महामारी से ज्यादा खतरनाक है महामारी का आतंक

कोविड-19 संकट के कारण पूरी दुनिया में त्राहिमाम मचा है । जनजीवन बुरी तरह प्रभावित है।  चीन के वुहान शहर से शुरू हुआ यह महामारी  पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले चुका है।  क्या अमीर क्या गरीब सभी देश इसकी चपेट में हैं। भारत समेत दुनियाभर की सरकारों ने संक्रमण की श्रृंखला को तोड़ने के लिए लॉक डाउन का सहारा लिया । जिससे दुनिया की आर्थिक गतिविधि थम सी गई।  भारत में 25 मार्च , 2020 को  लॉक डाउन लागू  किया गया  । 24 मार्च की रात 8:00 बजे प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन किया और उसके 3.5 घंटे के बाद लॉक डाउन  लागू कर दिया गया। बिना किसी पूर्व  सूचना एवं पूर्व तैयारी के। जबकि बंगलादेश, न्युजीलैंड आदि देशों की सरकारों ने लॉक डाउन के पूर्व लोगों को इसकी सूचना दी थी और तैयारी भी  की थी।  यहां तक कि राज्य सरकारों से भी कोई  राय मशविरा नहीं की गई।  जबकि लॉक डाउन लागू करने की पूरी जिम्मेवारी राज्य सरकारों पर थी।  भारत  में रोजगार की तलाश  में करोड़ो  मजदूर गांव से  महानगरों और दूसरे राज्यों में जाते हैं। इनमें दिहाड़ी मजदूर, घरों में काम करने वाली महिलाएं,  छोटे-मोटे अपना कारोबार  करने वाले लोग , रेहड़ी  पटरी  पर फल सब्जी आदि की दुकान लगाने वाले तथा  असंगठित क्षेत्र के मजदूर शामिल हैं। इनके पास न तो कोई बचत है और न  सामाजिक सुरक्षा के उपाय । सबसे दुखद और आश्चर्य तो यह है कि जिन मजदूरों के श्रम के कारण उद्योगों और  महानगरों की आर्थिक  चक्का गतिशील है उनका कोई डाटा  सरकार के पास नहीं जिससे उनकी स्थिति का सही सही पता चल सके।

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इन मजदूरों के लिए लॉक डाउन महा विपत्ति और मौत का पैगाम लेकर आया।  काम धंधा सब बंद होने और राज्य व्यवस्था द्वारा उपेक्षित ये  मजदूर लॉक डाउन के कारण  भूखमरी के कगार पर पहुंच गए।  जनता तथा सरकारों द्वारा चलाई गई राहत व्यवस्था नाकाफी साबित हुई। भूख-  प्यास से बेहाल और मकान मालिकों द्वारा निकाले जाने के बाद इन मजदूरों के पास हजारों किलोमीटर दूर अपने राज्यों में पैदल लौटने के सिवा कोई चारा नहीं रहा । मगर हजारों किलोमीटर की पैदल सफर इन मजदूरों के लिए बड़े  त्रासदी और अनेक लोगों  के लिए मौत का सफर साबित हुआ। इन भूखे प्यासे मजदूरों की मदद करने के बजाय व्यवस्था का बहुत ही अमानवीय  और क्रूर चेहरा सामने आया।  कहीं उन पर केमिकल का छिड़काव किया गया , तो कहीं उन पर लाठियां बरसाई गई ,  कहीं उन पर मुकदमा किया गया तो, कहीं गिरफ्तार किया गया।  उनका अपराध सिर्फ यही था कि भूख प्यास से बेहाल वे लोग घर जाना चाहते थे । हद तो तब हो गई जब उत्तर प्रदेश की सरकार ने इन्हें पैदल चलने पर भी रोक लगा दी । हमारी केंद्र और राज्य सरकारों का  इन मजदूरों के प्रति क्या रवैया रहा यह  इस  बात से समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार की तरफ से 31 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में बताया गया कि रोड पर कोई भी मजदूर नहीं है और कोर्ट ने इसे मान भी लिया,  जो सरासर गलत बयान था । उस समय लाखों मजदूर सड़क पर पैदल चल रहे थे। और अखबारों और टीवी में इसे दिखाया जा रहा था । सुप्रीम कोर्ट को 2 महीने लगा अपने पुराने निर्णय को बदलने में।  मई के अंत में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को मजदूरों को अपने खर्च पर घर पहुंचाने का आदेश दिया।  यहां यह  बात गौर करने लायक है कि केंद्र सरकार की तरफ सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने उन पत्रकारों , सामाजिककर्ताओं को जिन्होंने मजदूरों की दयनीय स्थिति की रिपोर्टिंग की उन्हें गिद्ध और कयामत के पैगंबर कहा गया । जो बेहद शर्मनाक और  अफसोस जनक है।

