हिंदी राष्ट्रव्यापी जागरण के प्रणेता महात्मा गांधी

महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बहु – आयामी था । शायद ही कोई क्षेत्र था  जिसके लिए उन्होंने कार्य  नहीं किया, जो   उनसे प्रभावित नहीं  रहा हो।  उनके विभिन्न आयामों पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं और लिखी जा रही है।  लेकिन महात्मा गांधी का साहित्य और भाषा चिंतन पर बहुत कम लिखा गया है । इस दृष्टिकोण   से श्री भगवान सिंह की किताब “महात्मा गांधी का साहित्य  और भाषा चिंतन”  एक महत्वपूर्ण रचना है।  इस पुस्तक में गांधीजी का   साहित्य और भाषा  चिंतन तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयासों का ससंदर्भ विस्तार से विवरण पढ़ने को मिलता है ।  इस पुस्तक के दो भाग हैं पहला भाग में 4 अध्याय है।  पहला अध्याय  साहित्य  और कला , दूसरा गांधी के चिंतन में तुलसीदास,  तीसरा  शिक्षा का माध्यम मातृभाषा और चौथा हिंदी का राष्ट्रव्यापी जागरण है।  दूसरे भाग में गांधीजी के कुछ  महत्वपूर्ण भाषणों तथा पत्राचार  को शामिल किया गया है।  जिसमें द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन में,  बिहार छात्र सम्मेलन में,  हिंदी साहित्य सम्मेलन में दिए गए भाषण तथा  राष्ट्रभाषा का प्रश्न (गांधीजी और टंडन जी के पत्र व्यवहार) को शामिल किया गया है।       

गांधीजी की औपचारिक शिक्षा मैट्रिकुलेशन के बाद 3 वर्षों तक लंदन में बैरिस्टर की पढ़ाई तक सीमित थी।  लेकिन उन्होंने राजनीति , इतिहास,  धर्म , दर्शन तथा साहित्य कला से जुड़ी सामग्रियों का गहरा अध्ययन किया था।  फिर “हिंद स्वराज” ,  “आत्मकथा” ( सत्य के प्रयोग) ,  “दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास”  जैसी पुस्तकों तथा नियमित रूप से धर्म , संस्कृति, भाषा , शिक्षा , राजनीति तथा  समाज से जुड़े ज्वलंत सवालों पर विचारोत्तेजक लेख उनके श्रेष्ठ लेखक होने का प्रमाण है।  हिंद स्वराज एवं आत्मकथा उनकी श्रेष्ठ लेखन कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।  इसके अतिरिक्त दक्षिण अफ्रीका में इंडियन ओपिनियन तथा भारत में यंग इंडिया, हरिजन , हरिजन सेवक जैसे पत्रों को निकालना  उनके श्रेष्ठ पत्रकार होने का भी प्रमाण है।  इन्हीं पत्र – पत्रिकाओं के माध्यम से वे  अन्य विषयों के  अलावा साहित्य –  कला के संबंध में अपने विचार प्रकट करते रहे।  इसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक में पढ़ने को मिलता है।

गांधी जी का जुड़ाव अतीत के साहित्य के साथ-साथ समकालीन साहित्यकारों से भी था । मध्यकालीन भक्ति आंदोलन से उनका गहरा लगाव था।  समकालीन साहित्यकारों में विश्व के श्रेष्ठ उपन्यासकार माने जाने वाले रूसी लेखक टॉलस्टॉय से उनका गहरा परिचय था।  फ्रांस के प्रसिद्ध साहित्यकार रोमां रोला से भी उनका गहरा आत्मीय लगाव था। कुछ मुद्दों पर मतभेद के बावजूद   महाकवि गुरुवर  रविन्द्र नाथ टैगोर से भी उनका घनिष्ठ संबंध था।  उसी प्रकार गुजराती,  मराठी, तमिल, हिंदी आदि के कई साहित्यकारों से गांधीजी का निकट का संबंध रहा।  हिंदी के मैथिली शरण गुप्त,  बनारसीदास चतुर्वेदी,  गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद , निराला, पंत, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी,  वियोगी हरि आदि कितने लेखक –  कवि  थे जिनकी सोच के तार गांधी के किसी न किसी विचार से जुड़े थे।  गांधी जी स्वयं भी प्राचीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य के गंभीर अध्येता थे । साहित्य के बारे में उनकी अपनी एक समझ  एवं दृष्टि थी।  गांधीजी साहित्य एवं कला को लोक,  समाज एवं जीवन की परिधि में ही देखने के पक्षधर थे।  गांधीजी के लिए कला या साहित्य  जीवन की सेवा करने के साधन थे।  वह ऐसी कला के पक्षधर थे जो मनुष्य को ऊंचा उठाए।  उनकी  स्पष्ट मान्यता थी कि साहित्य  जनता के नैतिक आध्यात्मिक उत्थान के लिए लिखी जाए । इसके साथ ही वे जनसाधारण की समस्याओं की  तरफ ध्यान देना भी साहित्यकारों का महत्वपूर्ण कार्य मानते थे।  गांधीजी साहित्य के गहरे अध्येता,  जागरूक पाठक के साथ – साथ ही एक कुशल समीक्षक भी थे। इस सब का विस्तृत वर्णन इस पुस्तक में  है।

