गाँधी–स्मरण — भवानी प्रसाद मिश्र

तुम्हारा रूप,

जैसे जाड़े की धूप,

हल्का और प्रकाशवान

और आकर्षक,

कि खड़े रहो छाया में उस धुप की

घंटो तक,

जी नहीं होता था हटने का.

 

तुम्हारा स्नेह,

जैसे जेठ में मेह,

लगातार

प्राण, मन.नयन पर आभार,

जी नहीं होता था

कि रुक जाता उसका कुछ भी,

क्या बरसना,

क्या परसना,

क्या नव भर में फिरना !

 

तुम्हारा चला जाना,

जैसे जला जाना

प्रलय-काल के सूरज का

देश की हरियाली को,

तब से कुछ नहीं भर पाया है

इस रिक्त को.

 

जहाँ नजरें जाती हैं,

केवल दुःख उठाती हैं,

सुख कहीं नहीं मिलता,

मुरझाया मन-कमल

किसी तरह नहीं खिलता.

 

जानें कब होश आया है हमें,

जाने कब हर बात में

विदेशी विमोहन की जगह

देशीपन भाता है हमें.

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