लेकिन बीमारी से ज्यादा खतरनाक साबित हुआ बीमारी का आतंक।   यह लोगों के दिलो  दिमाग पर  इस कदर हावी रहा कि न  रिश्तों  की मर्यादा रही न सामाजिकता का ख्याल।  सब करोना  की आंधी में बह गए ।  इस  महामारी से लोगों की रक्षा करनेवाले चिकित्सकों, स्वास्थ्यकर्मियों, नर्सों,  पुलिसकर्मी के साथ दुर्व्यवहार , यहां तक की उन पर हमले के  भी  अनेक मामलें  सामने आए हैं।  ऐसे अनेक दुखद और मन को व्यथित करनेवाली घटनाएं  इस दौरान घटी   जिसमें  से कुछ का यहां उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। साई हास्पिटल चेम्बुर ,मुम्बई में नर्स सुरेखा जाधव बताती है कि मार्च के अंतिम सप्ताह में उसे 6 दिनों तक ड्यूटी करने के लिए  हास्पिटल में ही रहना पड़ा। इस दौरान 23 मार्च को उसने एक मरीज को  अटेंड किया। 25 मार्च को  उसे हास्पीटल से डिस्चार्ज कर दिया गया। 26 मार्च को उसकी  कोरोना रिपोर्ट पोजिटिव आई। उसके बाद सुरेखा की भी जांच हुई और  रिपोर्ट  पाजिटिव  निकाली । सुरेखा अब ठीक हो गई हैं । उनकी जांच रिपोर्ट नेगेटिव आई है। वे बताती हैं कि इस दौरान लोगों का व्यवहार अत्यंत गैर जिम्मेदाराना, अमानवीय रहा।  वे कहती हैं कि मैंने  अपनी जान जोखिम में डाल कर लोगों की सेवा की । बदलने में लोगों ने उनका राशन बंद कर दिया । उनकी मदद करने वालों के साथ मारपीट की। कहाँ तो ऐसे लोगों के प्रति जिन्होंने दूसरे का  जान बचाने  के लिये अपना जान जोखिम में डाला समाज में कृतज्ञता का भाव और सम्मान होना चाहिये। उल्टे उन्हें प्रताड़ित  और परेशान किया गया। यह स्वार्थ की सलेटी चादर में लिपटी रुग्ण समाज का लक्षण है, स्वस्थ समाज का नहीं।   दिल्ली से एक मजदूर साइकिल से हजारों किलोमीटर की यात्रा कर अपने गांव  , बिहार  पहुंचा । गांव पहुंचने पर उसकी पत्नी ने उसका स्वागत करने के बजाय उसे घर में प्रवेश करने  से रोक दिया। इस  घटना से वह  व्यक्ति इतना व्यथित  हुआ कि अगले दिन उसने आत्महत्या कर ली।  इसी   पिछले महीने  छत्तीसगढ़ की एक बूढ़ी महिला,  जो लॉक डाउन के कारण हैदराबाद में फंस गई थी, के  घर लौटने पर उसके बेटों  ने उसे घर में प्रवेश करने से मना कर दिया।  हद तो तब हो गई जब उसके छोटे लड़के ने घर में ताला लगा दिया ।  जबकि उस महिला के पास   डॉक्टर के  जांच के प्रमाण पत्र थे , जिसमें वह कोरोना नेगेटिव थी।  मगर उसके लड़के ने  उसकी एक भी न सुनी ।  अंत में पड़ोसियों के हस्तक्षेप से वो महिला घर में दाखिल हो सकी ।

