भारतीयता क्या है?
-अशोक भारत
यूनान व मिस्र व रूमा सब मिट गए जहाँ से
‘कुछ’बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
इकबाल के प्रसिद्ध गीत ‘सारे जहाँ से अच्छा’ की इन पंक्तियों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का वह मर्म छिपा है, जो इसे आज भी कायम रखे हुए है। यूनान, मिस्र और रोम की सभ्यता दुनिया से मिट गयी; हमारे यहाँ ऐसा ‘कुछ’ रहा है जिससे हमारी हस्ती मिटती नहीं। यही ‘कुछ’ भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा है, विशिष्टता है जो इसे दुनिया के अन्य देशों से अलग करती हैे। यही भारतीयता है।
अगर हम यूनान, रोम और मिस्र की सभ्यता पर एक नजर डाले तो पाते हैं कि यूनान की सभ्यता आज तक यूरोपीय कला के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है। इस सभ्यता ने इतिहास-लेखन , राजनीति शास्त्र, दर्शन, गणित और विज्ञान की नींव डालीं लेकिन मुख्यतः सिकन्दर की बहादुरी और सैनिक दक्षता के कारण यूनानी सभ्यता का प्रभाव एशिया और अफ्रीका तक फैला। रोम की सभ्यता की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ नगर निर्माण योजना, जल निकासी की योजना, सड़क निर्माण तथा भव्य एंफीथियेटरों का निर्माण रही है। उनकी फौज ‘लेजनों’ की संगठित एवं अनुशासित शक्ति रोमनों की विशिष्टता थी। इसके अतिरिक्त यूरोपीय सभ्यता और यूरोपीय साम्राज्यों के माध्यम से पूरी दुनिया पर जिस चीज की अमिट छाप पड़ी वह थी उसकी कानूनी व्यवस्था, जो यूरोप की सभी परवर्ती कानूनों का आधार रही है। ईसा के तीन हजार वर्ष पूर्व मिस्र ने स्थापत्य, शौर्य और श्रृंगार में जो प्रतिमान स्थापित किए वह आज भी आश्चर्य में डालने वाले हैं। मिस्र की उपलब्धियां सिंचाई व्यवस्था और स्थापत्य में अद्वितीय थी।
लेकिन मिस्र, यूनान और रोम में प्राचीन सभ्यता की निरंतरता कायम नहीं रह पायी। परन्तु भारत में यह आज भी कायम है। आज भी इसके जीवन पर पुरानी संस्कृति की छाप मौजूद है। इस तरह भारत में एक सांस्कृतिक निरंतरता बनी रही जिससे उसका प्राचीन अस्तित्वबोध आज भी कायम है। इस निरंतरता के दो कारण रहे हैं। पहला तो यह कि भारत में अनेक मानव समुदायों के विशेष तरह के पारस्परिक संबंध। दूसरा उन आदर्शों का चुनाव जो भारतीय जीवन को संचालित करते रहे। पहले कारण में विभिन्न कबायली समूह के आपसी संबंध शामिल है। भारत में यह संबंध यूरोप और दुनिया के अन्य मुल्कों से भिन्न था। यूरोप में जब एक कबायली समूह एक जगह से दूसरी जगह गया तो उसने वहाँ के प्राचीन बाशिन्दें को या तो भगा दिया या खत्म कर दिया। इसके विपरीत भारत में हजारों वर्ष से विभिन्न कबायली समूह आते रहे और पुराने कबीलों के साथ अक्सर एक खास तरह की जातीय व्यवस्था कायम कर बस गए। इस क्रम में कोल, द्रविड़, आर्य, शक, हूण, पठान, तुर्क, अरब, सिथियन आदि अनेक प्रजातियों के कबीले भारत आए और भारत की जीवनधारा में मिलकर विलीन हो गए। इससे एक दूसरे के रीति-रिवाजों, पूजा-पाठ, देवी-देवताओं आदि को बरदाश्त करने की और समझने की परम्परा बनी रही। यही वह राजनीतिक आधार है जिस पर भारतीय विश्वासों की पारस्परिक सहिष्णुता कायम हुई है। आगे चलकर इससे वह परम्परा बनी जिसमें धार्मिक मतभेदों को खत्म करने के लिए तलवार के बजाय विवादों और शास्त्रार्थों का सहारा लिया जाने लगा। भारतीयता का यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसी सहन करने और जज्ब करने की शक्ति से भारत भारत बना रहा।
भारत की अस्मिता बनाए रखने में दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज थी, जीवन के आदर्शों का चुनाव। भारतीय आदर्शों में बाहरी वस्तुओं के बजाय आन्तरिक उपलब्धियों पर अधिक जोर दिया गया है! इससे भारत के दर्शन और धर्म में संतोष, आत्मनियंत्रण, निःस्वार्थ सेवा, अपरिग्रह आदि केन्द्रीय मूल्य बन गए। इस तरह के विचार उपनिषदों, पुराणों, बौद्ध और जैन सभी धर्मों में प्रधान है। कालान्तर में इस्लाम के आने के बाद भारतीय धर्मो और इस्लाम के प्रभाव से सूफी संत कवियों की एक परम्परा चली तो उसमें भी इन्हीं तत्त्वों को प्रधानता मिली।
