विकास-नीति पर पुनर्विचार जरूरी
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में देश की जनता से वादा किया था कि देश को भ्रष्टाचार मुक्त करेंगे। नौजवानों के लिए रोजगार पैदा करेंगे, किसानों के साथ न्याय होगा। देश को स्वच्छ एवं पारदर्शी सरकार देंगे। कुल मिलाकर सब के लिए ‘अच्छे दिन’ लाएंगे। यू. पी. ए.-।। की भ्रष्टाचार से त्रस्त और महंगाई से पस्त देश की जनता ने नरेन्द्र मोदी तथा भारतीय जनता पार्टी पर विश्वास कर उन्हें अपार बहुमत से केन्द्र की सरकार बनाने का अवसर प्रदान किया।
वैसे तो एक वर्ष की अवधि किसी सरकार के कार्य को समझने, उसके मूल्यांकन के लिए पर्याप्त नहीं होता, मगर पिछले दिनों किए गए प्रयास एवं पहल से सरकार की प्राथमिकताओं की दिशा का पता तो अवश्य चलता है। वैसे देखा जाए तो देश की मूल समस्या क्या है? 125 करोड़ आबादी वाला इस देश में भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा तथा चिकित्सा सुविधाओं की पहुंच सब लोगों तक हो, यह एक बड़ा सवाल है। गरीबी और बेरोजगारी आज भी मुख्य चुनौती बनी हुई है। पिछले 65 वर्षो में केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने इन समस्याओं को हल करने का वादा किया, गरीबी हटाओं जैसे लुभावने नारे भी चुनाव में उछाला गया, मगर इस मूल समस्या के समाधान में पूर्ववर्ती सरकारें नाकाम रही हैं। अब उम्मीद की किरणें ‘अच्छे दिन’ का वादा करने वाली नरेन्द्र मोदी की सरकार पर टिकी है।
अगर हम सरकार के शुरूआती संकेतों पर नजर डालें तो हमें उम्मीद की किरण कम और शंकाओं के बादल ज्यादा दिखाई पड़ते हैं। नौजवानों ने इस उम्मीद से नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया था कि नयी सरकार उन्हें रोजगार उपलब्ध करायेगी। अभी तक तो सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता कि नौजवानों की उम्मीद और आशाओं के पंख लगेंगे। हाँ यह आवश्यक हुआ है कि केन्द्र में सत्ता सम्भालते ही मोदी सरकार ने सरकारी नौकरियों की बहाली पर प्रतिबंध लगा दिया। इसी को कहते हैं कि ‘सिर मुड़ाते ही ओला पड़ना’। कहाँ तो रोजगार के नये अवसर उपलब्ध कराने की बात थी और शुरूआत हुई रोजगार पर पाबंदियों से। अपनी निराशा व्यक्त करते हुए नौकरी की तैयारी कर रहे गया के संतोष कुमार कहते हंै कि पिछली एन. डी. ए. सरकार में भी नियुक्तियों पर प्रतिबंध था और इस बार भी वही हुआ।
अब सरकारी पक्ष और उनके समर्थक यह दावा कर रहे है कि ‘मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम से बहुत सारे रोजगार का सृजन होगा। इस विषय पर हम इस लेख में आगे चर्चा करेंगे। तर्क यह भी दिया जा रहा है कि नयी सरकार के आने से एफ. डी. आई. में लगातार वृद्धि हो रही है जो अन्ततः विकास दर और रोजगार को बढ़ावा देगा। अगर विकास दर 10-12 प्रतिशत की रफ्तार पकड़ती है तो रोजगार के अवसर अवश्य बढेगी। लेकिन प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं लेखक भरत झुनझुनवाला ने अपने शोध में यह पाया है कि एफ. डी. आई. से रोजगार के अवसर में वृद्धि के बजाए कमी आती है। असल में एफ. डी. आई. के कारण रोजगार के जितने नये अवसर पैदा होते हैं उससे कहीं ज्यादा नई टेक्नोलाॅजी एवं स्पद्र्धा के कारण परम्परागत स्वरोजगार में लगे लोगों के रोजगार खत्म हो जाते हैं। फिर नयी तकनीक और पूंजी प्रधान उद्योग धन्धों से एक खास किस्म के प्रशिक्षित एवं दक्ष लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध होता है। उनलोगों को नहीं जिनके रोजगार नयी प्राद्योगिकी एवं भारी पूंजी निवेश पर आधारित उद्योग-धन्धों के कारण उजड़ती है।
