अहिंसा की ताकत

हिंसा का मुकाबला हिंसा से करने की जग की रीत रही है और इसकी सीमाएं भी जगजाहिर है । मानव सभ्यता के इतिहास में महात्मा गांधी संभवत:  पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने यह सिद्ध किया कि  हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जा सकता है । यह व्यक्ति और समाज दोनों का मूल्य हो सकता । पहले इसका सफल प्रयोग उन्होंने पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत ने किया । महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद विनोबा भावे ने इस कार्य  को आगे बढ़ाया।  पोचमपल्ली ,  तेलंगाना  से शुरू हुआ भूदान की गुंज पूरे विश्व में सुनाई दे रही थी । भला सदियों से हिंसा और दस्यु समस्या झेल रहे चंबल घाटी इससे कैसे अछूता रह सकता था। इसे ईश्वरीय संयोग समझे या विनोबा का चमत्कार कि  नैनी जेल में मृत्युदंड की सजा काट रहे तहसीलदार सिंह ने विनोबा को पत्र लिखकर फांसी से पहले उनके  दर्शन की इच्छा व्यक्त की,  जो चंबल घाटी में शांति स्थापना की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ।

चंबल घाटी की डाकू समस्या का बहुत पुराना इतिहास रहा है । तोमर साम्राज्य के  राजा अनंतपाल को जब पृथ्वीराज चौहान द्वारा दिल्ली की गद्दी से उतार दिए  गया तो वे लोग चंबल घाटी में आकर बस गए।  राज्य सुख से वंचित राजकुमारों ने बगावत का झंडा उठाया और बागी कहलाए।  मुगल सम्राट बाबर ने अपने संस्मरण में चंबल के लुटेरे दस्युओं  का उल्लेख  किया है । सिकंदर लोदी,  शेरशाह और अकबर सब के सब चंबल घाटी का लोहा मानते थे।  फतेहपुर सीकरी से अकबर ने राजधानी इसलिए परिवर्तित की कि  चंबल घाटी के डाकू उनको वहां टिकने नहीं दे रहे थे।  ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स ने 13000 सैनिकों का एक विशाल सेना क्षेत्र के डाकुओं को समाप्त करने के लिए संगठित किया था।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक चंबल घाटी  क्षेत्र में अस्थिरता,  अराजकता और कानून द्रोह  की समस्या निरंतर रही।  आजादी मिलने के बाद इस क्षेत्र की डाकू समस्याओं में भी परिवर्तन आया । आपसी मनमुटाव एवं राजनीतिक दल बंदी आदि भी दिनोंदिन बढ़ने लगी।  मान सिंह,  लाखन,  अमृतलाल , रूपा, पुतली , पाना , कल्ला,  गब्बर आदि डाकुओं में  भी  आपसी मनमुटाव बढ़ता गया।  सरकार ने इन को समाप्त करने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न किए।  परंतु नए डाकू बनना बंद नहीं हुआ।  जनता सरकार और डाकुओं के बीच पिसती रही।

चंबल घाटी के डाकू समस्या के लिए यहां की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियों के साथ-साथ सामाजिक स्थिति भी जिम्मेदार है । बढ़ती हुई आबादी,  भूमि और धंधों की कमी , जातीय अहंकार और संघर्ष  ने समस्याओं को बढ़ावा दिया।  एक और विशेषता इस  क्षेत्र में है।  किसी गांव में एक जाति के लोग अधिक रहते हैं तो उस गांव में दूसरी अल्पसंख्यक जाति के लोग को अपने अधीन दबाकर रखना चाहते  हैं। राजस्थान के सवाई माधोपुर और करौली  क्षेत्र में थाकर,  परिहार और जाधव,  भरतपुर और धौलपुर क्षेत्र में जाटव,  गुर्जर,  बूंदी , कोटा क्षेत्र में बुंदेली  और थाकर , उत्तर प्रदेश के आगरा  जिला के बाह क्षेत्र और इटावा क्षेत्र के कुछ भाग में भदौरिया और राठौर,  मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में सिकरवार और गुज्जर,  तोमर,  जाटव भिंड जिले में कुशवाहा और भदौरिया , दतिया में बुंदेला , ग्वालियर में गुज्जर और अहीर आदि जातियां अपने-अपने क्षेत्र में हुकूमत करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती रही है ।  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्थिति में परिवर्तन आने में चुनाव ने बड़ा काम किया है।

