विपक्षी एकता की दुश्वारियां
9 अगस्त, 2022 को एक नाटकीय घटनाक्रम में नीतीश कुमार ने एनडीए से नाता तोड़कर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और महागठबंधन में शामिल हो गए। 10 अगस्त को उन्होंने राज्य में आठवीं बार और महागठबंधन के लिए दूसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिया। वैसे यह कतई अप्रत्याशित नहीं था, इस तरह के कयास पिछले कुछ समय से लगाए जा रहे थे।
सवाल यह है कि नीतीश कुमार ने ऐसा क्यों किया? उन्होंने 2017 में महागठबंधन से नाता तोड़कर भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा था और राज्य में एनडीए की सरकार बनाई थी । 2020 का चुनाव भी उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था और महागठबंधन से कडे़ मुकाबले में साधारण बहुमत से सरकार बनाई। 243 सीटों वाली विधानसभा में एनडीए को 125 पर सफलता मिली थी, जबकि महागठबंधन को 110 सीटों से संतोष करना पड़ा । लेकिन इस चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। भारतीय जनता पार्टी दूसरे स्थान पर , जबकि जनता दल यूनाइटेड को सिर्फ 43 सीटों पर सिमट गई , जो की पार्टी का 2005 के चुनाव के बाद अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था।
नीतीश कुमार को लगता है कि भाजपा जनता दल यू को कमजोर करने में लगी थी । पार्टी को यह भी लगता है कि 2020 के चुनाव में चिराग पासवान का नीतीश कुमार के विरोध के पीछे भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के कुछ नेताओं का समर्थन था और भाजपा जदयू के साथ षड्यंत्र कर रही थी । दरअसल भारतीय जनता पार्टी की कोशिश राज्य में अपने दम पर सरकार बनाना है। इसलिए पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने एवं विस्तार की योजना पर काम कर रही है । यह तभी संभव है जब राज्य में दूसरी पार्टियां कमजोर हो। इसलिए 2020 के चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में नया नेतृत्व उभारने और सामाजिक समीकरण साधने में लगी है । चुनाव के बाद सुशील कुमार मोदी, नंदकिशोर यादव जैसे नेताओं को दरकिनार कर तारकिशोर प्रसाद एवं रेनू देवी को उपमुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन इन नेताओं का संबंध मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उतना सौहार्दपूर्ण नहीं था, जैसा कि सुशील कुमार मोदी के दौर में था। सरकार में रहते हुए भाजपा के मंत्री सरकार के खिलाफ बयान देते थे, इसमें भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सहित कई वरिष्ठ नेता शामिल थे। इससे सरकार के मुखिया के नाते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को असहज महसूस करना स्वाभाविक था। हाल के दिनों में यह भी देखने को मिला रहा है कि जो दल भाजपा के साथ गई, वह कमजोर हुई। ताजा उदाहरण शिवसेना का है , इसलिए आज भाजपा के साथ एनडीए में कोई दल नहीं है।
नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर पर नजर डालें तो उनकी छवि एक मजबूत रणनीतिकार के साथ-साथ स्वस्थ एवं योग्य प्रशासक की रही है। यह नीतीश कुमार का ही दिमाग था कि लालू प्रसाद यादव राज्य में मुख्यमंत्री बने। वह भी तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की पसंदीदा उम्मीदवार रामसुंदर दास को पराजित कर। लालू प्रसाद यादव से मतभेद के कारण उन्होंने समता पार्टी बनायी और शीघ्र ही वे राज्य में लालू प्रसाद यादव के विरोध की धूरी बन गए। 2005 का विधानसभा का चुनाव उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर लड़ा और भारी बहुमत से जीतकर एनडीए के मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की कमान संभाली। उन्होंने 2010 का चुनाव भी भाजपा के साथ मिलकर लड़ा और भारी बहुमत हासिल किया। बाद में उन्होंने भाजपा छोड़ दिया और 2015 का चुनाव राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा और दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाई। लेकिन महागठबंधन के साथ नीतीश कुमार का सफर बहुत लंबा नहीं चला और जुलाई , 2017 में उन्होंने महागठबंधन से नाता तोड़ के एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई और 2020 का चुनाव भी भाजपा के साथ मिल कर लड़ा और राज्य में एनडीए सरकार की वापसी हुई।
