राष्ट्र-निर्माण और युवा
— अशोक भारत
आजादी प्राप्त हुए सात दशक हो रहे हैं। इन बीते वर्षों में विकास के नाम पर बड़े-बड़े नगर-महानगर खड़े किये गये। ‘एक्सप्रेस’ वे बना, सड़वेंâ चौड़ी हुर्इं। विशाल कल-कारखाने, बांध बनाये गये। विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्थापित हुए। राष्ट्र अणुशक्ति सम्पन्न बना। चन्द्रयान की सफलता के बाद मंगलयान का प्रक्षेपन सफलतापूर्वक हुआ। इन सब उपलब्धियों के बीच एक सवाल जो आजादी की लड़ाई के दौरान भी था, आज भी बना हुआ है, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी ‘नमक सत्याग्रह’ के दौरान उठाया था। वह है ‘आर्थिक असमानता का सवाल’, आज यह बहुत बड़ा सवाल बन गया है।
1930 में ‘नमक सत्याग्रह’ के दौरान महात्मा गांधी ने तात्कालीन वायसराय को पत्र लिखकर पूछा था कि ‘‘आपकी आमदनी और सबसे गरीब आदमी की आमदनी के बीच 5000 गुना का फर्क है, फिर भी आपको नमक पर टैक्स लगाते हुए शर्म नहीं आयी।’’ आजादी के 67 वर्ष बाद स्थिति और खराब हुई है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति का अध्ययन के लिए भारत सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट यह बतलाता है कि देश के 78 प्रतिशत लोगों की दैनिक आमदनी 20/- या इससे कम है। दूसरी तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है। आजादी के बाद तो यह विषमता घटनी चाहिए लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा। मेरे जैसे लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि इस आजादी का क्या करें, जिसमें गुलामी के दौर से ज्यादा विषमता बढ़ी है?
आर्थिक विषमता बढ़ने का सीधा मतलब है गरीबी, बेरोजगारी का इजाफा होना। इस समय देश का हर चौथा आदमी भूखा है और हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार। पिछले 20 वर्षों में लगभग 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों की स्थिति तो हमेशा ही दयनीय रही है मगर इससे पूर्व कभी भी किसानों ने हताश होकर आत्महत्या का विकल्प नहीं चुना था, अब आजाद भारत में वह हो रहा है, वह भी तब, जब देश को यह अहसास कराने की कोशिश हो रही है कि भारत एक महाशक्ति बन रहा है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था में जीवन के मूल आधार, जल-जंगल-जमीन-खनिज-पहाड़ आदि कुदरत के अनमोल उपहारों पर बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी वंâपनियों का कब्जा हो रहा है। आज आदमी के जीवन जीने के आधार छीने जाने से गरीबी और विषमता में वृद्धि हो रही है। भारतीय संविधान का घोषित लक्ष्य सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय दिलाना है। मगर आजादी के बाद विकास की जो नीति अपनायी गयी, उससे आर्थिक असमानता लगातार बढ़ रही है। इन नीतियों से न केवल अमीरी-गरीबी के बीच का फासला बढ़ा है बल्कि क्षेत्रीय असंतुलन भी पैदा हुआ है। राज्यों के बीच भी फासला बढ़ा है। एक तरफ बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि राज्य हैं, दूसरी तरफ महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब आदि राज्य हैं। हरियाणा-पंजाब में प्रति व्यक्ति आय और बिहार-झारखंड में प्रति व्यक्ति आय में कई गुना का फासला है। ऐसा ही कृषि एवं सेवा क्षेत्र में भी हुआ है।
स्पष्ट है कि विकास की नीति की दिशा गलत है जो देश को लगातार संविधान के घोषित लक्ष्य से दूर ले जा रही है। आजादी के बाद हमने विकास के वही पश्चिमी मॉडल को अपनाया, जिसके बारे में अब स्वयं पश्चिम में सवाल खड़े हो रहे हैं। महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘मेरे सपनों का स्वराज तो गरीबों का स्वराज होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपयोगा राजा और अमीर लोग करते हैं, वही तुम्हें भी मिलना चाहिए, इसमें फर्वâ के लिए स्थान नहीं हो सकता।’’ (यंग इंडिया, 26.3.31)
उन्होंने आगे कहा कि ‘‘मेरी कल्पना के स्वराज्य के बारे में किसी को कोई गलतफहमी भी नहीं होनी चाहिए। इसका अर्थ है विदेशी नियंत्रण से मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता।’’ लेकिन देश आज बापू की कल्पना के स्वराज्य से काफी दूर जा चुका है। २६ नवंबर १९४९ को संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अगाह किया था कि आर्थिक आजादी और सामाजिक न्याय के बिना राजनैतिक आजादी भी कायम नहीं रह पायेगी। डॉ. अम्बेडकर की चेतावनी आज सही प्रतीत हो रही है। नयी वैश्विक व्यवस्था में देश की राजनीतिक आजादी भी खतरे में पड़ गयी है।