इस पुस्तक का दूसरा अध्याय गांधी जी के चिंतन में तुलसीदास है । इसमें लेखक ने सप्रमाण साबित किया है कि भक्त कवियों में उनके सबसे प्रिय एवं महत्वपूर्ण कवि तुलसीदास हैं।   यह सर्वविदित है कि गांधीजी का मध्यकालीन भक्त कवियों के साथ गहरा लगाव था।  उसमें नरसी मेहता , अखा भगत, मीरा बाई, कबीर, तुलसी आदि शामिल हैं। लेखक अपनी बात को पुष्ट करने के लिए डॉ.  मैनेजर पांडेय को उद्धृत करते हैं।  डा. मैनेजर पांडे के शब्दों में “गांधी की राजनीति की संस्कृति में सत्याग्रह,  रामराज्य और चरखा का क्या महत्व है यह  सब लोग जानते हैं।  लेकिन इन तीनों का भक्ति काल से क्या संबंध है यह  बहुत लोग नहीं जानते।  गांधी जी को सत्याग्रह की प्रेरणा मीराबाई से मिली और रामराज्य की कल्पना तुलसीदास से।  उनका चरखा कबीर का है और पराई पीर अनुभव करने वाली संवेदनशीलता नरसी मेहता की। यह  मेरा अनुमान नहीं है इसके  पर्याप्त प्रमाण गांधीजी के लेखन में मौजूद है।”

गांधी जी अपनी कालजयी   किताब “हिंद स्वराज”  में सत्याग्रह के संदर्भ में आत्मबल के महत्व को दर्शाने हेतु तुलसी का मत उद्धृत करते है।   वे कहते हैं कि कवि तुलसीदास ने कहा

 दया धर्म का मूल है, पाप  मूल अभिमान

तुलसी दया न छाॅड़िए ,जब जग घट में प्राण ।

दयाबल आत्मबल है,  वह सत्याग्रह है।  तुलसीदास का यह दोहा गांधी जी के चिंतन में बहुत गहरे तक पैठ गया था।  इस दोहे का प्रयोग वे विभिन्न संदर्भों में अलग-अलग अवसर पर  करते रहे । मसलन 8 जनवरी, 1925 को काठियावाड़ में अस्पृश्यता के संदर्भ में वे कहते हैं “दया धर्म का मूल है इसलिए प्रेम छोड़ोगे तो बाजी हार जाओगे” । 12 मई,  1932 को पुरुषोत्तम गांधी को लिखे पत्र में वे कहते हैं दया और अहिंसा अलग  नहीं है।  31 दिसंबर,  1947 को शरणार्थियों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा ” संत तुलसीदास ने कहा है कि  दया धर्म का मूल है।  यदि हम उन बहनों के प्रति आदर से पेश नहीं आएंगे तो हमारा धर्म नहीं रह जाएगा।  यहां उन बहनों से आशय  है उन हिंदू और सिख स्त्रियों से था जिनका दंगों के दौरान अपहरण कर सताया गया था।  ऐसी औरतों को समाज में आदर के साथ प्रतिष्ठित करने की गुहार गांधीजी कर रहे थे।  सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन 23 जनवरी , 1948 को दिल्ली की प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा” वे (सुभाष चंद्र बोस)  हिंसा के पुजारी थे। मैं अहिंसा का पुजारी हूं । पर इसमें क्या? मेरे  पास गुण की ही  कीमत है।  तुलसी ने कहा है न —