 यद्यपि चंबल घाटी में डाकू समस्या के लिए आर्थिक कारण ही प्रमुख है।  इसके अतिरिक्त यहां के बीहड़ों  और डांग में डाकुओं के छिपने  की सुविधा , खेती योग्य भूमि और उद्योग का आभाव  और घाटी में लाइसेंस धारी और बिना लाइसेंस धारी बंदूकों की हजारों की संख्या में उपलब्ध  होना  यहां की दस्यु  समस्या के मुख्य रूप से  जिम्मेदार हैं।  इसके अलावा  शिक्षा का अभाव,  यातायात और आवागमन के साधनों का अभाव तथा राजनीतिक दलों की भूमिका भी समस्या को प्रभावित करते रहे हैं।

मानवीय सभ्यता के इतिहास में अपराध का सामना करने की दो दृष्टियां  रही है।  एक दृष्टि तो यह है कि  अपराध को कठोर दंड से ही रोक आना संभव है।  दूसरी दृष्टि सुधारवादी है जो यह मानती है कि अपराध एक मनोवैज्ञानिक विकृति है,  जिसे रोग की तरह लेना चाहिए और अपराधी को सुधरने का मौका मिलना चाहिए । पिछले 900 वर्षों में शेरशाह सूरी,  अकबर , वारेन हेस्टिंग्स , कर्नल स्लीमन , सिंधिया शासकों और के  एफ रुस्तमजी  पुलिस अधिकारियों ने कठोरता के साथ डाकुओं के उन्मूलन अभियान के लिए प्रयास किए । लेकिन हिंसा से  हिंसा समाप्त करने का प्रयास सफल नहीं  हुए । मध्यप्रदेश के शासन द्वारा 1957 में जब पूरी शक्ति से दस्यु विरोधी अभियान चलाया जा रहा था उन्हीं दिनों पुलिस उपमहानिरीक्षक  एच एस कोहली ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर यह सुझाव दिया था कि सरकार को दस्यु समस्या के समाधान के लिए विनोबा भावे का सहयोग लेना चाहिए ।  इसके पूर्व विक्रम मासिक पत्रिका  के अग्रलेख में भी इस प्रकार के सुझाव दिए गए थे। इस बीच 21 जनवरी,  19 59 को तहसीलदार सिंह , जो मान सिंह का पुत्र था और नैनी जेल में सजा काट रहा था,  उसे 242 वर्ष की सश्रम कारावास और 6 प्रकरणों में मृत्युदंड की सजा हुई थी , ने विनोबा भावे को  पत्र लिखकर फांसी की सजा मिलने से पहले उनके दर्शन का अनुरोध किया ।  1959 के जुलाई में भिंड जिला कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष हर सेवक मिश्र  और सर्वोदय कार्यकर्ता प्रेम नारायण शर्मा बाबा विनोबा  से कश्मीर जाकर मिले तथा चंबल घाटी में सर्वोदय के प्रयोग का निवेदन किया था  । इस मुलाकात में मेजर जनरल यदुनाथ सिंह भी उपस्थित थे । मेजर जनरल  यदुनाथ सिंह उस समय कश्मीर लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष थे और कश्मीर सरकार ने उन्हें विनोबा के राज्य में पदयात्रा की व्यवस्था का प्रभारी नियुक्त किया था । विनोबा  ने मेजर जनरल यदुनाथ सिंह को तहसीलदार सिंह से मिलने के लिए नैनी जेल भेजा । विनोबा ने पिछले महीने विभिन्न माध्यमों से हुए अनुरोध को स्वीकार करते हुए चंबल घाटी की यात्रा की स्वीकृति दे दी।