भारतीय लोकतंत्र आज संक्रमण काल से गुजर रहा है, संकट में है। भारतीय संसद और विधान सभाओं में बाहुबलियों, आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों एवं धनपतियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। 2004 के लोकसभा चुनाव में निर्वाचित सांसदों में 154 करोड़पति थे, जबकि 2009 में यह संख्या बढ़कर 300 से ऊपर हो गयी। 16वीं लोकसभा में 82 प्रतिशत यानी 442 सांसद करोड़पति हैं। राजनीति में तेजी से पूंजीपतियों का एकाधिकार होता जा रहा है और वह आम लोगों की पहुंच या दखल से दूर होती जा रही है। उसी प्रकार संसद में दागी सांसदों की संख्या में वृद्धि हुई है, चौदहवीं (2004) लोकसभा में दागी सांसदों की संख्या 128 थी, जो पन्द्रहवीं (2009) लोकसभा में बढ़कर 150 हो गयी, जिनमें 73 सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। लोकसभा के लगभग 30% और राज्यसभा के 17% सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। 16वीं लोकसभा चुनाव में 186 यानी 34 सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, जिनमें 121 यानी 21% प्रतिशत सांसदों पर हत्या, बलात्कार, अपहरण, दंगा भड़काने आदि जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। अभी हाल ही में न्यायालय से दोषी करार नेताओं को चुनाव लड़ने से वंचित करने का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने पारित किया था। उस आदेश को रद्द करने के लिए सभी दल एकजुट हो गये। आज सत्ता पर काबिज और विपक्षी पार्टियों की आर्थिक नीति में कोई फर्वâ नहीं है। अर्थनीति राजनीति का सकेन्द्रित रूप है। जब राजनीति से आम आदमी के जिन्दगी के सवाल गायब हो जाते हैं तो राजनीति अस्मिता के सहारे चलती है, भावनात्मक मुद्दों को उभार कर की जाती है। राजनीति जातिवाद, धर्म, साम्प्रदायिकता, प्रांतवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद के सहारे चलती है। नेताओं ने यह कला सीख ली है कि वैâसे आम आदमी के वास्तविक हितों को नजरअंदाज कर मात्र कुछ शिगूपेâ छोड़कर, भावनाओं को भड़काकर चुनाव जीता जा सकता है। महात्मा गांधी ने आज से लगभग १०४ वर्ष पूर्व ‘हिन्द स्वराज्य’ में ब्रिटिश पार्लियामेंट, जिसके तर्ज पर भारतीय संसद का गठन किया गया है, पर कठोर टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि ‘‘पार्लियामेंट के मेम्बर दिखावटी एवं स्वार्थी पाये जाते हैं। सब अपना मतलब साधने को सोचते हैं। बड़े सवालों पर जब पार्लियामेंट चलती है तो इसके मेम्बर पैर पैâलाकर लेटते हैं या बैठे-बैठे झपकियां लेते हैं। उस पार्लियामेंट के मेम्बर इतने जोर से चिल्लाते हैं कि सुनने वाले हैरान-परेशान हो जाते हैं।’’ यह सब बातें आज हमारी संसदीय व्यवस्था पर शत-प्रतिशत लागू होती है। आज पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का सर्वथा अभाव है। जब पार्टियां ही लोकतांत्रिक आधार पर नहीं चलायी जा रही हैं तो फिर उनसे संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने की उम्मीद वैâसे की जा सकती है।
उदारीकरण के दौर में लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार भी प्रभावित हुए हैं। अपनी जिन्दगी और जीविका के लिए लोकतांत्रिक तरीके से संघर्ष कर रहे लोगों पर राज्य हर प्रकार के अड़ंगे लगा रही है, उनके खिलाफ बल का प्रयोग कर रही है जबकि पूंजीपतियों को संरक्षण प्रदान कर रही है। महात्मा गांधी ने मृत्यु के एक दिन पूर्व अपने लेख में लिखा था—‘‘लोकशाही के मकसद की तरफ हिन्दुस्तान की प्रगति के दरमियान सैन्य शक्ति पर लोकसत्ता को प्रधानता देने की लड़ाई अनिवार्य है।’’ अब वक्त आ गया है हम लोकशाही को मजबूत करने की दृष्टि से इस दिशा में ठोस पहल की जाय।