आजकल राजनीति में सिद्धांत के बजाय नफा – नुकसान एवं सुविधा हावी है । नीतीश कुमार के लिए एनडीए में रहते हुए राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका की संभावना न के बराबर थी , जबकि विपक्ष में इसकी संभावना मौजूद है। उन्हें लगा कि एनडीए में रहते हुए पार्टी कमजोर हो रही है। इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि जिस पार्टी को 2010 के चुनाव में अकेले 115 सीटें मिली थी, वह 2020 के चुनाव में 43 पर सिमट गई । दूसरी तरफ भाजपा राज्य में अपनी स्थिति मजबूत कर रही है । 31 जुलाई, 2022 को पटना में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का यह बयान कि आने वाले दिनों में सिर्फ एक ही पार्टी भारतीय जनता पार्टी रहेगी, क्योंकि वह विचारधारा वाली पार्टी है, बाकी पाटियां खत्म हो जाएगी। इससे यह संदेश गया कि भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करने के एजेंडे पर काम कर रही । इससे क्षेत्रीय दलों के कान खड़े हो गए। आरसीपी सिंह के प्रकरण से भी पार्टी सचेत हो गई। पार्टी को लगा कि भाजपा आरसीपी सिंह को दूसरा एकनाथ शिंदे बनाने की कोशिश कर रही है।
अगर हम बिहार के राजनीतिक – सामाजिक समीकरण पर नजर डालें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि नीतीश कुमार किसी भी गठबंधन के लिए क्यों सर्व स्वीकार्य है । नीतीश कुमार का निश्चित जनाधार है। लगभग 16 से 18 फ़ीसदी मतों पर उनकी मजबूत पकड़ है, जिस वजह से वे जिस गठबंधन के साथ होते हैं उनका पलड़ा भारी हो जाता है । 2020 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल को 23.15 फीसदी, भाजपा को 19.5 फ़ीसदी, जनता दल यू को 15.5 फीसदी, कांग्रेस को 9.5 फीसदी और वामदलों को लगभग 4.6 फ़ीसदी मत मिले। नीतीश कुमार के शामिल होने से महागठबंधन, जिसे 2020 के चुनाव में एनडीए के लगभग बराबर वोट मिले थे, बहुत मजबूत स्थिति में आ गई है।
नीतीश कुमार ने यह महसूस किया कि एनडीए में बने रहने से न तो पार्टी सुरक्षित है और न तो राष्ट्रीय राजनीति में कोई भूमिका होने वाली है। देर सबेर मुख्यमंत्री की कुर्सी भी जा सकती है। दूसरी तरफ विपक्ष में एक ऐसे नेता की जरूरत है जो विपक्ष को एकजुट कर भाजपा को चुनौती दे सके। इसलिए उन्होंने महागठबंधन का दामन थामा। शपथग्रहण के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने स्पष्ट कर दिया उनका एजेंडा विपक्ष को एकजुट कर 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को चुनौती पेश करना है। भाजपा नीतीश कुमार के इस कदम को जनता के साथ धोखा बता रही है और उसने विरोध में नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण के दिन धरना भी दिया। कभी नीतीश कुमार के निकट सहयोगी रहे भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी महागठबंधन की सरकार और नीतीश कुमार को घेरने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते हैं।
जनता दल (यू) ने नीतीश कुमार को राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एकजुट करने के लिए अधिकृत किया है और वह विपक्ष के नेताओं से मिल भी रहे है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव पटना आकर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव से मिल चुके हैं। नीतीश कुमार दिल्ली जाकर राहुल गांधी, सीताराम येचुरी, डी राजा , दीपांकर भट्टाचार्य , मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव , अरविंद केजरीवाल , शरद पवार, ओम प्रकाश चौटाला आदि नेताओं से मुलाकात की है।
बड़ा सवाल तो यही है कि क्या विपक्षी एकता का रास्ता इतना आसान है? और वह क्या अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर चल रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजय रथ को 2024 के लोकसभा चुनाव में रोकने में सक्षम होगी ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न केवल करिश्माई नेता है , बल्कि भाजपा के पास कुशल रणनीतिकार, समर्पित कार्यकर्ता की बड़ी टीम के साथ साथ संसाधनों की विपुलता भी है। केंद्र और अनेक राज्यों में भाजपा की सरकारें है। इसका का भी लाभ भाजपा को मिलेगा ।
