे की जन्म शताब्दी वर्ष में यात्रा 14, 15, 16 नंबर, 1995 को पवानार में थी। इसलिए इस यात्रा का ऐतिहासिक महत्व और भी बढ़ गया।
सुब्बाराव महसूस करते थे कि आजादी के बाद देश में काफी प्रगति की है, लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें तुरंत सुधार की आवश्यकता है। इसमें भारत की एकता की चुनौती, बेरोजगारी तथा उससे उत्पन्न गरीबी, गरीबी और अमीरी के बीच की बढ़ती खाई, व्यापक हिंसा शासकीय और अशासकीय भ्रष्टाचार, सती, दहेज, नशा आदि सामाजिक कुरीतियां आदि शामिल हैं। वे मानते थे कि इसका एकमात्र इलाज युवाओं के संगठन तथा युवाओं के अभिक्रम से सभी कमियों का निराकरण, साथ ही साथ भविष्य की दृष्टि से आज के बच्चों को तैयार करना ताकि वह शरीर से सबल, बुद्धि से सचेत, व्यवहार से प्रमाणिक बने। इसलिए भाई जी प्रतिवर्ष बाल शिविर का आयोजन करते थे। युवाओं के रचनात्मक संगठन द्वारा निष्क्रिय सज्जनों को सक्रिय बनाकर नया सुसंस्कृत भारत बनाया जा सकेगा ऐसा उनका विश्वास था। उन्हें अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिसमें जमुनालाल बजाज पुरूस्कार, राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार, डि लिट की मानद उपाधि आदि शामिल हैं।
सुब्बाराव अनेक संस्थाओं से जुड़े थे। वह गांधी शांति प्रतिष्ठान के आजीवन सदस्य थे। वे सर्वोदय समाज के दो बार संयोजक रहे । इस दौरान उन्होंने मदुरई , तमिलनाडु और आगरा, उत्तर प्रदेश में सर्वोदय समाज के दो बड़े सम्मेलन का आयोजन सफलतापूर्वक किया, जिसमें 5000 से ज्यादा लोगों की भागीदारी रही। वह अखिल भारतीय नशाबंदी परिषद के भी अध्यक्ष रहे। वह गांधी भवन भोपाल के अध्यक्ष थे । वह सर्व सेवा संघ के कार्य समिति के भी सदस्य और शांति सेना के संयोजक रहे। वह गुरुदेव सेवा मंडल मोजरी के न्यासी थे। वे कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के सलाहकार एवं न्यासी थे । भारत माता का यह लाडला पुत्र 27 अक्टूबर , 2021 को जयपुर में इस नश्वर शरीर को छोड़कर अनंत यात्रा पर निकल गया।
सुब्बाराव ने अपना सारा जीवन भारत माता की सेवा में समर्पित किया। जब भी कोई उनसे उनका हालचाल पूछता तो वह कहते थे मेरी तो तबीयत ठीक है, लेकिन भारत माता की तबीयत ठीक नहीं है। गांधी विचार में उनकी अटूट आस्था थी। उनका पूरा जीवन गांधी के एकादश व्रत की बुनियाद पर खड़ा था। सरलता, सादगी एवं विनम्रता के वे प्रतिमूर्ति थे। प्रेम बांटने में वे फर्क नहीं करते थे। क्या बड़ा, क्या छोटा, क्या बुजुर्ग सबके साथ उनका व्यवहार प्रेम और स्नेह का होता था। उनकी सादगी पूर्ण जीवन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनका पूरा संसार दो झोलों में समाया हुआ था। एक में अपने दैनिक उपयोग के सामान, दूसरे में टाइपराइटर एवं कार्यालय इस्तेमाल की सामान, यानी एक झोले में घर दूसरे में कार्यालय। राजनीतिक दल के साथ लंबे अवधि तक जुड़े रहने के बावजूद भी कीचड़ में खिलने वाले कमल की तरह उनका जीवन उज्जवल, निर्मल, निष्कलंक बना रहा, बल्कि अपने व्यक्तित्व के प्रकाश पुंज से उन्होंने उसे संस्कारित एवं सेवा का माध्यम बनाया। वह अपने जमाने के जीवित गांधी थे। वे एसे पारस मनी थे जिनके संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति सोना बन जाता था। वह हमेशा लोगों , विशेषकर युवाओं के प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे।
अशोक भारत
8709022550
Recent Comments