कोरोना संकट के बाद की आर्थिक दुनिया : चुनौतियाँ और संभावनाएं

कोरोना का कहर पूरे विश्व में जारी है । 1 दिसंबर 2019 को चीन के वुहान शहर में  कोरोना वायरस का पहला केस सामने आया था।  30 जनवरी 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने  इसे दुनिया के लिए पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित किया । 11 फरवरी , 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वायरस को कोविड-19 नाम दिया।  दो-तीन महीने में ही यह वायरस काफी तेजी से पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया । आज दुनिया के 188 देशों में कोविड19 महामारी  अपना पैर फैला चुका है।   क्या अमीर,  क्या  गरीब, क्या  विकसित ,क्या विकासशील सभी देशों में कोविड-19 महामारी फैल  चुका है । सभी देश  इसके सामने बेवस हैं।

चूकि यह नया  वायरस है इसके बारे में अभी बहुत कम जानकारी उपलब्ध है । अभी तक यह पता नहीं चल सका है यह वायरस मनुष्यों में कैसे फैला?  कुछ लोग यह मानते हैं कि यह वायरस चमगादर से मनुष्य में फैला है।  कुछ लोग इसे अप्राकृतिक मानते हैं और चीन को इस वायरस के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं।  यह बात सही  है कि शुरू में  चीन ने इसे छिपाया था और इस बीमारी से होने वाले मौत का आंकड़ा भी कम  करके बताया था।  लेकिन चीन ने उस पर लगे सभी आरोपों से इनकार किया है।  जो भी हो अभी तक कोरोना वायरस के स्रोत का पता नहीं चला है।  इस वायरस का अभी तक कोई दवा या टीका उपलब्ध नहीं है।  हालांकि दुनिया के अनेक देशों में इस पर शोध कार्य चल रहे हैं। जानकारों का ऐसा मानना है  कि  दवा या टीका बनने में लगभग डेढ़ से ढाई वर्ष का समय लग सकता है।

चूकि  अब तक  इस बीमारी के उपचार के लिए कोई दवा भी उपलब्ध नहीं है विश्वास संगठन ने इसके लिए आवश्यक दिशा निर्देश जारी किए हैं । जिसमें टेस्टिंग,  कन्ट्रैक्ट ट्रेसिंग, सैनिटेशन ,आइसोलेशन,  सोशल डिस्टेंसिंग आदि शामिल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी कहा है कोविड-19 जल्द जाने वाला नहीं है । यह बात गौर करने लायक है  कि 80 फ़ीसदी कोरोना  संक्रमित मरीज सामान्य उपचार के बाद ठीक हो जाते हैं । लगभग 15 फ़ीसदी मरीज को विशेष उपचार की जरूरत होती है। सिर्फ पांच फ़ीसदी मरीजों को गहन चिकित्सा की आवश्यकता होती है उन्हें आईसीयू , वेंटीलेटर की सुविधा उपलब्ध कराना होता है।  खासकर उम्रदराज लोगों जो अन्य बीमारियों से पीड़ित है के लिए यह बीमारी ज्यादा खतरनाक है ।उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सेवा की आवश्यकता होती है।

दुनिया की  तमाम सरकारों ने संक्रमण के चेन को तोड़ने के लिए लॉक डाऊन का सहारा लिया है।  हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि उसने लॉक डाऊन के लिए कभी सुझाव नहीं दिया ।   लॉकडाऊन  से  दुनिया का  आर्थिक चक्का जाम हो गया है। अर्थव्यवस्था चरमरा गई है।  दुनिया भारी आर्थिक संकट में फंसती नजर आ रही है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह सबसे बड़ा संकट है । विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की अर्थव्यवस्था 1930 के महामंदी के बाद सबसे बड़े संकट में है । 95 फ़ीसदी अमेरिकन घरों में बंद है ।  अमेरिका में  3.86  करोड़ लोगों ने  बेरोजगार भत्ते के लिए आवेदन दिया है यह संख्या बढकर 4 करोड़ तक जा सकता है।  हर 6  में से एक कर्मचारी को नौकरी से हाथ धोना पड़ रहा है।  अमेरिका ने  3  ट्रिलियन डॉलर( यानी 226.5 लाख करोड़  रुपए)  के  राहत पैकेज जारी किया है।   जिसमें 75000 डॉलर  या इससे कम कमाई वालों को 1200 डॉलर  प्रति व्यक्ति तथा डेढ़ लाख से कम कमाई वालों को 2400 डॉलर   प्रति व्यक्ति  इसमें प्रावधान है।  छोटी कंपनियों के लिए 35000 करोड़ डॉलर  का इमरजेंसी फन्ड, छोटी कंपनियों के लिए 25000 करोड़ डॉलर  का  एंप्लॉयमेंट इन्श्योरेंस बेनिफिट , 50000 करोड़ डॉलर संकटग्रस्त कंपनियों को ऋण  के रूप में,  नौकरी जाने पर पति पत्नी को 2400 डॉलर है और बच्चे को 500 डॉलर दिया जाएगा । साथ में सेंट्रल बैंक ने शून्य ब्याज दर पर  4 ट्रिलियन डॉलर कर्ज  देने की घोषणा की है ,ताकि इस महामारी के कारण ठप पड़ गई अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाया जा सके।

