कृषि संकट और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश

देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। किसानों की हालत पस्त है। पिछले एक दशक में लगभग तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है और महामारी की तरह पूरे देश में फैल रहा है। किसानों को उम्मीद थी उनकी स्थिति में सुधार के लिए कोई ठोस पहल मोदी सरकार करेगी। लेकिन पिछले सालभर में ऐसी कोई पहल नहीं हुई जिससे यह भरोसा हो कि किसानों के ‘अच्छे दिन’ आनेवाले हैं। हालात तो यहाँ तक हो गये कि संसद से मात्र आधा किलोमीटर की दूरी पर जन्तर-मन्तर, नई दिल्ली में किसान ने आत्महत्या किया। देश की राजनीति ऐसी हो गयी है कि इस त्रासद घटना से सबक लेने तथा पुनरावृत्ति रोकने के ठोस उपाय के बजाय इसका राजनीतिक तमाशा बनाया जा रहा है।

किसान की बदहाली के लिए सरकार की वह नीति जिम्मेदार है, जिसके तहत किसान के श्रम का मूल्य बहुत कम आंका जाता है ताकि अर्थव्यवस्था पटरी से न उतर जाय। जानबूझ कर किसानी को अकुशल कार्य माना गया। जबकि यह आम जानकारी की बात है खेती किसानी का कार्य अत्यन्त दक्षता वाला है। इतना ही नहीं सरकार द्वारा एक अकुशल मजदूर की एक दिन की जो न्यूनतम मजदूरी निर्धारित है उसका लगभग 25 प्रतिशत से भी कम किसान के श्रम की गणना की जाती है। इसलिए सरकार की नीति को कई लोग किसान के खिलाफ एक साजिश करार देते है। किसान की बदहाली की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। उसे अपने उत्पाद का मूल्य तय करने का भी अधिकार नहीं है। इसे या तो सरकार तय करती है या कम्पनियाँ। और तो और सरकार द्वारा तय कीमत पर भी फसल के समय कृषि उत्पादों की पूरी खरीदारी नहीं की जाती। कई बार तो उसे भगवान के भरोसे छोड़ दिया जाता है। जिन उत्पादों की खरीदारी भी की जाती है उसके भुगतान के लिए कई बार उसे वर्षो भागदौड़ करनी पड़ती है, आन्दोलन एवं कोर्ट का सहारा लेना पड़ता है। जबकि औद्योगिक उत्पादों की कीमत कम्पनियाँ तय करती है। बाजार के उतार-चढ़ाव के अनुसार उसमें वे वृद्धि करती रहती हंै। जबकि यह अधिकार किसानों के पास नहीं है। यह भेदभाव और अन्याय किसानों के साथ आजादी के पूर्व अंग्रेजों ने किया, जो आजादी के बाद भी जारी है। उपर से किसान को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का गुलाम बना दिया गया है। पहले अपने फसल का एक हिस्सा किसान बीज के रूप में इस्तेमाल करता था, अब नयी व्यवस्था में बीज, खाद, कीटनाशक सब के लिए वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मोहताज है। इस प्रकार पानी, बिजली, बीज, कीटनाशक सब कुछ के लिए किसान सरकार या कम्पनियों पर निर्भर है। स्वावलम्बी खेती अब पूरी तरह से परावलम्बी हो गयी है। यह है आजाद देश के गुलाम किसानो की स्थिति। किसानों की दयनीय स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकाता है कि पहले ख्ेाती उत्तम धन्धा माना जाता था और नौकरी निकृष्ट अब खेती को निकृष्ट समझा जाता है और नौकरी को उत्तम। इसलिए आज किसान का लड़का शहर में छोटा-मोटा काम-धन्धा करने के लिए तैयार है मगर किसान बनने के लिए नहीं।

किसान की इस विषम परिस्थिति में सुधार के बजाय मोदी सरकार अपने पसंदीदा कार्यक्रम ‘मेक इन इण्डिया’ के लिए किसानों की खेती योग्य उपजाऊ भूमि का सौदा करना चाहती है।  इसके लिए वे पूरी दुनिया का दौरा कर रहे हैं। वहाँ की कम्पनियों को भारत आकर फैक्ट्री खोलने का आमंत्रण और सभी प्रकार की सुविधाओं का आश्वासन दे रहे हैं। इसलिए केन्द्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास  पुनःस्थापना में पारदर्शिता अधिकार कानून 2013 में संशोधन के लिए अध्यादेश जारी किया है। सरकार किसानों, किसान संगठनों, जनसंगठनों एवं विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद हर हालत में इसे लागू करना चाहती है। सरकार की इस अध्यादेश को लागू करने की प्रतिबद्धता इसी से समझी जा सकती है कि राज्यसभा में पर्याप्त बहुमत के अभाव में संसद से पास कराने में असफल होने के बावजूद 5 अप्रैल 2015 को सरकार ने दूसरा अध्यादेश जारी कर दिया। पहला अध्यादेश 1 जनवरी 2015 को जारी किया गया था।