मेजर जनरल यदुनाथ सिंह ने तहसीलदार सिंह से नैनी जेल में मुलाकात की। इस का बड़ा  सकारात्मक परिणाम निकला । तहसीलदार सिंह  से मुलाकात के बाद मेजर जनरल यदुनाथ सिंह बीहड़ों में  तहसीलदार सिंह के साथियों से मुलाकात की।  यह  उन्हीं के प्रयासों का परिणाम था कि 1960 में विनोबा के चंबल यात्रा के दौरान 20 बागियों ने आत्मसमर्पण किया।  बागियों के समर्पण में मेजर जनरल यदुनाथ सिंह की भूमिका का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु पर विनोबा भावे ने अपने संदेश में कहा कि भिंड,  मुरैना का सारा काम उनके आधार पर था । वहां उन्होंने बड़ा पराक्रम किया,  काफी मेहनत की वे न  होते तो यह काम हरगिज़ नहीं हो सकता था।  अपने अभियान के क्रम में मेजर जनरल यदुनाथ सिंह ने श्रीमती इंदिरा गांधी और डॉक्टर सुशीला नैयर  के साथ राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से मुलाकात कर  तहसीलदार सिंह की क्षमा याचना पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने तथा  मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करने का अनुरोध किया । बाद में राष्ट्रपति कार्यालय ने तहसीलदार सिंह के मृत्यु को आजीवन कारावास में परिवर्तित करने के  अनुरोध को स्वीकार कर इस आशय के आदेश जारी किए।  मेजर जनरल यदुनाथ सिंह ने जिस निष्ठा , लगन एवं उत्साह के साथ इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाया इसी का परिणाम था कि  चंबल घाटी के लोगों में वे  भगत जनरल के नाम से प्रसिद्ध हुए ।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आचार्य विनोबा भावे जब अपने चंबल अभियान के आरंभिक चरण में 5 मई,  1960 को आगरा पहुंचे तब तक सारे देश की उत्सुक निगाहें उन पर लगी हुई थी । पालीवाल पार्क में उसी शाम होने वाली सभा में 30,000 से अधिक श्रोता उपस्थित थे । 7 मई तक विनोबा आगरा में रुके। इस प्रवास काल में उनसे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं,  सर्वोदय कार्यकर्ताओं तथा सामान्य नागरिकों ने भेंट की । केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री संपूर्णानंद,  केंद्रीय परिषद के सदस्य डॉ डी एन दातार,  योजना आयोग के सदस्य श्रीमन्नारायण,  दिल्ली विश्वविद्यालय के उप कुलपति वी के आर वी राव  जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों से बंद कमरे में विनोबा  की लंबी वार्ताओं का दौर चला।  उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ मंत्रियों और पुलिस अधिकारियों ने भी विनोबा से भेंट की।

मध्य प्रदेश सरकार ने विनोबा की पदयात्रा के दौरान एक प्रकार के अघोषित युद्ध विराम जैसी स्थिति अंत तक बनाए रखी ।  मेजर जनरल यदुनाथ सिंह और अन्य सर्वोदय कार्यकर्ताओं के डाकू से संपर्क के रास्ते में कोई व्यवधान नहीं खड़े किए गए और न ही उनके विरुद्ध किसी तरह की कानूनी कार्रवाई की गई।  पदयात्रा के दौरान शिविरों में डाकुओं का आवागमन पुलिस की निगाहों के सामने होता था और वह मूकदर्शक की भांति तटस्थ  रहती थी । इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का सहयोग मध्यप्रदेश पुलिस ने नहीं किया । पदयात्रा के दौरान 22 मई,  1960 को भिंड में राज्यपाल पाटस्कर प्रार्थना सभा में स्वयं  डाकुओं के  विनोबा  के सामने समर्पण के साक्षी के रूप में   उपस्थित थे।  इससे पूर्व  21 मई,  1960 की  रात्रि को आकाशवाणी ने चंबल घाटी में छिपे हुए दस्यु  दलों के नाम विनोबा का एक संदेश प्रसारित किया था । जिसमें विनोबा ने अपना दृढ़ मत व्यक्त किया था कि हिंसा के उपायों से दस्यु समस्याओं को नहीं सुलझाया जा सकता । 1960 के  आत्मसमर्पण का पूरा कार्य सर्वोदय कार्यकर्ताओं का ही प्रयास था । केंद्रीय सरकार की सद्भावना के कारण मध्य प्रदेश सरकार और पुलिस ने मतभेद होते हुए भी इसमें व्यवधान उत्पन्न नहीं किया।  लेकिन किसी प्रकार का सहयोग भी इस पक्ष में से नहीं मिला।  रुस्तम जी जैसे अधिकारी अंत तक इस प्रक्रिया को स्वीकार नहीं कर पाए और इसकी खुली आलोचना करते रहे।