 जड़ चेतन गुण दोष मय, विश्व  कींह करतार

 संत हंस गुण गहहिं , पय परिहरि वारिस विकार।

  हंस जैसे पानी को छोड़कर दूध लेता है वैसा ही हमें करना चाहिए । तुलसीदास की यह सीख  जीवन के अंतिम पहर तक गांधी जी का मार्गदर्शन करता रहा। तुलसी के जिस  रामायण से वे  प्रभावित थे,  उसका भी गुण-  दोष बताने में वे  परहेज नहीं करते । वे  कहते हैं कि  “मैं तुलसीदास का पुजारी हूं,  रामायण को उत्तम ग्रंथ  मानता हूं,  किंतु “ढोल गॅवार शुद्र पशु नारी ,यह सब ताड़ण के अधिकारी” में  जो विचार निहित है ,उसे मैं सम्मानीय मान ही नहीं सकता।  तुलसीदास ने अपने जमाने में जो रुढि  पड़ी हुई थी उससे प्रभावित होकर यह लिख दिया था।  इसलिए मेरा अपनी पत्नी,  पशु अथवा जिन्हें मैं शुद्र हूं मानता हूं,  उनको मेरे मतानुसार बर्ताव न करने पर मार बैठना सदाचार नहीं हो सकता।”

भारत की भाषा समस्या के समाधान की दिशा में भी गांधी  जी को तुलसी से बहुत मदद मिली।  हिंदी के प्रचार – प्रसार में गांधीजी का योगदान किसी हिंदी – सेवी से कम नहीं है।  बहुभाषी भारतवर्ष में हिंदी को पूरे राष्ट्र के लिए संपर्क भाषा बनाने का अभियान गांधी जी ने पूरे देश में चलाया । फिर भी उन दिनों ऐसे लोगों की कमी नहीं की जो हिंदी साहित्य की दरिद्रता की  बात उछाल कर उसे राष्ट्रभाषा के अयोग्य  सिद्ध करने में लगे हुए थे।  हिंदी के समक्ष प्रस्तुत ऐसी चुनौती का सामना भी गांधीजी तुलसी के सहारे करते थे । मसलन 4 फरवरी , 1921 को कोलकाता में राष्ट्रीय महाविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर बोलते हुए गांधी जी ने कहा “आप हिंदी भाषा की साहित्यिक दरिद्रता की बात करते हैं,  किंतु यदि आप तुलसी की रामायण को गहराई से पढ़ें तो शायद आप मेरी इस राय से सहमत होंगे कि   संसार की आधुनिक भाषाओं के साहित्य में उसके मुकाबले में कोई दूसरी किताब नहीं ठहरती । उस एक ही ग्रंथ ने मुझे जितनी श्रद्धा और आशा थी   है,  उतनी किसी दूसरी किताब से मुझे नहीं मिली।  मेरा ख्याल है वह  हर तरह की आलोचना और छानबीन के बाद साहित्यिक सौन्दर्य,  अलंकार और धार्मिक प्रेरणा सभी दृष्टियों से खरी उतरेगी।”

गांधीजी ने जिस तरह तुलसी काव्य का विभिन्न संदर्भों में उपयोग किया उससे भी साहित्य के संदर्भ में उनके दृष्टिकोण एवं सरोकार का पता चलता है । ज्ञातव्य है कि गांधीजी अपने लेखों भाषणों में बार-बार यह  बताते हैं कि तुलसीदास ने दुर्जनों , असंतो से असहयोग करने को , दूर रहने को कहा है ।   तुलसीदास ने दया को धर्म का मूल बताया है या फिर तुलसी ने राक्षसी राज्य  को अपदस्थ कर रामराज्य का मार्ग दिखाया।   इन बातों से सिद्ध है कि तुलसी का काव्य गांधी के रोम-रोम में रच बस गया,  तो इसलिए कि उसमें अन्याय,  अनीति, शोषण , दमन के विरुद्ध असहयोग करने , संघर्ष करने तथा भेदभाव,  उत्पीड़न  एवं अन्याय से मुक्त सब के लिए कल्याणकारी रामराज्य जैसी शासन व्यवस्था की दिशा में सक्रिय एवं उत्प्रेरित करने की शक्ति है । अर्थात गांधीजी के लिए वह काव्य या  कवि  महत्वपूर्ण है जो अन्याय , उत्पीड़न के विरुद्ध चेतना पैदा कर न्याय , प्रेम और सहयोग  पर आधारित  समाज के निर्माण में अग्रसर होने की प्रेरणा देता हो, न कि शब्दों के चमत्कार से मन – बहलाव  करता हो या कुछ एक ऊंचे लोगों की अभिरुचि के अनुसार केवल शृंगार रस, नायक –  नायिका के मिलन विरह  का गीत गाने में कवि  धर्म का  इतिश्री समझता हो । अथवा  अध्यात्म  एवं रहस्यवाद की उटल वासी से चमत्कृत करता हो।