लंदन के किंग्स कॉलेज में विकास का अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले एंड्रयूज सुमनर  के अनुसार कोविड-19 महामारी से  ब्रिटेन के 5 लाख  लोग गरीबी रेखा के नीचे आ सकते हैं।  जर्मनी ,फ्रांस, ब्रिटेन , स्पेन और इटली की सरकारों ने तीन करोड़ से ज्यादा कामगारों को सरकारी सहायता प्रदान की है।  ब्रिटेन ने 400 अरब डॉलर का राहत पैकेज की घोषणा की है, जो देश के जीडीपी का 15 फ़ीसदी है।  इसमें टैक्स रियायत,  तरह-तरह के अनुदान , कारोबारियों को सस्ता कर्ज आदि शामिल है।  इसी प्रकार इटली ने 28  अरब डॉलर की राहत पैकेज की घोषणा की है ,जिसमें विमान सेवा एलिटालिया का राष्ट्रीयकरण भी शामिल है।  फ्रांस का राहत पैकेज 50 अरब डॉलर का है ,जो जीडीपी का 2 फ़ीसदी है ।ऑस्ट्रेलिया का राहत पैकेज 66 अरब डालर का है।  न्यूजीलैंड का राहत पैकेज 12 अरब डॉलर का है, जो उसके जीडीपी का 4 फ़ीसदी है ।सिंगापुर ने 60 अरब डॉलर का राहत पैकेज दिया है। इस महामारी के कारण नौकरी गंवाने वालों में ज्यादातर युवा और महिलाएं  हैं। रोज कमाने वालों के लिए लॉक डाउन का मतलब है उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है।  इस महामारी से गरीब लोग और गरीब हो जाएंगे।

भारत में स्थिति और भी विषम है।  वर्तमान संकट से पहले ही भारत में  मांग आधारित सुस्ती आ चुकी थी।  कोविड-19 संकट के आने से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था नॉमिनल जीडीपी के आधार पर 45 साल के न्यूनतम स्तर पर थी रियल जीडीपी के आधार पर एक 11 साल के न्यूनतम स्तर पर थी।  बेरोजगारी की दर पिछले 45 साल में सबसे अधिक थी।  पिछले साल के आर्थिक सूचकांक को देखें तो ऑटोमोबाइल सेक्टर, रियल एस्टेट, लघु उद्योग समेत तमाम उद्योग में सुस्ती छाई हुई थी । भारत के वर्तमान आर्थिक संकट को समझने के लिए बेहतर यही होगा कि पिछले 2 वर्षों से जारी आर्थिक संकट को भी संज्ञान में लिया जाए तभी कोविड-19 संकट के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को तेजी से बढ़ाने के लिए एक मजबूत नीति का निर्माण हो सकेगा।

भारत में लॉक डाऊन 25 मार्च,  2020 से लागू है।  24 मार्च को राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री ने 21 दिनों में कोरोना पर विजय प्राप्त करने का संकल्प व्यक्त किया था।  आज लॉक डाऊन लागू किए 60 दिन से ज्यादा हो रहे हैं । भारतीय अर्थव्यवस्था एक गहरे  संकट की ओर बढ़ रही है।  भारत के कपड़ा उद्योग में 10 करोड़ लोग काम करते हैं। जिसमें 80 लाख  महिलाएं हैं। भारत में जीडीपी का  16 फ़ीसदी वस्तुओं  के निर्यात से आता  है ।  कारोबारियों को मजदूरों को देने के लिए पैसा नहीं है।  कच्चा माल खरीदने के लिए पैसा नहीं है । बाहर का आर्डर सब बंद है । वहां से पैसा नहीं आ रहा है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी के द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार लॉक डाउन के वजह से अप्रैल में  12 करोड़ नौकरियां चली गई है । कोरोना संकट से पहले भारत में कुल रोजगार आबादी की संख्या 40.4 करोड़  थी जो इस संकट में घटकर 28.5 करोड़ हो गई  है। लॉक डाउन के कारण पिछले 60 दिनों में दैनिक जीडीपी के संदर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था को 480  अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है।  दैनिक जीडीपी लगभग 8अरब डॉलर  का हो सकता है । ट्रैवेल और हास्पीटलिटी की सेक्टर में 3.8 करोड़ नौकरियों जाने का खतरा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझी जानेवाली एमएसएमई की छोटी फैक्ट्रियां बंद है और बहुत कम श्रम शक्ति पर काम कर रही है । विनिर्माण क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इकोनॉमिक्स टाइम्स के एक  सर्वे के अनुसार देश के प्रमुख सेक्टर में 7करोड़ नौकरियां जाने का संकट है।

