राजनीति का लोकनीति में प्रवेश
आजादी के बाद देश का नव निर्माण तथा राजनीति व्यवस्था के बार में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अलग-अलग धाराओं के विचार भिन्न भिन्न थे। क्रांतिकारी धारा , जिसका नेतृत्व भगत सिंह करते थे, का विचार सोवियत संघ की तरह देश में समाजवादी व्यवस्था कायम करना था । वे एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिसमें मनुष्य के द्वारा मनुष्य का और राष्ट्र के द्वारा राष्ट्र का शोषण नहीं हो। उनका मानना था कि इस व्यवस्था में किसानों और मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। यानी साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति और सामाजवादी व्यवस्था की स्थापना। भगत सिंह की खासियत यह थी कि उन्होंने क्रांतिकारी धारा को ठोस राजनीतिक विचारधारा से जोड़ा। उसमें अर्थ और आशय भरा। कांग्रेस के लोग सोचते थे कि स्वराज मिलने पर देश में अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था के आधार पर देश के विकास की योजना बनेगी देश का नव निर्माण होगा।
लेकिन गांधी जी कुछ अलग सोचते थे। हिन्द स्वराज्य में उन्होंने इसकी एक रुप रेखा प्रस्तुत किया था, जिस पर वे जीवन के अंत तक कायम रहे। हिंद स्वराज में महात्मा गांधी सवाल खड़ा करते हैं कि अगर अंग्रेज चले गए और उनकी बनाई व्यवस्था यहां कायम रही और उसके आधार पर देश चलाने चलाने की योजना बनी तो वह असली स्वराज्य नहीं होगा। वह कहते हैं ” इसका मतलब यह हुआ कि कि आप बाघ को तो नहीं चाहते, मगर बाघ का स्वभाव चाहते हैं।” वे कहते हैं कि हिंदुस्तान को आप अंग्रेज बनाना चाहते हैं । वे आगाह करते हैं “हिंदुस्तान जब अंग्रेज बन जाएगा तब वह सच्चा इंगलिस्तान कहा जाएगा। यह मेरी कल्पना का स्वराज्य नहीं है ।” मगर कांग्रेस ने आजादी के बाद गांधीजी के विचारों को नजरअंदाज करने में ही अपना भला समझा।
आजादी के बाद देश ने गांधी जी के सुझाव के विपरीत पश्चिमी विकास का मॉडल और संसदीय लोकतंत्र का रास्ता चुना । आज आजादी के 73 साल बाद देश की जो स्थिति है वह कही से भी हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्रनायको के सपनों के अनुरूप नहीं है। लोकतंत्र पर आज धनपशुओं और बाहुबलियों कब्जा होता जा रहा है। लोक पर तंत्र हावी है। राजनीति व्यापार में तब्दील हो रही है । यह सेवा का माध्यम कम पैसा कमाने का जरिया ज्यादा बन गया है । राजनीतिक दलों के अंदर लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का नितांत अभाव है। दलों पर एक – दो लोगों का प्रभुत्व है , उन्हीं के इशारे पर सारा तंत्र संचालित होता है। राज्य और केंद्र में इन्हीं दलों में से कोई दल सत्तारूढ़ होता है। उनसे यह अपेक्षा रखना बेमानी है कि उनसे लोकतांत्रिक मूल्यों, संस्थाओं और लोकतंत्र का पोषक एवं संरक्षक होगा । हालांकि घोषित रुप वे अपने को लोकतंत्र और संविधान के बड़े हिमायती और जनता के प्रति अपने को पूरी तरह समर्पित सेवक के रुप में प्रस्तुत करते हैं। लेकिन व्यवहार में बिल्कुल विपरीत आचरण देखने को मिलता है। कई लोग ऐसा सोचते हैं कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को बदलने की जरूरत है। और इसके लिए नई राजनीतिक दल या संगठन बनाना जरूरी है। उनका यह भी तर्क है कि महात्मा गांधी ने राजनीति में भाग लिया था , इसलिए राजनीतिक दल बनाना गांधीजी के विचारों एवं कार्यों के अनुरूप है । इसमें शक नहीं कि गांधी नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक क्रांतिकारी के साथ कुशल राजनीतिज्ञ भी थे । जे बी कृपलानी जी के शब्दों में “वे केवल नैतिक और आध्यात्मिक सुधारक ही नहीं बल्कि एक राजनेता, स्टेट्समैन थे। जिन्होंने भारत की राजनीति और अर्थशास्त्र को ठीक तरह से समझ कर उनके समाधान के लिए समुचित उपाय भी बताया। गांधी जी यदि चतुर और कुशल राजनीतिज्ञ नहीं होते तो अपने सारे अध्यात्म और नैतिक बल के बावजूद वे भारत को स्वतंत्र न करा सके होते, न ही राष्ट्रपिता कहलाने के हकदार होते।” यह गांधी की विलक्षण प्रतिभा और राजनीतिक सूझबूझ थी, जिसके कारण वे समकालीन विश्व के नेताओं में सबसे भिन्न और विशेष दिखते हैं । यह गांधी की प्रतिमा और राजनीति कौशल का ही परिणाम है कि जो कांग्रेस बुद्धिजीवियों और वकीलों की संस्था थी , उसे उन्होंने गरीबों और आम जनों की संस्था में रुपांतरित कर उसे स्वराज्य प्राप्ति के व्यापक आंदोलन के मंच में तब्दील कर दिया। इसलिए यह समझना जरूरी है कि गांधी जी ने जो राजनीति की थी , वह क्या थी ?
