सरकार के नहीं समाज के नियंत्रण में हो पानी
देश इस समय भीषण जल संकट से जूझ रहा है. आज़ादी के बाद का यह सबसे गंभीर स्थिति है. संसद से सड़क तक इसकी गूंज सुनाई दे रही है. देशभर के अनेक जन संगठनो ने मिलकर 5 मई 2016 को नई दिल्ली में जल सत्याग्रह किया. प्रधानमंत्री ने सूखे से प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकें की हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार से आवश्यक कारवाई तत्काल करने का दिशा निर्देश दिया है.
मराठवाडा (महाराष्ट्र) एवं बुंदेलखंड (म.प्र./उ प्र) से लाखों लोगों को पानी के अभाव में वहाँ से पलायन करना पड़ा है. लातूर में तो प्रशासन को धारा 144 लगानी पड़ी. पुलिस के संरक्षण में वहाँ पानी का वितरण किया जा रहा है. वहाँ टैंकरों से पानी पहुँचाया जा रहा है. उत्तराखंड में 39,309 बस्तियों में से 21,735 रिहाइशी इलाकों में ही मानक के अनुरूप पेयजल पहुँच पा रहा है. राज्य के 45 बड़े जलस्रोत जलाभाव के शिकार हो गए हैं. उनमें 35 से 50 फीसदी जल कम हो गया है. उत्तर प्रदेश की नदियों की स्थिति विकट है. गंगा और यमुना जैसी बड़ी नदियों में पानी सामान्य से बहुत कम है. काली, हिंडन,ईसान जैसी छोटी नदियाँ या तो सूख गई हैं या गंदे नाले में तब्दील हो गई हैं. बिहार जो सरप्लस पानी के लिए जाना जाता रहा है वहाँ जल संचय एवं संरक्षण की स्थिति बहुत ख़राब है. कई स्थान पर जल स्तर 30 से 40 फीट नीचे गिर गया है .राजधानी पटना में गंगा दूर चली गई है और उसके बीच उभरे रेतीले टापू गंगा की दुर्दशा की कहानी कहते हैं. देश के 91 बड़े जलाशयों सिर्फ एक चौथाई पानी बचा है जो पिछले वर्ष इसी अवधि (31 मार्च) की तुलना में 31 फीसदी कम है.
इस समय देश के 13 राज्यों के 300 से अधिक जिलों के 33 करोड़ से ज्यादा आबादी सूखे से प्रभावित है. पहले जब अकाल और सूखे की स्थिति उत्पन्न होती थी तब सुरक्षित भूजल का उपयोग कर महीनों तक पानी की कमी को पूरा किया जाता था. लेकिन पिछले कई सालों में भूजल का इतना दोहन हुआ है कि वह अब सूखे की स्थिति में मददगार नहीं हो सकता. यह एक कड़वी सच्चाई है कि भूजल के दोहन के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है,जो चिंताजनक है. भूजल का दोहन करने के लिए इस समय देश में तीन करोड़ से ज्यादा ट्युबवेल और बोरवेल है. यही कारण कि जमीन के अन्दर का पानी गहरे तक सिमटा जा रहा है. हमारी सरकारों के पास कोई ठोस नीति नहीं है जिससे जलसंरक्षण को बड़ा आयाम दे कर भविष्य में आनेवाली सूखे जैसी किसी भी संकट से निपटा जा सके. देश में 80 फीसदी सिचाई का पानी भूजल से प्राप्त किया जाता है. इस तरह भूजल का एक बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र में खप जाता है. नदियाँ प्रदूषित हो गई है. 650 से अधिक शहर प्रदूषित नदियों के किनारे बसे हैं. इस प्रदूषण से भूजल भी प्रदूषित होता है. 50 फीसदी से अधिक भूजल प्रदूषित है. भूजल में 276 जिलों में फ्लोराइड, 387 जिलों में नाईट्रेट और 86 जिलों में आर्सेनिक की मात्रा अधिक है. 66 हज़ार से अधिक ग्रामीण बस्तियों में पेयजल स्रोत प्रदूषित हैं. पांच वर्ष से कम उम्र के 10 फीसदी बच्चे भारत में दूषित जल से होनेवाली बीमारी डायरिया से मरते है. 45 फीसदी डायरिया से होने वाली मौत का सम्बन्ध भारत से है.10 करोड़ भारतीय प्रदूषित जल वाले क्षेत्र में रहते हैं. सुरक्षित जल की अनुपलब्धता के साथ जीवन व्यतीत करने वाली सबसे बड़ी आबादी भारत में है.