लॉक डाउन का सबसे बुरा असर अनौपचारिक क्षेत्र पर पड़ा है।  हमारी अर्थव्यवस्था में   जीडीपी का  50 फीसदी   अनौपचारिक क्षेत्र से आता है।  यह क्षेत्र लॉक डाउन के कारण काम नहीं कर सकता । वह कच्चा माल नहीं खरीद सकता ।बना माल बाजार में नहीं भेज सकता । कमाई बंद है।  भारत में नई समस्या रिवर्स माइग्रेशन उभर कर आया है।  यह  दो स्तरों पर हो रहा है । लोग शहर से गांव की तरफ लौट रहे हैं दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी भारी संख्या में कामगार भारत लौट रहे हैं क्योंकि , वहां काम नहीं है । अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में इमीग्रेशन रोकने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। अब आने वाले कुछ दिनों में अमेरिका में किसी बाहरी व्यक्ति को रोजगार के अवसर प्राप्त नहीं होंगे।  यानी कोविड-19 के कारण खत्म हो रहे नौकरियों में अमेरिकी सरकार स्थानीय लोगों को रोजगार देगी।

सबसे बुरा हाल  दिहाड़ी मजदूरों का  है। उनके काम धंधे बंद हैं। उनके पास कोई सेविंग नहीं है।  वे भुखमरी का सामना कर रहे हैं। इस लॉक डाउन ने  पहले से ही पस्त कृषि क्षेत्र की कमर तोड़ दी है।   नगदी फसल सब्जी, फल आदि उत्पाद  किसान बेच नहीं पा रहा है। आईएमएफ  की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में मध्यम वर्ग सिकुड़ रहा है। विश्व बैंक  के अनुसार भारत ही नहीं संपूर्ण दक्षिण एशिया देश गरीबी उन्मूलन से मिले फायदे को गवा  आ सकता है । दुनिया भर में बचत एवं राजस्व के रूप में जमा खरबो डॉलर स्वाहा हो चुका है।  जीडीपी में रोज कमी हो रही है। हेल्थ  इमरजेंसी से ज्यादा इकोनॉमिक इमरजेंसी आने वाली है , जो इस संकट से ज्यादा भयावह और अधिक जानें ले सकता है । विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री हैस टिमर का कहना है कि भारत में आर्थिक परिदृश्य अच्छा नहीं है।  अगर भारत में लॉक डाउन लम्बे समय तक  जारी रहता है तो आर्थिक परिणाम अनुमान से ज्यादा खराब होंगे।  आरबीआई के अनुसार इस वर्ष विकास दर ऋणात्मक हो सकता है। सेंटर इन इंडियन इकोनामी के निर्देशक महेश व्यास के अनुसार यह  – 6 फ़ीसदी तक जा सकता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो कोविड-19 का अभी सबसे बुरा दौर आना बाकी है । इसलिए आज यह  निष्कर्ष निकालना कठिन है कि अर्थव्यवस्था का सबसे बुरा दौर  क्या होगा।

भारत सरकार ने आर्थिक संकट से निपटने के लिए लगभर 21 लाख करोड़ के  आर्थिक पैकेज की घोषणा की है।  सरकार को उम्मीद के आईसीयू में पड़ी  अर्थव्यवस्था के लिए यह  संजीवनी साबित होगा । मगर बहुत से अर्थशास्त्री और विशेषज्ञ इससे  सहमत नहीं हैं।  उनका कहना है कि इस समय लोगों के हाथ में पैसा पहुंचाने की आवश्यकता है ताकि लोग खर्च कर सके । इससे अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगा जैसा कि दुनिया के अन्य देशों की  सरकारों ने की हैं।  मगर इस आर्थिक पैकेज में ज्यादा  जोर क्रेडिट और आर्थिक नीतियों में सुधार  पर  है। पैकेज का छोटा सा हिस्सा  ही राजस्व सहायता(फिस्कल सपोर्ट)  के रूप में लोगों तक पहुंचेगा जो  जीडीपी का लगभग एक फीसदी है।  कर्ज से  समाधान के बजाय समस्या  बढ़ सकती  है । इस समय आवश्यकता है  लोगों  और अर्थव्यवस्था दोनों  को बचाने की  । राजकोषीय प्रबंध लोगों को भूखे रख कर  नहीं  किया जा सकता । अर्थव्यवस्था को चालू रखना है तो नौकरिया देना होगा । मांग का सृजन करना होगा ।  चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को सबसे पहले इस महामारी को फैलने से रोकना होगा।  यह सुनिश्चित करना होगा सभी को भोजन मिल सके।  स्थानीय स्तर पर अस्थाई रोजगार कार्यक्रम पर ध्यान केंद्रित करना होगा।  लघु ,मध्यम और मझोले उद्योग को दिवालिया होने से बचाना होगा।