सरकार का मानना है कि तेज औद्योगिक विकास के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन आवश्यक है। इस कानून के कारण भूमि अधिग्रहण में अड़चने आ रही हैं, जिसे दूर करना आवश्यक है। इस अध्यादेश से विकास की गति तेज होगी। इसमें किसानों के हितों का पूरा ध्यान रखा गया है। यह विपक्ष और विकास विरोधी लोगों का दुष्प्रचार है यह अध्यादेश किसान विरोधी है। अब जरा सरकार के दावों पर गौर करें। सरकार का यह मानना है कि भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के कारण उद्योग के लिए भूमि अधिग्रहण में रुकावटें आ रही है तथ्यों पर खड़ा नहीं उतरता। इस कानून को लागू हुए मुश्किल से एक वर्ष हुए। मई 2014 तक तो देश में लोकसभा और बाद में कई राज्यों में विधान सभाओं के चुनाव थे। अतः इतने अल्प अवधि में किसी कानून के प्रभाव का निष्पक्ष आकलन होना व्यवहारिक नहीं जान पड़ता। यह कानून अभी लागू होने की प्रक्रिया में है। सूचना के अधिकार कानून के तहत केंद्र सरकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार फरवरी 2015 तक 804 परियोजनाएं लम्बित थी जिसमें केवल 8 प्रतिशत ही लम्बित होने की वजह जमीन की अनुपलब्धता थी। ज्यादातर परियोजनाओं की लम्बित होने की वजह बाजार की स्थिति से लेकर पर्यावरणीय मंजूरी तक दूसरे कारण हैं। लम्बित प्रस्तावों में 78 फीसदी निजी क्षेत्र के हैं। 804 में से 135 ऐसे हैं जिन्हें लग्जरी ही कहा जायेगा। इसमें होटल, रिसार्ट, मल्टीप्लेक्स, माॅल, गोल्फकोर्स आदि बनाने का प्रस्ताव है। अतः सरकार ने भूमि अधिग्रहण के बारे में जो निष्कर्ष निकाले हैं उसका कोई आधार नहीं है। ध्यान देने योग्य यह भी बात है कि सरकार बनने के तुरन्त बाद सरकार के कई मंत्री यह कहते रहे कि सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करेगी। स्पष्ट है सरकार का यह निर्णय किसी अध्ययन अथवा तथ्यों के आधार पर न होकर किसी अन्य कारणों से है। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 संसद में दो वर्षों के व्यापक बहस के बाद सर्वसम्मति से पास हुआ था। तब सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने और कड़े कानूनी प्रावधान की सिफारिश की थी। विपक्ष के नेता के तौर पर अरूण जेटली और सुषमा स्वराज के द्वारा सुझाए गए संशोधनों को तत्कालिक यू. पी. ए-।। की सरकार ने शामिल किया था। लेकिन अब भाजपा इसको याद करना नहीं चाहती। अब वित्तमंत्री अरूण जेटली कह रहे है कि विकास में संतुलन बनाये रखने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में संशोधन आवश्यक है।