सूखे के कारण देश में विद्युत उत्पादन पर भी व्यापक असर पड़ा है. राज्य स्तरीय उत्पादन केन्द्रों में विद्युत उत्पादन में 20 फीसदी (फरवरी) की कमी आई है. 10 दिनों तक बंगाल स्थित फरक्का विद्युत उत्पादन केंद्र मार्च में पानी की कमी के कारण बंद करना पड़ा .इस केंद्र की उत्पादन क्षमता 2300 मेगावाट है. फरक्का केंद्र के कर्मचारियों के लिए पानी बाहर से मंगाने की नौबत आ गयी थी. उत्पादन केंद्र तक कोयला ले जाने वाली नावें फँस गयी थी क्योकि यातायात के लिए गंगा और उसके नहर में पानी नहीं था. भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1000 घन मीटर है, जबकि चीन में 2000 तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में यह 5000 के पास पहुँच गयी है. 1951 में भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 3400 घन मीटर थी. स्पष्ट है हम आगे के बजाय पीछे जा रहे हैं. हमारे विकास के नारे सियासी ढोंग हैं क्योकि जल के बिना कोई सभ्यता या समाज फल-फूल नहीं सकता.
इस सूखे के कई कारण हैं. पहला पिछले दो साल में देश में बारिश सामान्य से कम हुई है वहीं देश में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के विस्तार के कारण पानी की मांग लगातार बढ़ रही है. हम बारिश के पानी को सुरक्षित और संरक्षित नहीं कर पा रहे है, जिससे पानी की किल्लत दिन प्रतिदिन बढती जा रही है. आमतौर पर सामान्य से 25 फीसदी बारिश कम होने पर सूखे की स्थिति बनती है.लेकिन देश में कई स्थानों पर 10-12 फीसदी कम वर्षा होने पर भी सूखे की स्थिति पैदा हो गयी है. इसका कारण उद्योग हमारा बहुत बढ़ गया है और उसे विकास के लिए लगातार बढ़ाना है. देश को विकसित जो होना है. भूजल के दोहन से उसका स्तर नीचे चला गया है. भारत के ग्रामीण इलाके में पीने के पानी के रूप में 85 फीसदी भूजल का उपयोग होता है जबकि शहरी क्षेत्र में भूजल की हिस्सेदारी 55 फीसदी है. देशभर में औद्योगिक घराने और कंपनियों में बड़े पैमाने पर जो पानी का इस्तेमाल होता है उसका भी 50-60 फीसदी भूजल से आता है. लेकिन भूजल का इस्तेमाल हमारे लिए स्थायी नहीं है, क्योकि इसका लगातार भारी मात्रा में दोहन जारी है. यही कारण है कि भूजल की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है और यह गहरी जमींन में सिमटता जा रहा है.इस सिमटाव के कारण ही कई क्षेत्रों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी है सबसे बड़ी बात यह कि इससे भूजल की गुणवत्ता भी बिगड़ रही है. सूखे का एक कारण जलवायु परिवर्तन भी है. जलवायु परिवर्तन के कारण ही देश में मॉनसून और बारिश होने का पैटर्न बदल रहा है. खेती के लिए जब बारिश चाहिए तब नहीं होती लेकिन जब फसल किसी तरह तैयार होती है तभी बारिश आकर पूरी फसल बर्बाद कर देती है. एक साथ कहीं ज्यादा बारिश होती है और कहीं कई महीनो तक बारिश की एक बूंद भी नहीं टपकती
आज सूखे की समस्या से निजात पाने के लिए नदी जोड़ योजना की बात की जा रही है. सरकार और न्यायपालिका इसपर एकमत हैं. लेकिन नदी जोड़ परियोजना के परिणाम देश के लिए विनाशकारी साबित होंगे. आज़ादी के पहले एवं बाद में बनाने वाले बाँधों के बारे कहा गया कि ‘बांध अकाल एवं बाढ़ को नियंत्रित करेगा’. लेकिन अगर स्वतंत्र मूल्याकन हो तो पता चले कि इसतरह के वादें और दावों की हकीकत क्या है? ये दोनों तरह के वादे और दावे किए जाते रहे हैं जो कभी पूरे नहीं हो पाए. संयुक्त राज्य अमेरिका में इस प्रकार के योजनाओं के दुष्परिणाम सामने आ चुके हैं. टिनेसी वैली की परियोजना 1940 में पूरी तरह विफल हो चुकी थी. कोलोराडो की परियोजना से लेकर मिसिसिपी घाटी तक बड़ी संख्या में नदी घाटी परियोजनाएँ गाद भर जाने के कारण बाढ़ का प्रकोप बढ़ाने लगीं और जलविद्युत का उत्पादन समाप्तप्राय हो गया. बाद में उनके किनारे थर्मल पॉवर स्टेशन लगाये गए. लेकिन अंततः उनके बांधों को तोड़ना पड़ा.1999 से 2002 के बीच 100 से ज्यादा बांधों को तोड़ा गया. उसके बाद भी बांधों को तोड़ने का काम जारी है. यह काम भी काफी खर्चीला है.नदी जोड़ से गंगा जैसी विशाल नदी तालाबों में बदल जाएगी और उसके जल की गुणवत्ता समाप्त हो जाएगी. तबाही की यह योजना हमें कर्ज के जल में डाल देगी. नदी कोई रेल गाड़ी नहीं है कि इसे दो पटरियों के बीच चलाया जाय. हर नदी का अपना जीवन चक्र होता है. उसे छेड़ा नहीं जा सकता. प्रकृति की बनावट और बुनावट को छेड़ने का हमें कोई हक नहीं. असल में प्रकृति के साथ हमें ढलना है. प्रकृति को अपने अनुरूप ढालने की चेष्टा प्रलंयकारी साबित होगी.