आंकड़ों की बात करें तो भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव में 22 करोड़ 90 लाख से ज्यादा मत मिले थे जो कुल डाले गए मतों का 37.36 फ़ीसदी है । वहीं कांग्रेस को 11 करोड़ 94 लाख से ज्यादा मत मिला था, जो कुल डाले गए मतों का 19.48 फ़ीसदी है । यही वह मुद्दा है जिसको मद्देनजर विपक्षी दल समय-समय पर एकता की बात करते रहे हैं । भाजपा को मिले कुल मतों से ज्यादा विपक्ष के पाले में गया, लगभग 62 फ़ीसदी से ज़्यादा। विपक्षी दल विपक्षी मतों के विभाजन को रोकना और इसे एकजुट करने की बात कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है तो निश्चित ही 2024 का चुनाव में विपक्ष भाजपा के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकता है , जो इस समय एक तरफा लग रहा है। नीतीश कुमार इसलिए विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं । विपक्ष के प्रमुख नेताओं से मिल रहे हैं , जिसका पहला दौर वे पूरा कर चुके हैं और विपक्ष के नेताओं से हुई बातचीत से उत्साहित हैं। जबकि भाजपा उन पर हमलावर है, जिसमें भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी सबसे आगे हैं।
भाजपा की सुविधाजनक स्थिति का एक कारण यह भी है कि विपक्ष के पास कोई एक ऐसा सर्वमान्य नेता नहीं है जिसके नेतृत्व में विपक्ष 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सके। क्षेत्रीय दलों की अपनी अपनी प्राथमिकताएं , अंतर्विरोध एवं महत्वकांक्षी हैं। इनमें सामंजस्य बैठाना कोई आसान काम नहीं है। विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में पहले से ही कई नाम चर्चा में हैं, जिनमें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल , तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव आदि शामिल है। अब नीतीश कुमार को भी इनके पार्टी के लोगों ने पीएम मटेरियल कहना शुरू किया है। लोकसभा चुनाव 2024 से पहले विपक्ष को इस मसला को हल करना होगा।
दक्षिण में कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है और तेलंगना में पार्टी अपनी स्थिति मजबूत करने में लगी। लेकिन कर्नाटक में भाजपा के सामने एक मजबूत विपक्ष मौजूद है। बाकी दक्षिण के राज्य में विपक्ष मजबूत स्थिति में है। उड़ीसा, पश्चिम बंगाल , बिहार, झारखंड आदि राज्यों में भी विपक्ष भाजपा को मजबूत टक्कर देने की स्थिति में है। विपक्ष के लिए कमजोर कड़ी वह राज्य है , जहां भाजपा के समक्ष मुख्य विपक्षी कांग्रेस है । इस समय कांग्रेस संक्रमण काल से गुजर रही है। कांग्रेस के कई प्रमुख नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के अंदर से विद्रोह का सामना कर रही है। 2019 के बाद कांग्रेस के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है। पार्टी अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया में है। इस बीच पार्टी ने भारत जोड़ो यात्रा शुरू की है , जिसके अघोषित नेता राहुल गांधी है। यह आजादी के बाद से कांग्रेस का अब तक का सबसे बड़ा जनसंपर्क का यह कार्यक्रम है । 7 सितंबर, 2022 को कन्याकुमारी से शुरू हुई यह यात्रा 12 राज्यों, 2 केंद्र शासित प्रदेशों से होकर 150 दिनों में 30 जनवरी, 2023 को जम्मू कश्मीर में समाप्त होगी। निश्चित ही इस यात्रा से कांग्रेस और राहुल गांधी को लाभ होगा। पर क्या यह इतना होगा कि कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के समक्ष मजबूत चुनौती पेश कर सके। यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
नीतीश कुमार के महागठबंधन में शामिल होने से विपक्षी दल है। अभी लोकसभा चुनाव में लगभग 18-19 महीने बचे हैं। इस अवधि में कांग्रेस अपने को तैयार कर सकी तो निश्चित ही लोकसभा का 2024 का चुनाव बहुत रोचक हो सकता है । विपक्ष भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकता है। 1985 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें मिली थी। भाजपा इस चुनाव में सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई थी। चुनाव में भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेई को भी हार का सामना करना पड़ा था । लोकसभा में विपक्ष में सबसे ज्यादा सीटें एन टी रामा राव की पार्टी तेलुगू देशम को मिली थी। विपक्ष का खास्ता हाल था। तब कांग्रेस के अंदर से वी पी सिंह ने कांग्रेस विरोध की आवाज बुलंद की। उन्होंने विपक्ष को एकजुट किया और कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। एक बार फिर एनडीए से नीतीश कुमार निकलकर भाजपा का विरोध कर रहे हैं। विपक्ष को एकजुट कर 2024 के चुनाव में भाजपा को चुनौती देने की बात कर रहे हैं। क्या इतिहास दोहराया जाएगा ? क्या नीतीश कुमार 1977 के जेपी, 89 के वी पी सिंह के प्रयोगों को आगे बढ़ाने वाले साबित होंगे ? यह तो 2024 में ही पता चलेगा । फिलहाल जबानी जंग तेज हो गई है, राजनीति गरमा गई है।
अशोक भारत
8709022550
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