 26 मई,1960  को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बधाई संदेश में कहा आज सारा राष्ट्र  आपके इस कार्य की ओर आस्था और प्रसंनता की दृष्टि से देख रहा है जिसके द्वारा आप डाकुओं में उत्तम एवं नैतिक भावना जागृत करने में सफल हुए हैं और जिसके द्वारा उन्होंने उत्साहित होकर आत्मसमर्पण  किया है।  मैं आपके उद्देश्य के  पूर्ण सफलता के लिए कामना करता हूं एवं आपके प्रति सद्भावना और सम्मान प्रकट करता हूं।

1960 में बाबा विनोबा की पदयात्रा के दौरान चंबल घाटी में शांति स्थापना का  जो  बीजारोपण हुआ था वह  1972 में  परवान  चढ़ा , जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 502 बागियों ने आत्मसमर्पण किया जो किसी चमत्कार से कम नहीं था।  दरअसल चंबल घाटी के कुख्यात बागी माधो सिंह जिन पर 50 हत्या ,  40 डकैती,  90 अपहरण का आरोप था,  ने 26 जून 1971 को राम  सिंह ठेकेदार के नाम से विनोबा  भावे से पवनार में मुलाकात की।  विनोबा  ने उन्हें जयप्रकाश नारायण से मिलने की सलाह दी।  अक्टूबर के प्रारंभ में माधो सिंह ने पटना में जयप्रकाश नारायण से मुलाकात की।  पहले दिन की मुलाकात का कोई परिणाम नहीं निकले पर दूसरे दिन फिर से जयप्रकाश से मुलाकात की।  इस मुलाकात में माधो सिंह जो राम सिंह ठेकेदार के नाम से उनसे मिला था , अपने आप को प्रकट कर दिया । जयप्रकाश ने उसे आश्वासन दिया  कि वह उत्तर प्रदेश,  मध्य प्रदेश और राजस्थान की सरकारों से संपर्क करेंगे यदि उन्होंने अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की तब  इस संबंध में सोचेंगे।

जयप्रकाश नारायण ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी,  मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल और राजस्थान के मुख्यमंत्री बरकतुल्लाह खान को पत्र लिखें । उन्होंने केंद्र सरकार से भी संपर्क किया।  उन दिनों प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण के  संबंध बहुत अच्छे थे ।  उन्हें सभी पक्षों से अनुकूल प्रतिक्रिया प्राप्त हुई।  उन्होंने चंबल घाटी शांति समिति में काम करने वाले महावीर सिंह और हेम देव शर्मा से भी पटना बुलाकर बातचीत की और चंबल के डाकुओं से संपर्क करने का निर्देश दिया।   गांधी स्मारक निधि ( केंद्रीय ) के तत्कालीन मंत्री देवेंद्र कुमार गुप्ता को भी इस कार्य में शामिल किया । शांति मिशन के कार्यकर्ताओं को पंडित लोकमान तथा तहसीलदार सिंह,  जो जयप्रकाश जी के प्रयास से 18 वर्ष के बाद जेल से मुक्त हुए थे,  का भी भरपूर सहयोग मिला। इधर पटना से लौटने के बाद मधो सिंह पूरी तरीके से आत्मसमर्पण के कार्य में लग गया।

13 दिसंबर , 1971 को जयप्रकाश नारायण ने  चंबल घाटी के डाकू के नाम एक अपील जारी की।  उन्होंने बागियों से अपनी गतिविधियों को बंद करने और हिम्मत के साथ समाज के सामने आत्मसमर्पण की अपील की । उन्होंने बागी  भाइयों से कहा कि अपना रास्ता छोड़कर देश के काम में सहयोग करें।  उन्होंने यह भी कहा कि वह केंद्रीय  गृह राज्य मंत्री के सी पंत,  मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी तथा राजस्थान के मुख्यमंत्री बरकतुल्लाह खां के संपर्क में है और उन्हें इस कार्य में उनकी पूरी सहानुभूति है।