 तीसरा अध्याय शिक्षा का माध्यम मातृभाषा है।  इसमें शिक्षा का माध्यम के बारे में महात्मा गांधी के विचार का बहुत ही विस्तृत ब्यौरा   प्रस्तुत किया गया  है। गांधीजी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा के पक्षधर  थे। इसकी झलक उनकी किताब “हिंद स्वराज्य” में मिलती है।   वे  कहते हैं कि “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है।  मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह  सचमुच  गुलामी की नींव थी।  उसने इस इरादे से यह योजना बनाई यह मैं नहीं कहना चाहता। किंतु उनके कार्य का परिणाम यही हुआ है।  हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं,  यह कैसी बड़ी दरिद्रता है।”

दक्षिण अफ्रीका से जनवरी,  1915 में लौटने के बाद गांधी जी ने मातृभाषा में भारतीय परंपराओं के अनुसार शिक्षा पद्धति के प्रचार के अभियान को तेजी से आगे बढ़ाया। इस संदर्भ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में उनका दिया ऐतिहासिक भाषण काफी महत्वपूर्ण है।  4 फरवरी,  1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में उन्होंने कहा “इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है।…….  मुझे आशा है कि इस विद्यापीठ में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा।”

15 अक्टूबर , 1917 को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए गांधी ने कहा “मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है।  जो मातृभाषा का अपमान करता है वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है । बहुत से लोग ऐसा कहे सुने जाते हैं कि हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊंचे  विचार प्रकट किए जा सके,  किंतु यह कोई भाषा का दोष नहीं । भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है।  एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी।  अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की।  यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धांत रहेगा कि  अंग्रेजी के जरिए ही ऊंचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उसका विकास कर सकते हैं तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे । जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ  जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझा सके, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।  यह  तो स्वयं सिद्ध है कि :

1. सारी जनता को नये ज्ञान की जरूरत है।

2.  सारी जनता कभी अंग्रेजी नहीं समझ सकती।

3.  यदि अंग्रेजी पढ़ने वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है तो सारी जनता को नया ज्ञान  मिलना असंभव है।

 जाहिर है गांधीजी सारे  राष्ट्र के लिए,  सारी जनता के लिए नए ज्ञान की प्राप्ति के लिए  मातृभाषा में शिक्षा अवश्य मानते थे ।

गांधीजी के शिक्षा एवं भाषा संबंधी इन विचारों के आलोक में स्पष्ट है कि औपनिवेशिक शासन का उनके द्वारा विरोध केवल राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं था।  वह उसे भाषा एवं शिक्षा की दृष्टि से भी भारतीयों को पराधीन बनाने वाली व्यवस्था के रूप में देख रहे थे।  इसलिए राजनीतिक स्वाधीनता की प्राप्ति से पहले उन्होंने शिक्षा एवं भाषा के क्षेत्र में स्थापित विदेशी प्रभुत्व को हटाना आवश्यक समझा।  दूसरी बात की अंग्रेजी शिक्षा का मॉडल कुछ इस  ढंग का गढ़ा गया था जिससे कुछ भारतीय ही पढ़ लिखकर साम्राज्यवादी हितों की दृष्टि से काबिल बन सके।  आम जनता शिक्षित हो या कतई अंग्रेजी मॉडल का उद्देश्य नहीं  था । गांधी जी ने इस हर बंदी को तोड़ते हुए शिक्षा के जनवादीकरण की दिशा में पहल शुरू की।  सारी जनता के लिए  शिक्षा  सुलभ हो यह उनकी शिक्षा योजना  की प्राथमिकता थी।   जाहिर है जनता को शिक्षित करने का काम जनता की भाषा में हो सकता है,  इसलिए उन्होंने मातृभाषा का खुलकर समर्थन किया। इस पुस्तक में इस प्रसंग पर  काफी विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

