तापमान वृद्धि से तीन अरब आबादी होगी संकट में

पिछले महीने बिजनौर के निकट गंगा नदी में डॉल्फिन देखी गई यानी गंगा निर्मल हुई । जो काम पिछले कई दशकों से अरबों रुपये खर्च करने के बाद भी नहीं हो सका वह लॉक डाउन के दौरान देखने को मिल रहा है।  दिल्ली में यमुना का पानी भी साफ हुआ है।  नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने  केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और  दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को आदेश दिया है कि तालाबंदी के दौरान यमुना नदी के पानी के साफ होने की रिपोर्ट पेश करें । राजाजी नेशनल पार्क का  हाथी हर की पौड़ी ,हरिद्वार  के नजदीक गंगा  में स्नान करते  देखा गया। हर  समय  धुए से काला दिखने  वाला दिल्ली जैसे महानगरों का आसमान नीला दिखाई देने लगा है और शाम को तारे चमकने लगे हैं।  बीबीसी हिंदी के संवाददाता दिव्या आर्य  कहती हैं कि मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूं दिल्ली इतना साफ कभी नहीं था। वायु प्रदूषण का मुख्य कारण हवा में कार्बन डाइऑक्साइड की उपस्थिति  है । स्वीडेन के रिसर्चर्स किंबोले निकोलस के एक अध्ययन के अनुसार वायु प्रदूषण  में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा  का 23 फीसदी हिस्सा परिवहन के कारण  है इसमें निजी वाहनों और हवाई जहाज के कारण होने वाले प्रदूषण का हिस्सा 72 फीसदी है। दिल्ली में प्रतिदिन दूसरे शहरों से 11 लाख गाड़ियां दूसरे आती हैं। तालाबंदी के कारण कल कारखानें , परिवहन का सब बंद थे  इसलिए प्रदूषण के स्तर में काफी कमी देखने को मिल रही हैं। यही स्थिति अन्य शहरों की भी है । अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पिछले साल की तुलना में प्रदूषण  के स्तर में 50 फ़ीसदी की कमी आई है। चीन  , जो दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करता है,  में भी 25 फ़ीसदी की कमी देखी गई । प्रदूषण में कमी के कारण दिल्ली में सांस की तकलीफ की बीमारियों में कमी आई  है। अनुसंधान बताते हैं कि वायु प्रदूषण के कारण प्रति वर्ष  दुनिया भर में 70  लाख लोगों  की मौत होती और आयु 3 वर्ष कम हो जाती है। लॉक डाउन में आर्थिक गतिविधियां ठप्प है।  जिससे प्रदूषण के स्तर में  कमी आई है।हवा साफ हुआ है ।नदिया निर्मल हुई।

लेकिन पर्यावरणविदों  का मानना है कि लॉक डाउन के खत्म होते ही आर्थिक क्रियाकलापों में तेजी आएगी और प्रदूषण का स्तर पहले से भी ज्यादा खराब हो सकता है।  2008-9 के मंदी के कारण भी प्रदूषण के स्तर में कमी आई थी लेकिन बाद में   तेजी से बढ़ गई।  पेरिस कन्वेंशन के बाद भले ही दुनिया कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के स्तर में कमी की कवायद में लगी है मगर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया 3 डिग्री तापमान में वृद्धि की तरफ बढ रही है।  ग्लोबल वार्मिंग की  वजह से  अगर दुनिया का औसत तापमान तीन डिग्री बढ गया  तो दुनिया की   एक बड़ी आबादी को  इतनी गर्मी से रहना होगा कि वे जलवायु की सहज  स्थिति से बाहर हो जाएंगे।

यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सलेटर में ग्लोबल सिस्टम इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर और जलवायु विशेषज्ञ टिम लेंटन की इस  स्टडी में चीन,  अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों ने भाग लिया।  इस अध्ययन के अनुसार 2070  तक 3 अरब से भी ज्यादा लोग ऐसी जगह पर रह रहे होंगे जहां का तापमान रहने लायक नहीं होगा । पर्यावरण  की यह स्थिति उस कम्फर्ट जोन से बाहर होगी जिस माहौल में लोग पिछले 6000 वर्षों से रह रहे हैं। टिम लेंटन कहते है कि  समंदर की तुलना में जमीन ज्यादा तेजी से गर्म होगी । इसलिए जमीन का तापमान 3 डिग्री ज्यादा रहेगा।  पहले से गर्म जगह पर आबादी के बढ़ने की भी संभावना है।  इसमें  सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में पड़ने  वाले अफ्रीका महादेश के  ज्यादातर इलाका होंगे।