विकास का अर्थ सिर्फ उच्च तकनीक एवं भारी पूंजी निवेश से उद्योगों-धन्धों का विकास क्यों माना जाता है? भारत जैसे श्रम बाहुल्य देश में विकास का यह माॅडल कितना व्यवहारिक है। विकास के नाम पर हम ऐसी नीति का समर्थन कैसे कर सकते हैं जिस विकास में किसान, आदिवासी, कारीगर समाज अपने घरों, संस्कृति और समाज से उजड़ते हो? विकास के जिस पश्चिमी माॅडल को सरकार अपना रही है वह आज अमेरिका, यूरोप समेत पूरी दुनिया में गहरे संकट में है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी मंदी के चपेट में है, यूरो जोन संकट से जूझ रहा है, चीन की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ गयी है वैसी स्थिति में केंद्र सरकार विकास के उसी माॅडल का अपना रही है जिसकी सीमायें जग जाहिर है। इस विकास के खिलाफ कुछ वर्ष पूर्व यूरोप एवं अमेरिका के नौजवानों ने ‘अकुपायी द वाल स्ट्रीट’ का आन्दोलन चलाया था जो पूरी दुनिया में फैल गया। युवाओं का कहना है कि एक प्रतिशत लोग 99 प्रतिशत लोगों की हितों के अनदेखी कर रहे हैं। इसलिए इस विकास नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्रपिता महात्मा गंाधी की खूब चर्चा करते हैं। अभी हाल ही में जर्मनी में उन्होंने कहा था कि जलवायु परिवर्तन तथा आतंकवाद का समाधान गांधी विचार में है। प्रधानमंत्री की सोच बिल्कुल सही है। सवाल सिर्फ इतना है कि वे गांधी विचार का उपयोग इस देश मंे क्यों नहीं करना चाहते। गांधी जी ने आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय के बिना स्वराज्य को अधूरा माना था। पिछले 65 वर्ष के विकास यात्रा का अनुभव यह बतलाता हैं कि मौजूदा विकास में विषमता के बीज मौजूद है जिसने सामाजिक तनाव, बिखराव को आधार प्रदान किया है। क्या यह सही समय नहीं है कि हम अपने विकास नीति पर पुनर्विचार करें? यह रास्ता गांधी विचार होकर गुजरता है। देश का सही विकास तो तभी माना जायेगा जब समाज का अंतिम व्यक्ति यह महसूस करें कि यह उसका देश है और उसके विकास में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह तभी सम्भव है जब हम विकेन्द्रीत अर्थव्यवस्था एवं राजनीति की ओर जाए। उत्पादन विकेन्द्रित हो। इसके लिए गाँव-गाँव में लधु, कुटीर एवं गृह उद्योग को स्थापित करें। उत्पादन लोगांे की आवश्यकता के अनुसार हो न कि लाभ कमाने की लालसा से। तभी मनुष्य, समाज और प्रकृति के बीच सामनजस्य स्थापित कर साम्य में जिया जा सकता है। जीवन के मूल आवश्यकता जल, जंगल, जमीन, पहाड़ आदि प्राकृतिक विरासतों का विवेकपूर्ण उपयोग करते हुये आनेवाली पीढि़यों के लिए संरक्षित किया जा सकता है। हमें मास प्रोडक्शन के बजाय प्रोडक्शन बाई द मासेज की बात करनी होगी। दुनिया के साथ हमारा रिश्ता महाशक्ति का नहीं भाईचारा का होगा, तभी हम सही मायने में विकसित राष्ट्र कहलाने के योग्य होंगे। क्या देश के नीति निर्माता इसके लिए तैयार हैं?
अशोक भारत
कृष्णा निकेतन, बलाई कैम्पस,
छाता चैक, मुजफ्फरपुर – 842001
मो.ः 9430918152, 8004438413
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