दक्षिण अफ्रीका में काम करते हुए गांधी जी ने यह अनुभव किया कि भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग भाषाएं एवं बोलियां बोली जाती है । उन्हें एक ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई किया जो संपर्क – संवाद एवं राज-काज की भाषा को।  निश्चित ही गांधीजी की दृष्टि में हिंदी ही वह  भाषा थी जो उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक बोली जाती थी।  इसलिए गांधीजी ने शिक्षा का माध्यम मातृभाषा तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की स्थापना के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया।  हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए गांधीजी ने न केवल जीवन पर्यंत प्रयासरत रहे,  बल्कि उन्होंने हिंदी के लिए राष्ट्रव्यापी जागरण का संचालन भी किया । लेखक का मानना है कि नवजागरण की जो अवधारणा हिंदी साहित्य में डॉ रामविलास शर्मा ने प्रतिपादित की वह बहुत हद तक सही  होते हुए भी गांधी जी की भूमिका के साथ न्याय नहीं कर सकी।  हिंदी नवजागरण के केंद्र में हिंदी प्रदेश और वहां के भारतेंदु हरिश्चंद्र  और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे लेखकों का योगदान प्रमुख है । लेकिन गांधी जी ने किस तरह हिंदी के सवाल को पूरे देश का सवाल बनाते हुए राष्ट्र में एक राष्ट्रभाषा,  संपर्क भाषा की अपरिहार्यता को स्वीकार  करने की मानसिकता तैयार की ,  इसका उल्लेख डाॅ  शर्मा हिंदी जागरण के संदर्भ में  करते भी हैं,  तो हाशिए  के रूप में। जिस हिंदी नवजागरण को भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी के कार्यों में देखा जाता है उसे अखिल राष्ट्रीय  जागरण के रूप  में रूपांतरित करने का कार्य गांधी ने किया। चौथे अध्याय में  हिंदी का राष्ट्रव्यापी जागरण शीर्षक में इसकी   विस्तृत विवेचना लेखक ने किया है।

वैसे हिंदी का विकास देश के विभिन्न भागों में भक्ति काल से ही होता आ रहा था । लेकिन जो काम बाकी था,  वह था समस्त भारतवर्ष में हिंदी को राष्ट्रभाषा सामान्य संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करने की मानसिकता तैयार करना और यह काम किया गांधी ने । गांधी जी ने 1920 में जिस राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन को चलाया उसके दौरान उन्होंने तीन चीजों का राष्ट्रव्यापी प्रचार – प्रसार किया।  सबसे पहले तो उन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता की चेतना को पूरे देश में फैलाने का काम किया, क्योंकि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में असहयोग आंदोलन के रूप में पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पूरा देश एक साथ आंदोलित हुआ था । दूसरा सवाल  अस्पृश्यता का था,  जिसके विरुद्ध उन्होंने पूरे देश में  जागरूकता पैदा करने का काम किया । तीसरा मुद्दा हिंदी का जिसे पूरे भारत की राष्ट्रभाषा सामान्य  — संपर्क – भाषा के रूप में अपनाने की मुहिम गांधी जी ने राष्ट्रीय स्तर पर चलाई।

हिंदी देश की आम जनता पढे  सीखे यह  गांधी जी की हार्दिक इच्छा रही,  लेकिन वह इतने से संतुष्ट नहीं थे।  वे तो चाहते थे कि देश के जनसाधारण से लेकर विशेष जन तक हिंदी को अपनी भाषा बना ले । वैसे तो गांधीजी का प्रयास पूरे भारतवर्ष में हिंदी के प्रचार के लिए चलता रहा,  लेकिन उन्होंने मद्रास प्रांत पर विशेष ध्यान रखा।  ऐसा करना सही भी था,  क्योंकि हिंदी को लेकर अपेक्षाकृत विपरीत परिस्थितियां उसी प्रांत में आजादी के पहले से लेकर आजादी के बाद तक रहीं ।  24 मार्च , 1925 को हिंदी प्रचार कार्यालय मद्रास में बोलते हुए गांधी जी ने कहा मेरी राय में भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिंदी का प्रचार एक जरूरी बात है।  विशेष रूप से इसलिए कि  हमें उस राष्ट्रीयता को आम जनता के अनुरूप सांचे में ढालना  है।  सच देखा जाए तो गांधीजी की सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिंदी के प्रचार – प्रसार में जीवन पर्यंत लगे रहे।