एक बहुत ही मार्मिक घटना दिल्ली की  70 वर्षीय लीलावती की है।  पिछले दिनों लीलावती मुंबई अपने बीमार बेटे को  देखने आई थी।   वह बताती हैं कि मुम्बई में    वह लॉक डाउन में फंस गई । उसका बेटा आप ठीक हो गया । उसके बेटे ने उसे घर से निकाल दिया।  वह  बांद्रा स्टेशन पर बैठी दिल्ली जाने के लिए रो रही थी। घर से बान्द्रा स्टेशन वह पैदल ही आई थी।   किसी ने उसे थोड़ा  खाना और एक बोतल पानी  दिया।  बस उसी के सहारे वह दिल्ली जाने का सपना दिए स्टेशन पर बैठी थी।  कहते हैं ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद करता है।  लीलावती की संकल्प और प्रयास ने उसे  ईश्वर की फरिश्ता की  तरह वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त से मिला दिया।  उल्लेखनीय है कि बरखा दत्त पिछले 2 महीने से भी ज्यादा समय से  लॉक डाउन के कारण घर वापस लौट रहे मजदूरों की हो रही परेशानियों की रिपोर्टिंग कर रही है , जो आजादी के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी बनकर उभरी है । लीलावती की कहानी इतनी मार्मिक थी कि उसे सुन कर वे  अपनी भावनाओं को भी  काबू में  नहीं रखा  पायी और देह  से दो गज  की दूरी को भूलकर सांत्वना देने के लिए लीलावती को गले से लगा लिया।  उन्होंने न केवल उसके लिए ट्रेन टिकट  की व्यवस्था की बल्कि दिल्ली में लीलावती के ठहरने का  भी  इन्तजाम किया , क्योंकि लीलावती ने बताया कि दिल्ली में भी लड़के उसे नहीं रखेंगे । दिल्ली की ही राजेश्वरी चड्डा की   कहानी भी कम   त्रासदी वाली   नहीं है।  ट्रेन  में सामान बेचने वाली  राजेश्वरी चड्ढा   लॉक डाउन में  वाराणसी में  फंस गई थी।  रेलवे स्टेशन पर 3 दिन   भूखे प्यासे रहना पड़ा। बाद में कुछ लोगों के  द्वारा बाटे जा रहे फूड पैकेट  के सहारे   पिछले दो महीने से  रह रही थी। इस बीच उसे भारी परेशानियों और कष्ट  से गुजरना पड़ा।   स्टेशन पर  उसने अनेक लोगों से गुहार लगाई कि कोई उसे दिल्ली पहुंचा दें वह कामयाब नहीं हुई। संयोग से एक दिन अजय पटेल ,जो रेड ब्रिगेड संस्था से जुड़े हैं, की नजर उस पर पड़ी। रेड ब्रिगेड एसिड अटैक पीड़ितों के बीच काम करता है। अजय पटेल  एवं उसके मित्रों ने उसे टिकट कटा कर 3 जून को  शिवगंगा एक्सप्रेस से  दिल्ली  भेज दिया। साथ में  रास्ते के लिए  भोजन और कुछ पैसे दिए।

दिल्ली की नेहा की कहानी मानवता को शर्मसार करने वाली है। नेहा  भोपाल में नौकरी करती हैं और भोपाल में एक  किराए के मकान में रहती हैं। लॉक डाउन में रियायत  के बाद जब वो भोपाल काम करने आई तो सोसायटी के लोगों ने उसे अपने मकान में जाने से रोक दिया। जब कि नेहा बताती हैं कि उसने  सरकार द्वारा निर्धारित सभी दिशानिर्देशों का पालन किया। वह पूरी तरह स्वस्थ है। दिल्ली से भोपाल हवाई जहाज से आई है। सरकार द्वारा  निर्धारित पूरी प्रक्रिया से गुजरी है। उसने जिलाधिकारी से भी सम्पर्क की मगर कोई समाधान नहीं  हुआ। कुछ लोगों की मदद से वह  एक बार अपने मकान में प्रवेश भी की मगर  वह बताती है कि उसे सोसायटी वाले ने  फिर से बाहर निकाल दिया।  सोसायटी के लोगों का व्यवहार पूरी तरह से अमानवीय और गैरकानूनी है। लोगों ने इतना भी ख्याल नहीं रखा कि एक जवान लड़की अनजान शहर में  अकेले रात में कहॉ रहेगी?  जिस प्रकार हर  व्यक्ति का स्वधर्म होता  जिसके कारण उसका वजूद है,  उसकी अस्मिता है , जिसके कारण  उसकी  पहचान है , उसी प्रकार समाज का भी स्वधर्म होता है जब समाज अपने स्वधर्म से भटकता है तो पतन की हो अग्रसर होता है । यह  हम सबके लिए चिंता के कारण है।