1960 और 1972 के घटनाक्रम पर अगर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि सुप्त  पड़े  मानवीय तत्वों को जागृत करने का प्रयास दोनों ही अवसरों पर हुआ , लेकिन  1972 का कार्य कहीं अधिक योजनाबद्ध एवं सुविचारित   रहा। 1960 में   प्रशासन तटस्थ द्रष्टा बना रहा,  लेकिन1972 में जयप्रकाश नारायण ने सबसे पहले प्रशासन  को विश्वास में लिया।  जनता,  सामाजिक कार्यकर्ताओं और डाकुओं के  संबंधी जनों का सहयोग प्राप्त कर कार्य को अंजाम तक पहुंचा। 27 सितंबर,  1970 में जौरा , मुरैना मध्य प्रदेश में महात्मा गांधी सेवा आश्रम की स्थापना की गई थी । डॉ. एस एन सुब्बाराव इसके अध्यक्ष थे । 14 से 16 अप्रैल के आत्मसमर्पण  में यही आश्रम रंगमंच बना।

श्रीमती इंदिरा गांधी चंबल घाटी की दस्यु समस्या से 1959 से परिचित थी ।  बांग्लादेश मुक्ति के बाद उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी । 1972 के चुनाव में उनके दल को भारी बहुमत मिला ।  उनका आत्मविश्वास बढ़ा हुआ था और वे सामूहिक समर्पण के प्रयोग के प्रति उत्सुक थी । मध्यप्रदेश में प्रकाश चंद्र सेठी नए मुख्यमंत्री  के रूप में आए। केंद्रीय गृह मंत्रालय की पहल पर दिल्ली में मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश और राजस्थान के पुलिस महानिदेशकों की एक बैठक हुई,  जिसमें जयप्रकाश नारायण भी उपस्थित थे।  इस बैठक में आत्मसमर्पण के सभी पहलुओं पर विचार करके संभावित दंड प्रक्रिया की एक रूपा रूपरेखा तय की गई।  2 अप्रैल 1972 को दिल्ली में तीनों राज्य के मुख्यमंत्रियों की एक बैठक हुई । इसमें आत्मसमर्पण के समय तक डाकू उन्मूलन अभियान को स्थगित करने तथा आत्मसमर्पण को संभव बनाने के लिए प्रभावित इलाकों को शांति क्षेत्र घोषित करने का निर्णय लिया गया । शांति मिशन को पुलिस ने सफेद रंग की 4 जीप   उपलब्ध करवाएं जिससे वे घने जंगलों में जाकर दस्यु दलों  से संपर्क कर सके।

10 अप्रैल , 1972 को श्रीमती इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण की  भेंट हुई,  जिसमें प्रकाश चंद्र सेठी भी उपस्थित थे।  उस समय तक लगभग 250 डाकू समर्पण का वचन दे चुके थे । उसी दिन शाम जयप्रकाश नारायण ने अपना पहला प्रेस वक्तव्य जारी किया,  जिसमें 6 महीने में चंबल घाटी क्षेत्र में शांति मिशन के कार्य का विवरण था । 11 अप्रैल को जयप्रकाश नारायण अपनी पत्नी प्रभावती देवी के साथ ग्वालियर  के लिए निकल पड़े। वे  औपचारिक समर्पण से पूर्व डाकू सरदारों से स्वयं भेंट कर आश्वस्त  होना चाहते थे । इस कार्य के लिए जौरा  से 15 किलोमीटर दूर पगारा स्थान को चुना गया , जहां डाकू दलों को समर्पण के से पूर्व एकत्र होना था।  10 अप्रैल के वक्तव्य में जयप्रकाश नारायण ने कहा था इस मामले में झूठी आशाएं न पैदा हो , इस दृष्टि से मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि इस क्षेत्र की डाकू समस्या जिसका अपना विशिष्ट इतिहास और स्वरूप रहा है उसको कुछ सौ  डाकुओं के आत्मसमर्पण से हल होने वाला नहीं है।  उनके आत्मसमर्पण से एक प्रक्रिया का श्रीगणेश होगा,  समस्या समाप्त नहीं होगी।  यह सिर्फ कानून की समस्या नहीं है , बल्कि एक मनोवैज्ञानिक,  सामाजिक और आर्थिक समस्या है । दिल्ली में मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशकों   की बैठक में जिन मुद्दों पर सहमति बनी थी,  उसकी जानकारी एक सरकारी प्रेस नोट में सार्वजनिक रूप से दे दी गई।