गोपाल कृष्ण गोखले , जिसे गांधी जी ने अपना राजनीतिक गुरु माना था ,सर्वप्रथम राजनीति के आध्यात्मीकरण की बात की थी। उन्होंने सर्वेंट ऑफ इंडिया की स्थापना की थी । उसके उद्देश्य में उन्होंने कहा था राजनीति को उदात्त बनाना और उसे अध्यात्म की योग्यता तक पहुंचाना है । गांधी जी ने इस विचार को पकड़ लिया और उसका विकास किया। गांधीजी ने राजनीति के आध्यात्मिक स्वरूप की व्याख्या की और इसे स्पष्ट किया । उन्होंने कहा राजनीति सत्य और अहिंसा के आधार पर चलनी चाहिए । वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने देश की सेवा करने के लिए एकादश व्रत को जरूरी माना और इसके लिए उन्होंने सतत् प्रयत्न किया। एकादश व्रत यानी सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, अस्वाद, अस्पृष्यता निवारण, शरीरश्रम , स्वदेशी, सर्वधर्म -समभाव और अभय। इन मूल्यों के आधार पर ही वे व्यक्ति और राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे। देश के स्तर पर इसका सबसे पहले बड़ा और सफल प्रयोग चंपारण, बिहार में हुआ । देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद , जिनकी पुस्तक “चंपारण में महात्मा गांधी” को गांधी जी ने प्रमाणिक माना था , कहा कि” सांच को आंच की कहावत आज चंपारण में चरितार्थ हुआ” वह कहते हैं महात्मा गांधी नीलहों के अत्याचार से रैयतों को तो छुटकारा दिलाना चाहते थे, मगर निलहों का कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे । यह राजनीति में अहिंसा का सफल प्रयोग था । देश के लिए और स्वयं डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए बिल्कुल नया था। गांधी जी ने स्वयं माना था कि उस दिन उन्होंने अहिंसा के, ईश्वर के दर्शन किए । इसका उल्लेख सत्य के प्रयोग अपनी आत्मकथा में उन्होंने किया है। इस प्रकार चंपारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। इसने आजादी के आंदोलन की दिशा बदल दी।
गांधीजी को राजनीति में जो सफलता मिली उसका मुख्य कारण यह था उनकी राजनीति सत्य पर आधारित थी। आचार्य विनोबा कहते हैं “शास्त्रों में कहा गया है स्वतंत्र: कर्ता , जो स्वतंत्र नहीं है वह कार्यकर्ता नहीं बन सकता। यानी जो स्वतंत्र नहीं है उसकी कोई हस्ती नहीं है । इसलिए स्वराज लाने के लिए गांधीजी राजनीति में पड़े । वस्तुतः गांधी जी ने जो राजनीति की वह मूलत: लोक नीति थी । राजनीति का आध्यात्मीकरण करने से राजनीति टिकती नहीं है, टूट जाती है । उसकी जगह लोकनीति आती है। दरअसल राज और नीति दोनों एक दूसरे को काटते हैं । नीति आती है तो राज्य व्यवस्था खंडित होती है और राज्य व्यवस्था आती है तो नीति खत्म होती।”
शुरू से अंत तक गांधी जी ने लोकनीति का काम किया । यह बड़ा भ्रम है कि गांधी जी ने राजनीति का ही काम किया। स्वराज मिलने पर वे चाहते तो गवर्नर जनरल या प्रधानमंत्री कुछ भी बन सकते थे। उनके लिए क्या या मुश्किल काम था। लेकिन उन्होंने तो बंगाल की राह पकड़ ली। दिल्ली में जिस समय स्वतंत्रता का उत्सव चल रहा था उस समय उनकी यात्रा कोलकाता में चल रही थी। यह राजनीति नहीं लोकनीति के प्रमाण है।