इस सन्दर्भ में पर्यावरणविद अनुपम मिश्र का बयान गौर करने लायक है.वे कहते हैं कि ‘अकाल और बाढ़ अकेले नहीं आते. इससे बहुत पहले अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है. इसी तरह बाढ़ से पहले बुरे विचारों की बाढ़ आती है. वे केवल विचार तक सीमित नहीं रहते, वे काम में भी बदल जाते हैं. बुरे काम होने लगते हैं और बुरे काम बाढ़ और अकाल को बढ़ावा देने लगते हैं.’आज सचमुच में हमारे समाज में अच्छे विचारों का अभाव होने लगा है और बुरे काम होने लगे हैं. तभी तो हमने हजारों वर्ष से चली आ रही वैज्ञानिक एवं श्रेष्ठ जल प्रबंधन एवं संरक्षण की व्यवस्था चाल,ताल,खाल,तालाब,तलैया आदि को पूरी तरह से नकार दिया है, जो आज के संकट का मुख्य कारण है. और समाधान के रूप हम नदी जोड़ परियोजना की बात कर रहे हैं जो संकट को और बढ़ाने वाला साबित होगा. पानी की परम्पराओं को कोई भी वर्तमान व्यवस्था चुनौती नहीं दे सकती. इन्ही परम्पराओं में तालाब भी एक है जिनके विज्ञान एवं व्यवस्था समझने में हमने गलती की है. मैदानी इलाके में तालाब एवं पहाड़ों में ताल व खाल इसके ही स्वरूप है. दरअसल घर-गाँव के तालाब को मारने के पीछे वर्तमान सरकारी जल वितरण की व्यवस्था ही रही है. नलकों,नहरों और नलकूपों की पानी की नई पीढ़ी ने तालाबों को पीछे छोड़ने की कोशिश की है.तालाबो के बिगड़ते स्वरूप पर मौका मिलते ही अवसरवादी बिल्डर माफियाओं ने उसे घेरकर कंक्रीट के जंगल खड़ें कर दिए.
सूखे की स्थिति से निपटने के लिए जल संरक्षण बहुत जरूरी है. जल संरक्षण के लिए सरकारी नीतियों की जितनी जरूरत है उतनी ही जरूरी इस बात भी है कि नागरिक समाज इसकी पहल करे. पहले के ज़माने में हमारा समाज बिना सरकारी मदद के कुएँ,पोखर,तालाब आदि की व्यवस्था करता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. दरअसल पहले के ज़माने में पानी पर किसी का अधिकार नहीं होता था वह सब के लिए था. यानी पहले पानी सबका था अब सरकारी है. पहले लोगो को लगता था कि पानी बचाना तो हम लोगों की जिम्मेदारी है, लेकिन जबसे पानी सरकारी हुआ लोग सोचने लगे कि पानी बचाने की जिम्मेदारी तो सरकार की है. सरकार को चाहिए कि इस नीति को बदले. पानी को लेकर एक ऐसी नीति बनाये कि लोगो को लगे कि पानी बचाना हमसब का काम है.पानी सरकार के नहीं समाज के नियंत्रण में होना चाहिए. जलाशयों के रख रखाव,भूजल संरक्षण,प्रदूषण नियंत्रण,बारिश के पानी का संग्रहण आदि कामों में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी .स्पष्ट है देश गम्भीर जल संकट में घिरता जा रहा है.संकट के समाधान के लिए दो स्तरों पर कार्य करने की आवश्यकता है. पहला सरकारी नीतियों में बदलाव.दूसरा एक राष्ट्रीय अभियान चलाकर लोगों की भागीदारी बढ़ाना.
अशोक भारत
bharatashok@gmail.com
मो. 8004438413
Recent Comments