गर्म जगहों पर ज्यादा सघन आबादी देखने को मिल रही है।  इन गर्म जगहों पर गर्मी और बढ़ रही है।  इसलिए 3 डिग्री ज्यादा गर्म दुनिया में औसत 7 डिग्री अधिकतम गर्म परिस्थितियों में जीना पड़ेगा।  जिन इलाकों में इस बदलाव से प्रभावित होने की संभावना है उनमें ऑस्ट्रेलिया, भारत, अफ्रीका , दक्षिण अमेरिका और मध्य पूर्व के कुछ इससे शामिल हैं।  अध्ययन में इस बात को लेकर चिंता व्यक्त की गई है गरीब इलाकों में रहने वाले लोग इतनी तेज गर्मी से खुद का बचाव करने की स्थिति में नहीं है। टिम लेंटन कहते हैं यह अध्ययन अमीरों के बारे में नहीं है जो वातानुकूलित भवनों में रहते हैं और जो किसी भी परिस्थिति में अपने को बचा सकते हैं।  हमें उनकी चिंता करनी है जिनके पास जलवायु परिवर्तन और मौसम से खुद को बचाने के लिए संसाधन नहीं है।  जलवायु परिवर्तन  को अगर नियंत्रित किया जा सके तो  इसके बड़े  फायदे होंगे।  पर्यावरण के कम्फर्ट जोन के  बाहर  रह जाने वाले लोगों की संख्या इससे कम की जा सकेगी। आज जो  तापमान है उसमें होने वाली एक डिग्री की वृद्धि  से एक अरब  लोग प्रभावित होंगे।  इसलिए तापमान में होने वाली वृद्धि  की हरेक डिग्री की  कमी से हम लोगों को रोजी-रोटी में होने वाले बदलाव को काफी हद तक बचा सकते हैं।

आपदाएं बदलाव का अवसर भी प्रदान करती है  तो क्या कोविड-19 संकट से उत्पन्न परिस्थितियों का लाभ हम  पर्यावरण के सेहत में अपेक्षित सुधार के अवसर के रूप में कर सकते हैं । असल में पर्यावरण संकट की  जड़ उस सोच में  है जो ज्ञान ( विज्ञान ) का उपयोग प्रकृति के रहस्य को खोजने , उस पर नियंत्रण करने तथा भोग की अंतहीन लालसा की पूर्ति का साधन मानकर उसका दोहन शोषण में अपनी श्रेष्ठता और  पुरुषार्थ मानता है । हम यह भूल गए हैं कि हम प्रकृति के हिस्सा  हैं और प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर जीने में ही हमारी भलाई । महात्मा गांधी ने इस दिशा में हमें सचेत किया था।  उन्होंने कहा था कि पृथ्वी में  सब लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने का सामर्थ है लेकिन एक भी व्यक्ति की लोभ पूर्ति  करने का सामर्थ नहीं हैं। लेकिन उनकी बातों को अमल में लाने के बजाय हमने भोगवादी  विकास के  मॉडल पर आगे बढते गए  और उन्हें भुलाने में ही अपना  बड़कपन्न समझा। परिणाम स्वरुप हम गहरे संकट में फंसते जा रहे हैं।  आज – पर्यावरणीय असंतुलन को दूर करने के लिए  आर्थिक स्तर पर मूलभूत बदलाव लाने  होंगे।  आवश्यकता  इस बात की है कि  अर्थव्यवस्था और पर्यावरणीय  राजनीति को पारिस्थितिकी सम्मान और न्याय की कसौटी पर नए सिरे से परिभाषित किया जाए।  इसके लिए  उपभोग और जीवनशैली में परिवर्तन करना होगा । क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

अशोक भारत

मो. 879022550

bharatashok @gmail.com

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