आतमसमर्पण का सार्वजनिक आयोजन महात्मा गांधी आश्रम जौरा में हुआ।  इसमें मुख्यमंत्री एवं पुलिस महानिरीक्षक दोनों उपस्थित थे।  14 अप्रैल को मुख्य समारोह से पूर्व पगाड़ा  में ही डाक बंगले के सामने एक तंबू में डाकुओं ने जयप्रकाश नारायण के सामने औपचारिक आत्मसमर्पण किया।  सर्वोदय महिलाओं ने उन्हें राखियां बांधी । जयप्रकाश नारायण ने उन्हें देशव्यापी सर्वोदय परिवार के सदस्य बनने की बधाई दी और आश्वस्त किया कि किसी को भी मृत्युदंड नहीं होगा और अगर होगा तो उनकी जान बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देंगे।

महात्मा गांधी सेवा आश्रम जौरा  में 14 अप्रैल , 1972 को समर्पण का समारोह विशाल जनसमूह की उपस्थिति में हुआ । समारोह का आरंभ मोहर सिंह गिरोह के नारायण पंडित के वक्तव्य से हुआ।  उन्होंने कहा हम लोगों के जीवन का आज सुनहरा दिन है।  भारत की परंपरा,  बापू की सीख  और विनोबा का असर हमारे जीवन पर पड़ा । आज हम शांति का मार्ग अपनाकर अपना नया जीवन शुरु कर रहे हैं । सबसे पहले मोहर सिंह और खरु सिंह  मंच पर आए उन्होंने जनता का अभिवादन किया और अपना शस्त्र महात्मा गांधी की मूर्ति के चरणों में रख दिए । जयप्रकाश नारायण ने मोहर सिंह को गले लगाया।  प्रभावती देवी ने उन्हें तुलसीकृत रामायण और विनोबा का गीता प्रवचन दिया। 82  डाकुओं ने हथियार गांधी जी के चरणों में समर्पित किए।  मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी ने अपने भाषण में जयप्रकाश नारायण के प्रति आभार व्यक्त किया।  उन्होंने कहा कि आप ने उन लोगों को जिनका निशाना अचूक है,  आज नई दिशा दी और उनको हिंसा के जीवन से अहिंसा का जीवन जीने और एक नागरिक जीवन व्यतीत करने का अवसर दिया । जयप्रकाश नारायण ने अपने भाषण में मुख्यमंत्री,  मध्यप्रदेश शासन और पुलिस विभाग से प्राप्त सहयोग के लिए धन्यवाद दिया।  उन्होंने कहा प्रशासन का  कोई भी अधिकारी ऐसा नहीं समझे कि हम उनको हीरो बनाना चाहते हैं।  हम उन्हें मनुष्य बनाना चाहते हैं।  अपनी छाती से लगाकर हम उनको अपना भाई बनाना चाहते हैं।  16 अप्रैल को गांधी सेवा आश्रम में दूसरा आयोजन हुआ।  उसमें माधो  सिंह,  मखन  सिंह,  जगजीत  सिंह,  रूप सिंह,  हरविलास गिरोह के 81 बागियों ने आत्मसमर्पण किया।  डाकुओं की ओर से माधो  सिंह ने कहा कि  बाबा विनोबा और जयप्रकाश नारायण के  आशीर्वाद से हम नई जिंदगी शुरु कर रहे हैं।   हमसे बहुत गलतियां हुई है,  इसके लिए हमें दिल से पश्चाताप हैं।   हमारी वजह से जिन्हें भी दुख या तकलीफ हुई है उनसे हम माफी मांगते हैं।  भगवान से हमारी विनती है वह हमें सच्ची राह पर चलने की ताकत दें और इस जीवन में समाज के लायक बनाए।

बुंदेलखंड के क्षेत्र के लिए मुख्यमंत्री 15 मई तक प्रतीक्षा करने के लिए तैयार हो गए।  बुंदेलखंड के 5 जिले टीकमगढ़,  पन्ना,  छतरपुर,  दमोह और सागर में पुलिस कार्यवाही स्थगित कर दी गई।  चतुर्भुज ठाकुर,  तहसीलदार सिंह और लोकमान के नेतृत्व में लोकेंद्र भाई और द्वारिका तिवारी सर्वोदय कार्यकर्ताओं की  टोलियां इन डाकुओं से संपर्क के लिए निकल पड़ी।  30 अप्रैल तक  अन्य बागियों  से संपर्क के लिए महावीर सिंह , हेमदेव शर्मा,  चरण सिंह,   लोकमन और तहसीलदार सिंह की टीम बनाई गई।  जेल में बागियों से संपर्क वालों  में गुरु शरण,  राज कुमार चौबे और श्रीमती चंद्रकला सहाय की टीम बनी।  मुकदमे में बागियों से सहायता के लिए ग्वालियर के शीर्षस्थ  वकील जेपी गुप्ता, जे  एम  आनंद,  बाबूलाल गुप्ता और स्वामी शरण की टीम बनाई गई । बागी परिवारों के पुनर्वास के लिए एस एन सुब्बाराव के नेतृत्व में एक पृथक समिति का गठन किया गया ।    जय प्रकाश नारायण 10 मई को बुंदेलखंड पहुंचे।  छतरपुर से 50 किलोमीटर दूर यहां मौली डाक बंगले में ठहरे और डाकू सरदारों से भेंट की और 31 मई को समर्पण की तिथि तय की गई।  31 मई को जयप्रकाश नारायण और मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी छतरपुर पहुंचे और 65 वादियो ने अपना शास्त्र समर्पित किए।

चंबल घाटी और बुंदेलखंड में बागियों के आत्मसमर्पण का कार्य संपन्न होने पर जयप्रकाश नारायण ने इस क्षेत्र की जनता के नाम एक मर्मस्पर्शी अपील जारी की । उन्होंने क्षेत्र की जनता से अपना हथियार सरकार को सौंपने का अनुरोध किया । उन्होंने आशा व्यक्त की कि बागी  भाइयों ने गांधी जी की चरणों में बंदूक डाली अब क्षेत्र की जनता इसी भावना से इस कार्य को आगे बढ़ाएगी ।

1972 से 1976 के बीच कुल 654 डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया।  आपसी सद्भाव,  विश्वास और क्षेत्रीय शांति को बढ़ाएं बनाए रखने के लिए सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने क्षेत्र में पदयात्रा तथा संपर्क के कार्यक्रम बनाएं।  श्रीमती प्रभावती देवी,  सरला बहन , दादाभाई नायक तथा कृष्णानंद आदि की  यात्राएं उल्लेखनीय रही।  विनोबा के सुझाव पर 2 मई से 15 अगस्त,  1973 तक निर्मला देशपांडे के नेतृत्व में महिला लोकयात्रा का आयोजन किया गया । इस अभियान में महिलाओं की टोली चार जिलों के 104 गांव में गई । कई महिला संगठनों ने इसमें भाग लिया।1972 में चंबल और बुंदेलखंड के लगभग सभी सूचीबद्ध डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया।  पहली बार चंबल के वासियों ने तनाव मुक्त वातावरण में सांस ली।  आत्मसमर्पण के 2 वर्ष बाद एसएन सुब्बाराव ने  एक भेंट में चंबल क्षेत्र की शांति पर संतोष व्यक्त किया।  साथ ही उन्होंने सचेत किया कि   शांति बने रहने की पूरी संभावना है पर बुद्धिमानी से काम नहीं लिया गया तो शांति भंग होने में देर नहीं लगेगी।  1976 में राजस्थान और उत्तर प्रदेश  सरकारों ने स्थानीय गिरोह के आत्मसमर्पण के लिए में सर्वोदय कार्यकर्ताओं का सहयोग लिया । तालाब शाही में मुख्यमंत्री हरदेव जोशी के सामने 12 डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया।  इस दल का सरगना खरगा और   महिला डकैत कपूरी थे।  उत्तर प्रदेश में सक्रिय डाकू दलों  के समर्पण का  प्रयास करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने सर्वोदय कार्यकर्ताओं को वही सहायता प्रदान की और आश्वासन दिया जो 4 वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश सरकार ने 1972 में दिए थे । एस एन सुबाराव के नेतृत्व में कार्यकर्ताओं ने प्रभावित आगरा जिले के दुर्गम बीहड़ों में हृदय परिवर्तन का संदेश लेकर फैल गए।  मध्य प्रदेश सरकार ने मुंगावली के नवजीवन शिविर में सजा काट रहे मोहर सिंह,  माधो  सिंह,  कल्याण सिंह , नत्थू सिंह , जगजीत सिंह को पैरोल पर छोड़ दिया,  जिससे वे अभियान में सहयोग कर सकें।  इस कार्य में तहसीलदार सिंह,  लोकमन,  डरे लाल ने भी उत्साह पूर्वक साथ दिया।  1972 में मध्यप्रदेश में संगठित डाकू समस्या लगभग समाप्त हो चुकी थी । उत्तर प्रदेश और राजस्थान में स्थानीय गिरोह ही  सक्रिय थे,  जो संख्या और शक्ति के लिहाज से बहुत बड़े नहीं थे।  आत्मसमर्पण के लिए आगरा जिला के  बाह  तहसील के प्रसिद्ध हिंदू तीर्थ स्थल बटेश्वर  को चुना गया । जमुना के किनारे  बसे इस स्थान पर कार्तिक पूर्णिमा को प्रसिद्ध पशु मेला लगता है । 3 जून,  1976 को आत्मसमर्पण संपन्न हुआ।  इसमें केंद्रीय पेट्रोलियम और रसायन मंत्री प्रकाश चंद्र सेठी,  जो 1972 के  आत्मसमर्पण के समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे,  मुख्य अतिथि थे । इस कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी एवं एस एन सुब्बाराव  मंच पर उपस्थित थे ।  इस समारोह में 62 डाकुओं ने  आत्मसमर्पण किया । जो लाल सिंह , जनक सिंह , भोगी पंडित , लाखन सिंह,  उत्तर सिंह और नत्थी  सिंह आदि गिरोह से संबंधित  थे। बटेश्वर के समर्पण के समय जयप्रकाश नारायण और उनके साथियों की खुली आलोचना की गई , जिसका उपस्थित जनसमूह और डाकुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।   1972 के आत्मसमर्पण की विशेषता यह थी कि चंबल घाटी के विकास पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया गया था।

स्पष्ट है कि चंबल घाटी की  दस्यु समस्या के समाधान के लिए पिछले 9 शताब्दी में सरकारों द्वारा की गई कोशिश कभी कामयाब नहीं हुई । महात्मा गांधी ने द्वेष धर्म के सामने प्रेम धर्म  तथा  तोप बल के सामने आत्मबल को खड़ा किया था।  जो काम सरकारें सदियों से नहीं कर पाई वह कार्य  सर्वोदय कार्यकर्ता करने में सफल रहे।  मैत्री से ही मिटे बैर  को बाबा विनोबा तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सर्वोदय के कार्यकर्ताओं ने अपनी लगन , निष्ठा एवं परिश्रम  से सत्य साबित कर दिया । यह अहिंसा  की ताकत है।आज जब दुनिया युद्ध,  हिंसा के ताप में झुलस रही है, तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडरा रहा है,  अणु  शक्ति संपन्न राष्ट्र हिंसा को रोकने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं , इस स्थिति में गांधी का  सर्वोदय विचार पूरी मानव जाति के लिए तारणहार हो सकता है । इस दृष्टि से  1972 में  बागियों के आत्मसमर्पण के स्वर्ण जयंती वर्ष में महात्मा गांधी सेवा आश्रम जौरा , मुरैना , मध्य प्रदेश में 14 से 16 अप्रैल,  2022 को आयोजित  सर्वोदय समाज के सम्मेलन  का एेतिहासिक और सामयिक महत्व है।

अशोक भारत

870902550

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