असल मंे 120 वर्षो के कड़े संघर्षो के बाद भूमि अधिग्रहण पुर्नवास पुनसर््थापना में पारदर्शित अधिकार कानून 2013 में किसानों को थोड़ा राहत मिला था। अंग्रेजो के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के कारण अनेक किसानों ने अपनी जान गंवायी। विकास के नाम पर भूमिहीन होकर दर-दर की ठोकर खा कर जीवन जीने के लिए बाध्य हुए। लम्बे संघर्ष, कोर्ट के अनेक आदेशों और किसान आदिवासियों की कुरबानियों के बाद भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में यह प्रावधान शामिल किया गया कि सरकारी परियोजना के लिए 70 प्रतिशत और निजी सार्वजनिक भागीदारी (पी.पी.पी.) वाली परियोजनाओं के लिए 80 प्रतिशत किसानों की सहमति आवश्यक होगा। प्रश्न यह उठता है कि जमीन को हम क्या मानते है? सम्पत्ति या जीवन का आधार। अगर यह जीवन का आधार है तो बिना किसान की अनुमति के उसे छीनना न्याय की किस तराजू पर खड़ा उतरता है। जल, जंगल और जमीन जीवन के आधार है व्यापार की वस्तु नहीं। किसान इस राष्ट्र के निर्माता है। किसानों के मेहनत के बल पर इस देश की गाड़ी चलती है। फिर किसानों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? सवाल यह भी है कि जब किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान के लिए किसानों की जमीन ली जाती है उसके एवज में उस परियोजना में उसे भागीदार (शेयर होल्डर) क्यों न बनाया जाए। किसानों की जमीन क्यों छीनी जाती है? कानून में ऐसी व्यवस्था क्यों नही की जाती कि जिन किसानों की जमीन किसी औद्योगिक गतिविधियों के लिए ली जायेगी इसके एवज में उस औद्योगिक प्रतिष्ठान में जमीन के अनुपात में कम्पनी का शेयर किसानों को दिये जाएं।

अधिग्रहण कानून 2013 में सामाजिक प्रभाव आकलन का प्रावधान है। क्या लोकतांत्रिक लोककल्याणकारी राज्य में कोई परियोजना बिना उसके सामाजिक प्रभाव आकलन के लागू करना न्यायोचित होगा? अगर हां, तो फिर लोकतांत्रिक लोककल्याणकारी राज्य और अधिनायकवादी राज्य में क्या फर्क बचेगा? क्या यह एक ऐसा प्रावधान है जिसे पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा सकता है ? देश में कुल कृषि योग्य भूमि 12 करोड़ 50 लाख हेक्टेयर है। एक अध्ययन के अनुसार इसमें से 1 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर भूमि खेती से बाहर हो गयी है। अगर उद्योग के नाम पर कृषि योग्य भूमि इसी तरह खेती से बाहर होती गयी तो कृृषि योग्य भूमि का रकवा बहुत घट जायेगा, जिसका सीधा प्रभाव हमारे खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। बहुत मेहनत से देश खाद्यान्न के मामले में स्वावलम्बी बना है। उद्योग के नाम पर हम कृषि योग्य उपजाऊ भूमि गँवाते रहे तो खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता समाप्त हो जायेगी और हमें खाद्यान्न का आयात करना पड़ेगा जो देश के लिए घातक होगा। आज भी देश का हर चैथा आदमी भूखा है और हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। अमेरिका गेहूँ आयात का अनुभव बहुत पुराना नहीं है। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादूर शास्त्री ने अमेरिकी दादागिरी के जवाब में ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया और एक शाम सोमवार को उपवास रखने की अपील देशवासियों से की थी।

भूमि अधिग्रहण पर नियंत्रक एवं महालेखाकार (सी.ए.जी.) की रिपोर्ट में बताया गया है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस.ई.जेड.) के लिए आबंटन के 8 साल बाद भी जमीन खाली पड़ी है। अधिग्रहित कुल 48534 एकड़ भूमि में से लगभग 20 हजार एकड़ भूमि का उपयोग सेज के लिए नहीं हुआ, अन्य कार्यों के लिए हुआ। सी.ए.जी. ने इसे जमीन का लूट बताया है। सरकार सी.ए.जी. की रिपोर्ट को क्यों नहीं उजागर करना चाहती, इससे कुछ सीखना क्यों नहीं चाहती? यह आम अनुभव रहा है कि उद्योगों के लिए जितने जमीन की आवश्यकता है उससे कई गुणा ज्यादा जमीन पूंजीपति-उद्योगपति अधिग्रहित करते हैं। फिर अतिरिक्त भूमि का इस्तेमाल अन्य कार्यों के लिए करते हैं। तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है केन्द्र सरकार किसके हित में कार्य कर रही है किसानांे या पूंजीपतियों के? सरकार बहुसिंचित भूमि का भी उपयोग उद्योगों के लिए करना चाहती है। जब देश में कई लाख एकड़ भूमि ऐसी है जो कृषि योग्य नहीं है। सरकार इस भूमि का उपयोग उद्योगों के लिए क्यों नहीं करना चाहती। बहुफसली सिंचित भूमि को गैर-कृषि कार्य में लगाना कितना उचित है?