image source: theleaflet.in

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लेकिन हर कोई को इतने भाग्यशाली नहीं रहे उन्हें कोई बरखा दत्त,  अजय पटेल जैसे लोग मदद के लिए  मिल जाए।  ऐसे  अनेक लोग हैं जो लॉक डाउन की चक्की में पीस कर मर खप गए । उनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं था।  न  राज व्यवस्था,  न समाज।  इस लॉक डाउन में सर्वाधिक प्रभावित असंगठित क्षेत्र के मजदूर रहे।  कैसी विडंबना है जिनके मेहनत के भरोसे महानगरों का जीवन चलता है,  बाबूओं  और सेठों  की कोठियां चमचमाती है और उनकी जिंदगी खुशहाल बनती है उन्हीं लोगों ने संकट के सबसे बड़े दौर में उनको  अकेले  भूखे प्यासे भाग्य  भरोसे छोड़ दिया । कई लोगों ने तो उनके बकाए पैसे का भुगतान भी नहीं किया ,मदद की बात तो अलग।  भले ही प्रधानमंत्री ने लोगों से नौकरी से  नहीं हटाने,  बंद अवधि के वेतन का भुगतान करने और  मकान मालिकों से मकान भाड़ा नहीं लेने की अपील की थी,  मगर इसका कोई ज्यादा असर हुआ ,  ऐसा देखने को नहीं मिला । घरों में काम करने वाली महिलाएं अपने  गांव से हजारों किलो मीटर दूर  रोजगार की तलाश में महानगरों की रुख करती हैं  । इस  संकट की घड़ी में वे  बेसहारा भूखे-  प्यासे रहने को  मजबूर हो गई। क्योंकि जिन घरों में वे  काम करके गुजारा करती थी उन घरों के दरवाजे उनके लिए हमेशा के लिए बंद हो गए । उनके पास न  कोई काम है न खाने के लिए  पैसा । कई ऐसी घरेलू कामकाजी महिलाएं हैं जो बताती हैं कि जिन घरों में काम करती थी वे  अब  फोन भी नहीं उठाते।

यह सब इसलिए हुआ कि इस महामारी के बारे में सरकार के तरफ से जो जानकारियां दी गई और मीडिया ने जिस तरह से इसे प्रसारित किया उससे कोविड-19 के बारे में सही समझ कम और लोगों में दहशत ज्यादा फैला । लोगों ने इसे बीमारी से ज्यादा  एक सामाजिक कलंक समझा।  यह बात सही है कि कोरोना वायरस बड़ी तेजी से पूरी दुनिया में फैला।  यह वायरस नया है।  इसके बारे में  जानकारी भी बहुत कम  उपलब्ध है । इसका कोई टीका या दवा अभी तक उपलब्ध नहीं है।  लेकिन डॉक्टर , विशेषज्ञों का कहना है कि  80 फ़ीसदी संक्रमित मरीज सामान्य  उपचार से ठीक हो जाते हैं , उन्हें अस्पताल में भी भर्ती करने की आवश्यकता  नहीं  है। 10 फीसदी मरीज ऐसे होते है जिन्हें  थोड़ा उपचार की आवश्यकता होती है।  शेष 5  से 10 फीसदी  रोगी ही  ऐसे हैं जिन्हें गहन चिकित्सा की आवश्यकता है । उनमें अधिक उम्र के वे लोग हैं शामिल हैं जो पहले से अन्य बीमारियों से ग्रसित हैं । उन्हें  विशेष उपचार की आवश्यकता होती है।  उनके लिए यह  बीमारी खतरनाक हो जाता है । इस बीमारी से मरने वालों की संख्या कुल संक्रमित बीमारियों की औसत से दो तीन फीसदी  है।  भारत सहित  एशिया महादेश में यह और भी कम है । यह बात गौर करने लायक है सभी संक्रमित लोग  संक्रमित मरीज नहीं है । संक्रमित लोग और  संक्रमित मरीजों में फर्क है।

हर समाज का कुछ  मूल्य होता है,  जिसके इर्द-गिर्द उसका विकास होता है । जो यह तय करता है कि  शेष दुनिया के साथ उसका क्या  संबंध होगा । फ्रांस की क्रांति से निकले समता,  स्वतंत्रता और विश्व बंधुत्व  के विचार ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया । वेद हमारे ज्ञान के स्रोत  हैं । वेद से वसुधैव कुटुंबकम , सारा विश्व एक परिवार है  का उदात्त   विचार हमें मिला। महावीर , बुद्ध ,विवेकानंद  एवं महात्मा गांधी आदि मनीषियों ने संपूर्ण मानव जाति के उद्धार के लिए काम किया।  विनोबा भावे ने जय जगत का नारा दिया। वे  पूरे विश्व में करुणा का साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे। देर सवेर हम  कोविंद19 संकट से निजात पा लेंगे।  दुनिया भर के वैज्ञानिक करोना वायरस की दवा या टीका के अनुसंधान में लगे हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इसकी कीमत  हम क्या चुकाएंगे? क्या हम उन मूल्यों को तिलांजलि दे देंगे जिन मूल्यों के कारण पूरी दुनिया में हमारी विशिष्ट पहचान है या इसे तात्कालिक भटकाव समझकर नई शुरुआत करेंगे।  इन प्रश्नों के जवाब में ही हमारी भविष्य की दुनिया निर्भर है।

अशोक भारत

8709022550 , bharatashok@gmail.com

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