किसी देश के वास्तविक चरित्र एवं उसकी प्रेरक शक्ति की अभिव्यक्ति उसके आदर्श पुरुषों के चुनाव में होती है। मिस्र की महानता उसकी पुरोहित सम्राटो (फेरो) की उपलब्धियों में है। यूनान की ख्याति सिकन्दर महान की उपलब्धियों तथा रोम की गरिमा की परिणति जुलियस सीजर के विजय अभियानांे में होती है। भारत की स्थिति बिल्कुल अलग थी, हमारा आदर्श पुरुष कोई योद्धा नहीं रहा, शिवि, दधीचि, बुद्ध और अशोक रहे। शिवि और दधीचि ने अपना मांसहाड़ देकर भी शरणागतों की रक्षा की। बुद्ध ने तो सम्पूर्ण जीव जगत के लिए करुणा का पाठ सिखाया। अशोक ने हथियार त्याग कर प्रेम और अहिंसा के बल पर संसार का दिल जीतने में अपना जीवन लगा दिया।
इस प्रकार हम पाते हैं कि भारतीयता शारीरिक भौतिक उपलब्धियों की जगह उन आध्यात्मिक उपलब्धियों की तरफ रुझान है जो हमें पशु से अलग करती है। यह ज्ञान-विज्ञान, कला संगीत आदि की तलाश हो सकती है। अगर कोई धार्मिक प्रवृत्ति का है तो यह निवृत्ति मार्ग हो सकता है। दोनो ही स्थिति में इससे उपभोक्तावादी और हथियारवादी संस्कृति के विपरीत हमें चेतना के जीवन के तरफ बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। जीवित रहने के लिए भौतिक उपकरणों का होना अनिवार्य है, लेकिन भौतिक उपकरणों को जीवन का लक्ष्य मान लेना पशुवत् बन जाना है। यही भारतीयता का मूल पाठ है।
आज की बाजारवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के दौर में भारतीयता निशाने पर है। महात्मा गांधी इस मर्म को समझते थे। वह हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के संभवतः अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने इस देश की आत्मा को समझा था, उसका साक्षात्कार किया था। इसलिए हिन्द स्वराज्य में उन्होंने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के बारे में आगाह किया था। ‘‘इस सभ्यता की सही पहचान तो यह है कि यह बाहरी दुनिया की खोजों में और शरीर सुख में धन्यता सार्थकता और पुरुषार्थ मानते है। यह सभ्यता दूसरों को नाश करनेवाली और खुद नाशवान है।’’ गांधी जी ने धार्मिक आधार पर राष्ट्र बनाने की कल्पना को खारिज किया था। उन्होंने कहा ‘‘एक राष्ट्र होकर रहनेवाले लोग एक दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते, अगर देते है तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने लायक नहीं है। हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म कि लोग रह सकते हैं उससे वह राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नये लोग उसमें दाखिल होते हैं वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते । वे उसकी प्रजा मंे घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों को समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है।’’
आजादी के बाद देश जिस रास्ते पर चल रहा है वह उसे उपभोक्तावादी और हथियारवादी संस्कृति की गिरफ्त में ला रही है; यह राह न केवल भारतीयता के विरुद्ध है बल्कि आजादी के आन्दोलन काल में देश में जो स्वदेशी और स्वावलम्बन का संकल्प बना था उसे खण्डित कर रही है। गांधी जी की परिकल्पना के स्वतंत्र भारत में धर्म, जाति, वर्ग और लिंग पर आधारित भेदभाव के लिए जगह नहीं थी। आबादी में हिन्दुओं का बहुमत होने के बावजूद भी उन्होंने भारत को धर्मनिरपेक्ष रखने की ताकीद दी। सर्व- धर्म समभाव को हिन्दू धर्म का आधारभूत बताते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता का नारा बुलन्द किया। महात्मा गांधी के विराट दर्शन के कारण ही भारत में मानवीय अधिकारों, धर्म निरपेक्षता और समानता को कानूनी संरक्षण मिला। अस्पृश्यता, भेदभाव और जमींदारी को गैर-कानूनी ठहराया गया।
इस दृष्टि से देश में उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर बढ़ रहा रुझान तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कोई पहल भारतीयता के विपरीत एवं विरोधी है। भारतीयता उपभोक्तावादी संस्कृति के विपरीत सरल स्वस्थ जीवन की आकांक्षा है, जो विश्व शांति एवं बंधुत्व की पोषक है।
अशोक भारत
कृष्णा निकेतन, बलाई कैम्पस
छाता चैक, मुजफ्फरपुर-842001
मो0- 9430918152, 8004438413
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