आचार्य विनोबा भावे कहते हैं “उन्होंने कहा था वायसराय भवन तो अस्पताल बनेगा यह अहिंसक क्रांति का सार रूप है । गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने कहा मैं अत्यंत विनम्रता पूर्वक स्वराज की मांग करता हूं क्योंकि उसके बिना गरीबों का उद्धार होने वाला नहीं है, यह मुझे विश्वास हो गया है। स्वराज क्यों चाहते हैं, गरीबों की सेवा करने के लिए , इस प्रकार गांधी जी ने स्वराज की मांग के साथ एक हेतु जोर दिया । यही तो गांधी का अनोखा रवैया था । यह भाषा राजनीति की नहीं , लोक नीति की थी ।” उल्लेखनीय है कि इसके पहले स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है की बात होती थी लेकिन गांधी जी के लिए स्वराज गरीबों की सेवा के लिए आवश्यक था।
अपने महाप्रयाण से 1 दिन पूर्व 29 जनवरी, 1948 को गांधी जी ने एक वक्तव्य दिया था , जिसे गांधी जी का आखिरी वसीयतनामा भी माना जाता है , उसे यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। ” देश का बंटवारा होते हुए भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा मुहैया कराए गए साधनों के जरिए हिंदुस्तान को आजादी मिल जाने के कारण मौजूदा स्वरूप वाले कांग्रेसका काम खत्म हुआ । यानी प्रचार के वाहन और धारा सभा की प्रवृत्ति चलाने वाले तंत्र के नाते उनकी उपयोगिता अब समाप्त हो गई । शहरों और कस्बों से भिन्न उनके साथ लाख गांवों को दृष्टि से हिंदुस्तान की सामाजिक , नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है। लोकशाही के मकसद की तरफ हिंदुस्तान की प्रगति के दरमियान सैनिक सत्ता पर नागरिक सत्ता को प्रधानता देने की लड़ाई अनिवार्य है । कांग्रेस को हमें राजनीतिक पार्टियों और संप्रदायिक संस्थाओं के साथ की गंदी होड़ से बचाना चाहिए और ऐसे दूसरे कारणों से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी नीचे दिए गए नियमों के मुताबिक अपनी मौजूदा संस्था को तोड़ने और लोक सेवक संघ के रूप में प्रगट होने का निश्चय करें।”
स्पष्ट है स्वराज के लिए गांधीजी राजनीतिक आजादी के साथ-साथ सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी आवश्यक मानते थे । लोकशाही की स्थापना के लिए सैनिक सत्ता पर नागरिक सत्ता की प्रधानता की लड़ाई वे अनिवार्य मानते थे । दरअसल आज सत्ता का आधार दंड शक्ति एवं हिंसा शक्ति (पुलिस , सेना आदि) है । गांधीजी हिंसा शक्ति विरोधी तथा दंड शक्ति से भिन्न तीसरी शक्ति यानी लोकसत्ता की संप्रभुता की स्थापना लोकशाही के लिए जरूरी मानते थे।
दूसरी बात गांधी जी की बात मानकर अगर कांग्रेस का लोक सेवक संघ में रूपांतरण हो गया होता तो पूरे देश में इसका अच्छा प्रभाव पड़ता। जनता को सही दिशा देने वाले निष्काम और निष्पक्ष भाव से सेवा करने वाले , जनता या सरकार की भूल होने पर उसे तटस्थ भाव से जनता के समक्ष प्रकट करने की एक नैतिक शक्ति देश में प्रगट हो गई होती । महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे सेवा संस्था देश में मुख्य होती और सत्ता संस्थान गौण। इसके बदले आज क्या हुआ? सत्ता संस्था मुख्य बनी है और सेवा संस्थान गौण, जबकि गांधी जी सरकार की सत्ता को गौण और जनता की सत्ता को मुख्य बनाना चाहते थे। यह राजनीति का लोक नीति में प्रवेश का मार्ग था। यानी हिंसा शक्ति विरोधी, दण्डशक्ति से भिन्न, ग्रामोद्योग प्रधान अहिंसक समाज रचना के माध्यम से भारत को सात लाख स्वावलम्बी गाँवों का गणराज्य बनाना।
अशोक भारत
8709022550
bharatashok@gmail.com
Recent Comments