 गांधी के कार्यों के रूप में भारतीय नवजागरण ने जो अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति पाई,  उसका एक महत्वपूर्ण पक्ष था सांस्कृतिक जागरण । कोई भी सांस्कृतिक जागरण भाषा एवं साहित्य के जागरण के बगैर अपनी परिपूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता।  किसी भी देश के सांस्कृतिक जागरण में वहां की भाषा एवं साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  इस तथ्य को गांधी जी ने अच्छी तरह पहचाना था।  यही कारण था कि उन्होंने सबसे पहले देशी भाषाओं के उत्थान विकास की बात की । इसके लिए जनजागृति पैदा करने के लिए आंदोलन चलाया।  साथ ही नैतिकता एवं परहित की भावना को जागृत करने में उन्होंने साहित्य  की अमोघ शक्ति को सामने रखा।

 लेखक का मानना है कि गांधीजी जिस आम आदमी के लिए जीवन पर्यंत  संघर्षरत,  कार्यरत रहे उसी  आम आदमी के नजरिए से उन्होंने साहित्य  को देखा समझा।   महान प्रहरी वाले लेख में जिस व्यक्ति ने यह कहा कि करोड़ों भूखे लोग आज एक ही कविता की मांग कर रहे हैं भूख मिटाने वाली , भोजन रूपी कविता की । उससे बड़ा जनवादी कौन हो सकता है?  निश्चय ही ऐसी मांग गांधीजी घृणा-  हिंसा पर आधारित वर्ग संघर्ष,  वर्ग चेतना की शब्दावली में न कर करुणा, सदाशयता की भाषा में करते थे,  जिसका जड़   उनका हृदय परिवर्तन के सिद्धांत में  अटूट विश्वास था । परन्तु इसे तथाकथित प्रगतिशील लेखक नजर अंदाज  करते रहे।  उन्होंने गांधीजी के साहित्यिक सरोकार के मूल में नीहित मानवतावाद का कभी ध्यान नहीं दिया,  अगर वे दे पाते उन्हें भी गांधी जी के चिंतन में जनता का वैसा ही दर्द  दिखाई देता जैसा लेनिन को टालस्टाय के साहित्य  में दिखाई दिया।  अफसोस कि हमारे प्रगतिवादी विद्वान मार्क्स,  एंजल से लेकर   स्टालिन, माओ त्से तुंग आदि के साहित्य   संबंधी विचार को  उद्धृत करते  हैं किन्तु  अपने अध्यवसाय का 10% भी साहित्य को जनवादी तथा मानवतावादी ढंग से देखने समझने वाले देसी गांधी को समझाने में नहीं लगाते। अगर लगा पाते तो शायद हमारे साहित्य एवं देश का ज्यादा भला होता लेकिन दूर का ढोल चौहान जो होता है।

इस पुस्तक में लेखक ने गांधी जी  से जुड़े उन विषयों को चुना है जिस पर बहुत कम लेखकों व साहित्यकारों का ध्यान गया  है ।  शिक्षा का माध्यम ,   लिपि,  भाषा,  साहित्य एवं हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के  लिए गांधीजी के  चिंतन,  विचार एवं कार्यों का बहुत ही विस्तृत एवं प्रमाणिक जानकारी  इस पुस्तक पढ़ने को मिलता   है,  जो इस पुस्तक की विशेषता है।   इन विषयों से  संबंधित   गांधी जी के कुछ महत्वपूर्ण भाषणों एवं पत्राचारों  को  भी पुस्तक में  शामिल किया गया है, जो महत्वपूर्ण दस्तावेज है।  भाषा सरल एवं सुगम है। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि साहित्य और गांधी विचार में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह एक उपयोगी एवं संग्रहणीय पुस्तक है।

पुस्तक का नामगांधी का साहित्य और भाषा चिंतन

लेखक : श्रीभगवान सिंह

सर्व सेवा संघ प्रकाशन

राजघाट, वाराणसी

अशोक भारत

मो. 8709022550

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *