औद्योगिक सभ्यता और राष्ट्र-राज्य
— अशोक भारत
पूंजीवाद ने उन देशों में जहां इसका शुरू-शुरू में विकास हुआ था, राष्ट्र-राज्य को जोड़ने में सीमेंट का काम किया। हालांकि आधारभूत रूप से राष्ट्र-राज्य कबायली भावना पर आधारित था, जहां एक से अधिक मूल के लोग विशेष ऐतिहासिक कारणों से एक राष्ट्र-राज्य में आबद्ध थे। वहां पूंजीवाद के पैâलाव के काल की समृद्धि ने पृथकता के बोध को धूमिल कर दिया था और राष्ट्र-राज्य की समृद्धि में सम्मिलित हिस्सेदारी से एक तरह की राष्ट्रीय एकता का भाव पैदा होने लगा था। क्षेत्रीय लगाव के अनुवांशिक गुण के कारण भी भौगोलिक क्षेत्रों से विशेष लगाव पैदा हुआ, जिनको पूंजीवाद अनेक व्यापारिक और व्यावसायिक सूत्रों से बांध रहा था। राजाओं के प्रति वफादारी, राष्ट्र-ध्वज, राष्ट्र-भाषा आदि प्रतीकों ने क्षेत्रीय भाव को एक विशाल क्षेत्र से जोड़ने का काम किया। अपना सीमाहीन विस्तार करना और इस विस्तार के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं को निरस्त करना पूंजी का स्वाभाविक गुण है। इसलिए पूंजीवाद का साम्राज्यवाद के साथ अन्योन्याश्रय का संबंध होता है। इसी कारण एक तरफ संसार भर में यह अपना उपनिवेश और साम्राज्य पैâला रहा था और दूसरी ओर अपने उद्गम स्थलों में उन पूर्वकालिक सामाजिक संबंधों को ध्वस्त कर रहा था, जो उसकी अबाध प्रगति में बाधक थे। किसी देश को छोटे आकार में बांटने वाली सामंती व्यवस्थाओं को भी इसने खतम किया। कुल मिलाकर अपने पैâलाव के काल में राष्ट्र-राज्य को सूत्रबद्ध करने में इसका महत्त्वपूर्ण रोल था।
उद्योगों की विशेष प्रकार की संरचना के कारण और उसकी क्षमता प्रतिस्पर्धा पर आधारित होने के कारण; उसकी विकास की प्रक्रिया ऐसी होती है कि यह अपने कार्य क्षेत्र में लोगों के बीच गहरी विषमता, भावनात्मक विभाजन पैदा करता है। इसलिए विकास के परवर्तीकाल में उसकी भूमिका प्रारम्भिक काल के ठीक उल्टी यानी राष्ट्रीय विभाजन पैदा करने वाली हो जाती है। औद्योगिक ढांचा स्तरों में विभाजन पर टिका होता है। इसमें निचले स्तरों पर लोग महज उत्पादन के यंत्र होते हैं। इसी के अनुरूप उनकी आय कम और स्थिति हीन होती है। ऊपरी स्तर पर कार्य करने के लिए लम्बे अरसे की तकनीकी तथा व्यवस्था संबंधी शिक्षण-प्रशिक्षण से प्राप्त योग्यता जरूरी होती है। कुछ अति प्रतिभाशाली अपवादों को छोड़; वैसे ही लोग यह योग्यता हासिल कर सकते हैं, जो विशेष सांस्कृतिक परिवेश या सुविधा-सम्पन्न परिवारों से आते हैं। और; अपनी जिन्दगी के प्रारम्भिक 25-30 वर्षों तक आजीविका अर्जित करने को वे मजबूर नहीं होते। इसी से एक औद्योगिक अभिजात वर्ग की भर्ती होती है। इस तरह आधुनिक उद्योगों में शिक्षा और संस्कृति के स्तर पर भी गहरा विभाजन पैदा होता है।
ऊँच-नीच का यह वर्गीकरण सिर्पâ उद्योगों के भीतर ही नहीं होता। उद्योगों में कार्यरत लोगों और उन लोगों के बीच विभाजन और भी गहरा होता है जो उद्योगों के बाहर बेरोजगार होते हैं। ऐसे विकास का परिणाम यह होता है कि संगठित क्षेत्रों में रोजगार में लगे लोगों और बेरोजगार या असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत लोगों के जीवन स्तर में फर्वâ अत्यधिक हो जाता है। अक्सर देखा जाता है कि बेरोजगारी का अनुपात वैसे समूहों में ज्यादा होता है, जो ऐतिहासिक कारणों से आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं। विशेषत: वैसी शिक्षा जिसमें तकनीकी विशेषज्ञता प्राप्त होती हो। उदाहरण के लिए अमेरिका में बेजरोजगारी के फलस्वरूप गरीबी-रेखा के नीचे जीने वाले लोगों में अप्रâीकी मूल के अश्वेत लोगों की संख्या अत्यधिक होती है। इससे रहने-सहन में फर्वâ आता है और मूलों की भिन्नता स्पष्ट रूप से उजागर होती है। इस तरह का फर्वâ कमोबेश सभी देशों में देखा जाता है। इसमें सम्पन्न एवं विपन्न लोगों को बाँटने वाली रेखा सभी मूलों के लोगों से होकर समान रूप से नहीं गुजरती, बल्कि आर्थिक हैसियत और मूल प्राय: एकाकार हो जाते हैं। विभिन्न मूल एक-दूसरे से साफ भिन्न दिखायी पड़ते हैं। उद्योगों के अंदर भी विभिन्न स्तरों पर अवस्थित लोगों में प्रत्येक स्तर पर अत्यधिक संख्या एक ही समूह के लोगों की होती है। इसका प्रधान कारण प्रशिक्षण की कठोर प्रतियोगिता है, जो पहले से प्रशिक्षित समूहों के सदस्यों को आगे बढ़ाने में सुविधा प्रदान करती है। स्पष्ट रूप से दिखायी देने वाली यह विषमता मूल, भाषा, नस्ल आदि की अनुभूति को और भी तीव्र करती है। यह एक भ्रम है कि आधुनिक औद्योगिक समाज नस्ल, मूल, भाषा, धर्म, जाति आदि के पारम्परिक संबंधों को भूलकर एक समान नागरिकता का परिवेश पैदा करता है। असल में घोर विषमता के साथ-साथ सभी समूहों के बीच आय और उपयोग का एक ही मानक कायम कर यह व्यवस्था विभिन्न समूहों के लिए अपनी स्थितियों की तुलना औरों से करना आसान बना देती है। इससे एक ओर विशिष्ट होने का अहं पैदा होता है और दूसरी ओर हीन भावना, ईष्र्या और जलन।
दुनिया के अधिकांश देशों में विभिन्न मूल, भाषा एवं धर्म के लोग बसते हैं और उनमें अपनी अलग अस्मिता का बोध होता है। आधुनिक उद्योगों के विकास से इन देशों की आर्थिक विषमता गहराती है, इससे विभिन्न मूलों के लोगों के बीच की दूरी भी बढ़ती है। चूंकि ऐतिहासिक कारणों से अलग पहचान वाले ऐसे समूह आर्थिक विकास की प्रक्रिया से समान रूप से प्रभावित नहीं होते, इसलिए इनमें कुछ समूहों की आबादी में सम्पन्न लोगों का औसत दूसरे से कम या अधिक होता है। अगर ऐसे अलग-अलग पहचान वाले लोग अलग-अलग क्षेत्र में बसते हैं तो यह भावना पैदा होती है कि उनके क्षेत्र स्थिति के अनुसार कम या अधिक विकसित हैं। इससे क्षेत्रीय पृथव्âता का भाव पैदा होता है।आधुनिक उद्योगों के विकास का यह प्रभाव कार्लमाक्र्स के इस विचार के ठीक विपरीत मालूम पड़ता है कि ‘‘आधुनिक उद्योगों के विकास के क्रम में श्रम के अंतर्राष्ट्रीय विभाजन और संसार के आर्थिक एकीकरण से सभी छोटे-छोटे क्षेत्रीय दायरे टूटेंगे और अंततोगत्वा राष्ट्रीयता का भाव का भी लोप हो जायेगा।’’ मगर आधुनिक उद्योगों के विकास के क्रम में संसार भर में उद्योगों का सम-वितरण नहीं होता। कुछ क्षेत्रों में उद्योगों का केन्द्रीकरण होता है और बाकी में औद्योगिक पिछड़ेपन पैदा होता है, क्षेत्रीय विषमता पैदा होता है। जब दो अलग-अलग स्तर की औद्योगिक व्यवस्थाएं बिना अवरोध के एक-दूसरे से जुड़ती है तो दोनों के बीच की सम्पन्नता का स्तर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इससे क्षेत्र, मूल, भाषा आदि की पृथव्âता का बोध तीव्र होता है। इस तरह अंतर्राष्ट्रीय एकता का भाव तो दूर रहा, वह राष्ट्रीयता का भाव भी खंडित होने लगता है, जिसे आधुनिक उद्योगों के विकास के क्रम में पूंजीवाद ने प्रोत्साहित किया था। आधुनिक सभ्यता के विस्तार के साथ-साथ धार्मिक पुनरुत्थानवाद, छोटी राष्ट्रीयताओं एवं भाषायी जमातों के आंदोलन तथा कबायली पृथव्âता आदि की भावना, और उससे जुड़े आंदोलन दुनिया भर में उभर रहे हैं। विकसित देशों में नस्ल एवं मूल आधारित भावनाओं का उभार आ रहा है। काफी हद तक यह सब आधुनिक औद्योगिक सभ्यताजनित विषमताओं और बेरोजगारी से आहत अस्मिताओं का उभार है। आज दुनिया के अनेक देशों में आधुनिकीकरण के प्रयास के साथ-साथ विभिन्न तरह के पृथव्âतावादी आंदोलन जन्म ले रहे हैं तथा फैल रहे हैं।
अगर हम दुनिया पर नजर डालें; तो पायेंगे कि प्राय: उन सभी देशों में, जिन पर कभी साम्राज्यवाद का कब्जा था और जो अब स्वतंत्र हुए हैं, उनमें मूल, भाषा, धर्म आदि को लेकर आंतरिक कलह या विघटन की प्रवृत्तियां उजागर हुई हैं। अफ्रीका में नाइजीरिया, सोमाली, उगाण्डा, केन्या तथा अन्य देश समय-समय पर गृहयुद्ध में उलझते रहे हैं। इसी तरह म्यांमार (बर्मा), श्रीलंका, पाकिस्तान सभी में ऐसे संघर्ष बढ़े हैं। मूलों की भिन्नताएं सैकड़ों वर्षों तक सभी परम्परागत समाजों में रही है। लेकिन वर्तमान औद्योगिक सभ्यता के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति के अभाव में, वे अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की जीवन-पद्धतियां अपनाकर, जिनमें एक-दूसरे से संपर्वâ निम्नता था, एक हद तक संतुष्ट जीवन बिताते रहे। आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था कच्चे माल और बाजार के लिए अनिवार्य रूप से पुरानी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं को तोड़ती है, और एक ही तरह की आर्थिक एवं उपभोक्तावादी उपलब्धि के लिए लोगों में होड़ पैदा करती है। इस होड़ से पैदा संघर्ष में पारम्परिक पहचान और वफादारियों का सहारा लिया जाता है। इस तरह मूलों और भिन्न समूहों के संघर्ष विस्फोटक रूप धारण कर लेते हैं।
भारत में जहां मूल, धर्म, भाषा आदि की भिन्नता तथा किसी केन्द्रीय शासन की अनुपस्थिति के बावजूद पहले एक राष्ट्र होने का भाव सैकड़ों वर्षों से था, वहां अब भाषाई, कबायली, क्षेत्रीय तथा जातीय भिन्नताएं व्यापक तनाव को जन्म दे रही हैं। पहले बिना किसी केन्द्रीय राज्य के भारत एक राष्ट्र था। अब केन्द्रीकरण की जितनी भी कोशिश हो रही है, उतने ही विभिन्न भागों में भारत से अलग राष्ट्रीय ईकाई होने के दावे हो रहे हैं।
इसका जो सबसे त्रासद नतीजा इस भौगोलिक क्षेत्र को भुगतना पड़ा, वह भारत और पाकिस्तान का बँटवारा है। विभाजन की इस प्रक्रिया की अगली कड़ी पाकिस्तान से बंगलादेश का टूटना। अब बचे हुए भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में नयी अलगाववादी और भावनात्मक रूप से तोड़ने वाली समस्याएं आए दिन पैदा हो रही हैं। भारत में कश्मीर, उत्तरपूर्व में अलगाववादी आंदोलन घोर हिंसक रूप ले रहे हैं। इसके अलावा भी अनेक क्षेत्रीय आंदोलन हैं, जो देश से बाहर जाने की बात तो नहीं करते, लेकिन पास-पड़ोस के लोगों से पृथक्ता जाहिर करने के लिए कटिबद्ध हैं। असम में अलगाववादी उल्फा उग्रवादी है तो असम से अलग होने का बोडोलैण्ड का आंदोलन चल रहा है। यह स्थिति भारत समेत कई देशों में हो सकती है।
दूसरी तरफ सम्पूर्ण देश में जातीय आधार पर तनाव गहराया है। इसके पीछे भी आर्थिक विषमता का गहरा बोध है, जो औद्योगिक व्यवस्था द्वारा प्रस्तुत अवसरों और सुविधाओं में हिस्सेदारी से पैदा हुआ है। बंगलादेश में छोटी कबायली जमातों में अलग होने का भाव प्रबल हुआ है तो पाकिस्तान में सिंध, बलुचिस्तान और उत्तर पश्चिम प्रान्त में अलगाववादी प्रवृत्तियां उभरकर सतह पर आ रही हैं।
भारतीय महादेश में अनेक बाहरी हमले होते रहे हैं और भीतरी भी, राजाओं के साम्राज्य विस्तार के कारण युद्ध होते रहे हैं। लेकिन इसका भीतरी समाज कभी भी सभी स्तरों पर आपसी कलह और विद्वेष से इतना क्षत-विक्षत नहीं था, जितना आज है। इस सबके पीछे उपभोक्तावादी मूल्य देखे जा सकते हैं जिसके द्वारा आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था ने हर व्यक्ति और समूह को एक-दूसरे से तुलना करने का सामान्य मानक दे दिया। चूंकि उपभोग के अविष्कृत नयी वस्तुओं को एक ही समय में सबको सामान्य रूप से उपलब्ध करना असम्भव है, इससे अभाव का बोध और असंतोष व्यापक बन जाता है। और इस असंतोष का कारण सभी अपने पड़ोसी व्यक्ति, जाति, मूल या धर्म के लोगों में देखते हैं, इससे नफरत पैदा होती है और संघर्ष की भूमिका बनती है।
मनुष्य चाहे जितना भी विकसित हो अपने आनुवंशिकीय जैविक गुणों से मुक्त नहीं हो पाता। असल में उनके मनोविज्ञान का आधार भी कहीं न कहीं वे गुण होते हैं, जो अपने परिष्कृत रूप में कभी-कभी देवत्व प्रदान करते दिखायी देते हैं और विकृति में दानवता। उसके जैवकीय-मनोवैज्ञानिक चरित्र और सामाजिक विकास में एक निरंतरता होती है। मानव समुदाय की संरचना में एक तरह का अन्योन्याश्रय संबंध होता है, जो सामाजिक संतुलन को बनाये रखता है। जब आधुनिक तकनीकी से उत्पन्न सामाजिक संबंधों के विस्फोट के कारण मनुष्य का अपने स्वभाव के जैविकीय आधार से संबंध टूट जाता है और बाहरी वस्तुओं की उपलब्धि के लिए होड़, मनुष्य को बांधने वाला एकमात्र सूत्र बच जाता है, तो मनुष्य के जीवन से संतुष्टि का आधार नष्ट हो जाता है। क्योंकि ऐसी संतुष्टि प्रदान करने वाले प्रतीकात्मक संबंध आर्थिक से इतर होते हैं। इस दृष्टि से आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था ने स्वभावगत मानवीय संबंधों को जलाने में तेजाब का काम किया है। उनके संबंधों के मानक यांत्रिक और क्षेत्र विकराल हो गए हैं। विभिन्न अस्मिताओं की टकराहट से बड़े राष्ट्रों में विघटन का खतरा उत्पन्न हो गया है। इस तरह आधुनिक उद्योगों का विकास प्रारम्भ में बड़े राष्ट्रों का जनक था, परवर्ती काल में इसका भंजक सिद्ध हो रहा है।
अपनी विकास की चरमबिन्दु पर यह औद्योगिक व्यवस्था बड़े औद्योगिक राष्ट्रों को भी राष्ट्र-राज्य की सार्वभौमिकता का अतिक्रमण करने के लिए बाध्य करती है। इसका एक उदाहरण यूरोपीय समुदाय का अस्तित्व में आना और यूरोपीय संसद का विकास है। यह यूरोपीय संसद आर्थिक मामलों में बहुत हद तक सदस्य राष्ट्रों की सम्प्रभुता को खंडित करती है। विशालकाय औद्योगिक प्रतिष्ठानों को एक तरह की छूट मिल गयी है कि वे यूरोपीय समुदाय के भीतर के राष्ट्रों की सरकार की अनुमति के बिना भी उनके औद्योगिक प्रतिष्ठानों को भी खरीदकर अपने में मिला लें। एक यूरोपीय मुद्रा चलाने की दिशा में पहल और व्यापार में एक इकाई की तरह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में शामिल होने से काफी हद तक अलग राष्ट्र-राज्य के बने रहने का तर्वâ कमजोर पड़ जाता है। एक तरफ सम्पन्न औद्योगिक देशों में राष्ट्रीय सम्प्रभुता की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लगने लगा है, दूसरी तरफ उन देशों में जो साम्राज्यवादी शासन से पिछले अर्धशताब्दी में मुक्त हुए हैं, समेकित राष्ट्र-राज्य के अस्तित्व पर विभिन्न दिशाओं से आक्रमण होने लगे हैं। इन घटनाओं ने राष्ट्र-राज्य की उन अवधारणाओं को, जिन्हें निर्विवाद माना जाता था, फिर विवाद के घेरे में ला दिया है। जब बड़े राष्ट्र जिस भावावेश में अपनी राष्ट्रीय अखंडता को तर्वâ अतीत मानते हैं, उसी भावावेश से उनके भीतर अपनी राष्ट्रीयता का दावा करने वाली लघु राष्ट्रीय जमातें भी अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को तर्कातीत मानती हैं। भावनाओं की इस टकराहट का निराकरण हथियारों के बल पर करने के प्रयास अल्पकालिक ही होते हैं। संघर्ष अपनी जगह कायम रहता है। इस कारण राष्ट्रीयता का सवाल भावनाओं की धरातल से हटाकर तर्कों के दायरे में लाने की चुनौती दुनिया के सामने आ गयी है। नहीं तो, हमारे भीतर बैठा आदिम मनुष्य अपने निर्वाध भावावेश से हमें प्लावित कर वर्तमान युग में उपलब्ध हथियारों के बल पर हमारी सम्पूर्ण सभ्यता को नष्ट कर देगा।
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