आपदाएं बदलाव  का अवसर भी प्रदान करती हैं।  2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद ब्राजील में सामाजिक सुरक्षा का नया ढांचा तैयार किया गया।  एशिया में 1990 के दशक के आखिरी में आई आर्थिक सुस्ती के बाद थाईलैंड में सबके लिए मुफ्त स्वास्थ्य व्यवस्था की शुरुआत की गई थी।  पिछली सदी के तीसरे दशक में अमेरिका में आई महामंदी से सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का नया ढांचा का उदय हुआ था।  ब्रिटेन में दूसरे विश्व युद्ध के बाद नेशनल हेल्थ सर्विस की शुरूआत हुई थी । आपदाओं के चलते तमाम समाज  वो   करने के लिए आगे बढ़ते हैं जिनकी कल्पना उससे पहले तक नहीं की जा सकती थी।

तो क्या कोविड-19 महामारी से ऐसे प्रयास की शुरुआत हो सकती है जिससे दुनियाभर में फैली  असमानताएं मिटेंगी  और जनता के बीच बराबरी  बढेगी।  गौर करने लायक बात यह है इस महामारी से उत्पन्न समस्याओं का समाधान सरकारें  निकाल रही हैं  बाजार इन मुश्किलों  का समाधान नहीं सुझा रहा है । तो क्या हमें ज्यादा सक्रिय सरकारों की मांग करनी चाहिए ?  ग्लोबल जस्टिस नाऊ   नाम की संस्था से जुड़ी सामाजिक अधिकार और पर्यावरण कार्यकर्ता डोरोथी गुएरेरो  का मानना है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम की योजना पर विचार करने का समय आ गया है।  उल्लेखनीय है कि हाल ही में  पोप फ्रांसिस ने इस्टर रविवार को लिखे  खत में कहा था कि शायद अब वह समय आ गया है जब हम  हर व्यक्ति को कुछ बुनियादी आमदनी तय करने के प्रस्ताव के बारे में सोचें।  इससे आप जो अच्छा और जरूरी कार्य करते हैं उसमें नैतिक बल  मिलेगा।

इटली के कामगार अब ज्यादा वेतन की मांग कर रहे हैं उन्हें सामाजिक सुरक्षा के उपाय भी चाहिए । यह अब दान पुण्य का काम नहीं रह गया है यह  लोगों की जरूरत और उनका अधिकार बन गया है।  रिसर्च बताते हैं कि यही असर स्पेनिश फ्लू का हुआ था । उस महामारी के कारण मोलभाव की शक्ति मालिकों के हाथ से निकलकर कामगारों के हाथ में चली आई।

तमाम देशों की सरकारें आगे आने वाले कुछ  महीनों या  वर्षों में जो कदम उठाएगी, वह बेहतर बेहद महत्वपूर्ण होगा होगी । उन्हें यह तय करना होगा कि मंदी का बोझ  कौन उठाएगा?  इस महामारी से संघर्ष कर रहे गरीब, मध्यमवर्ग या फिर अमिर तबका । लंदन में किंग्स कॉलेज में विकास का अर्थशास्त्र पढाने वाले एंड्रयू सुमनर कहते है कि  हो सकता है कि कुछ देशों में इस बात को लेकर  संवेदनशीलता हो कि जिसके पास ज्यादा पैसा हो वह ज्यादा टैक्स भरे।  इससे सब का भला होगा।  या दुनिया एक नए तरह का  रंगभेद यानी आर्थिक नस्लवाद  का शिकार हो जाएगी। आर्थिक मानव विज्ञानी जैसन हिकेल का मानना है कि  यह  इस बात पर निर्भर है तमाम देश इस महामारी से कैसे निटते हैं तथा इस संकट को लेकर राजनीतिज्ञ कौनसा रुख अपनाते हैं। हमें एक ऐसी अर्थव्यवस्था की दरकार है जो दो बुनियादी उपलब्धियां हासिल कर सके।  पहला सामान्य  जन का कल्याण हो  तथा दूसरा इसे पर्यावरण में स्थिरता आए। अगर हमारी अर्थव्यवस्था इन दो लक्ष्यों  को हासिल नहीं कर पाती तो हमें फिर यह सवाल उठाना चाहिए ऐसी अर्थव्यवस्था का मतलब क्या है?

अशोक भारत
8709022550
bharatashok@gmail.com

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