सरकार की प्राथमिकताओं में सिर्फ 100 स्मार्ट सिटी और बड़े-बड़े उद्योग क्यों है? भारत तो 6 लाख गांवों का देश है। गांवों के विकास के बिना देश का सही विकास संभव नहीं है। आवश्यकता 100 स्मार्ट सिटी की नहीं 6 लाख स्मार्ट गांव की योजना बनाने की है। यह तभी संभव है जब चैपट हो रही खेती और दम तोड़ रहे किसानों को केंद्र में रखकर नीति बनायी जाय। आज भी देश में लगभग 50 प्रतिशत लोग रोजगार के लिए खेती पर निर्भर हंै। जबकि कृषि में जी. डी. पी का हिस्सा लगातार घट रहा है, अब सिर्फ 13.75 प्रतिशत रह गया है। विकास का अर्थ सिर्फ उच्च तकनीक एवं भारी पूंजी निवेश से उद्योगों-धन्धों का विकास क्यों माना जाता है? भारत जैसे श्रम बाहुल्य देश में विकास का यह माॅडल कितना व्यवहारिक है। विकास के नाम पर हम ऐसी नीति का समर्थन कैसे कर सकते हैं जिस विकास में किसान, आदिवासी, कारीगर समाज अपने घरों, संस्कृति और समाज से उजड़ते हो? विकास के जिस पश्चिमी माॅडल को सरकार अपना रही है वह आज अमेरिका, यूरोप समेत पूरी दुनिया में गहरे संकट में है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी मंदी के चपेट में है, यूरो जोन संकट से जूझ रहा है, चीन की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ गयी है वैसी स्थिति में केंद्र सरकार विकास के उसी माॅडल का अपना रही है जिसकी सीमायें जग जाहिर है। इस विकास के खिलाफ कुछ वर्ष पूर्व यूरोप एवं अमेरिका के नौजवानों ने ‘अकुपायी द वाल स्ट्रीट’ का आन्दोलन चलाया था जो पूरी दुनिया में फैल गया। युवाओं का कहना है कि एक प्रतिशत लोग 99 प्रतिशत लोगों की हितों के अनदेखी कर रहे हैं। इसलिए इस विकास नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की खूब चर्चा करते हैं। अभी हाल ही में जर्मनी में उन्होंने कहा था कि जलवायु परिवर्तन तथा आतंकवाद का समाधान गांधी विचार में है। प्रधानमंत्री की सोच बिल्कुल सही है। सवाल सिर्फ इतना है कि वे गांधी विचार का उपयोग इस देश मंे क्यों नहीं करना चाहते। गांधी जी ने आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय के बिना स्वराज्य को अधूरा माना था। पिछले 65 वर्ष के विकास यात्रा का अनुभव यह बतलाता हैं कि मौजूदा विकास में विषमता के बीज मौजूद है जिसने सामाजिक तनाव, बिखराव को आधार प्रदान किया है। क्या यह सही समय नहीं है कि हम अपने विकास नीति पर पुनर्विचार करें? यह रास्ता गांधी विचार होकर गुजरता है। देश का सही विकास तो तभी माना जायेगा जब समाज का अंतिम व्यक्ति यह महसूस करें कि यह उसका देश है और उसके विकास में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह तभी सम्भव है जब हम विकेन्द्रीत अर्थव्यवस्था एवं राजनीति की ओर जाए। उत्पादन विकेन्द्रित हो। इसके लिए गाँव-गाँव में लधु, कुटीर एवं गृह उद्योग को स्थापित करें। उत्पादन लोगों की आवश्यकता के अनुसार हो न कि लाभ कमाने की लालसा से। तभी मनुष्य, समाज और प्रकृति के बीच सामनजस्य स्थापित कर साम्य में जिया जा सकता है। जीवन के मूल आवश्यकता जल, जंगल, जमीन, पहाड़ आदि प्राकृतिक विरासतों का विवेकपूर्ण उपयोग करते हुये आनेवाली पीढि़यों के लिए संरक्षित किया जा सकता है। हमें मास प्रोडक्शन के बजाय प्रोडक्शन बाई द मासेज की बात करनी होगी। दुनिया के साथ हमारा रिश्ता महाशक्ति का नहीं भाईचारा का होगा, तभी हम सही मायने में विकसित राष्ट्र कहलाने के योग्य होंगे। क्या देश के नीति निर्माता इसके लिए तैयार हैं?

अशोक भारत
कृष्णा निकेतन, बलाई कैम्पस,
छाता चैक, मुजफ्फरपुर – 842001
मो.ः 9430918152, 8004438413

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