भारत की संस्कृति; समन्वय की संस्कृति रही है। भारत में अनेक मानव समुदाय में विशेष तरह के पारस्परिक संबंध तथा आदर्शों का चुनाव भारतीय जीवन को संचालित करते रहे हैं। भारत में यह संबंध यूरोप तथा दुनिया के अन्य कई भागों से भिन्न रहे हैं। यूरोप में जब एक कबायली समूह एक जगह से दूसरे जगह गया तो उसने वहां के प्राचीन बाशिंदों को या तो वहां से भगा दिया या खत्म कर दिया। इसके विपरीत भारत में हजारों वर्ष से विभिन्न कबायली समूह आते रहे और पुराने कबीलों के साथ अकसर एक खास तरह की जातीय व्यवस्था करके बस गये। इस क्रम में कोल, द्रविड़, आर्य, शक, हूण, पठान, तुर्क, अरब, सिथियन आदि अनेक प्रजातियों के कबीले भारत में आये और भारत की जीवनधारा में मिलकर विलीन हो गये। इससे एक-दूसरे के रीति-रिवाजों, पूजा-पाठ, देवी-देवताओं आदि को बरदाश्त करने तथा समझने की परंपरा बनी, जिससे विश्वासों की पारस्परिक सहिष्णुता कायम हुई। जो आगे चलकर परंपरा बनी, जिससे धार्मिक मतभेदों को खत्म करने के लिए तलवार के बजाय संवादों और शास्त्रार्थों का सहारा लिया गया। भारतीयता का यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसे सहन करने और जब्त करने की शक्ति से भारत, भारत बना रहा।
भारत की अस्मिता को बनाये रखने में दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज थी, जीवन के आदर्शों का चुनाव। भारतीय आदर्शों में बाहरी वस्तुओं के बजाय आंतरिक उपलब्धियों पर अधिक जोर दिया गया। इससे भारत के दर्शन और धर्म में संतोष, आत्म नियंत्रण, नि:स्वार्थ सेवा, अपरिग्रह आदि केन्द्रीय मूल्य बन गये। परोपकार को तो सभी धर्मों का सार ही मान लिया गया। इस तरह के विचार उपनिषदों, पुराणों तथा बौद्ध, जैन सभी धर्मों में प्रधान हैं। कालांतर में इस्लाम के आने के बाद भारतीय धर्म और इस्लाम के पारस्परिक प्रभाव से आपसी विभेदों को मिटाती हुई संत-कवियों की परंपरा चली तो उसमें इन्हीं तत्त्वों की प्रधानता मिली। उदाहरण के लिए सूफी संत फरीद (13वीं सदी) की इन पंक्तियों में इसी भावना की अभिव्यक्ति होती है:
‘‘रुक्खी-सुक्खी खाय के ठंडा पानी पीव।
फरीद देखि परायी चोपड़ी न तरसावे जीव।।’’
इसी तरह दूसरे सूफी संत दातागंज बक्स (11वीं सदी) कहते हैं—ऐ मुरीदों, त्याग और परोपकार ही फकीरी की वुंâजी है। दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए कष्ट उठाना और दूसरों के लाभ के लिए अपने नुकसान की ओर ध्यान न जाना, स्वार्थ को त्यागना ही धर्म है।
जाहिर है सदियों से भारत साझा संस्कृति का देश रहा है। सबको साथ लेकर चलने की परंपरा, बहुलतावादी स्वरूप, देश की ताकत रही है। अनेकता में एकता देश की विशिष्टता है। लेकिन सांप्रदायिक शक्तियों व कुछ संकीर्ण सोच वाले लोग देश को गुमराह करने में लगे हैं। आजादी की लड़ाई में भी इन सांप्रदायिक शक्तियों के कारण देश को भारी नुकसान उठाना पड़ा, अंतत: देश का बंटवारा हो गया। एक बार फिर सांप्रदायिक, फासीवादी शक्तियां देश में सर उठा रही हैं, सामाजिक तानाबाना एवं सौहार्द बिगाड़ने में लगी हैं तथा देश की एकता और अखंडता के लिए गंभीर चुनौती पेश कर रही हैं। जरूरत इस बात की है कि देश की साझी विरासत को कायम रखते हुए इन सांप्रदायिक हिंसा व नफरत तथा लोगों को बांटने की कोशिश को नाकाम किया जाये।
आज एक तरफ हिंसा एवं आतंकवाद सर उठा रहा है तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार, नैतिक मूल्यों में हो रही गिरावट हमारी चिन्ता का कारण बनी हुई है। महात्मा गांधी ने ‘हिन्द स्वराज्य’ में कहा है कि—‘‘गरीब हिन्दुस्तान तो अंग्रेजों की गुलामी से छूट जायेगा लेकिन अनीति से पैसा वाला बना हिन्दुस्तान गुलामी से नहीं छूट सकेगा।’’ आज हिन्दुस्तान पैसा वाला अवश्य बन रहा है मगर चारों तरफ अनीति-अधर्म का बोलबाला है। दिन-रात उद्घाटित होने वाले भ्रष्टाचार के अंतहीन घटनाओं से ऐसा लगता है कि यह देश घोटालों का देश बन गया है। हमारे सामाजिक जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र हो; जो भ्रष्टाचार से अछूता हो। यह एक नये प्रकार की बीमारी है जो भारत की अन्तर्रात्मा को खोखला कर रही है। युग द्रष्टा महात्मा गांधी ने बहुत पहले इसके प्रति सचेत किया था जो आज सत्य साबित हो रहा है।
सवाल यह है कि इस प्रकार की सभी समस्याओं का हल क्या है? महात्मा गांधी ने जिस राष्ट्र-निर्माण का कार्य स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शुरू किया था, वह कार्य अभी पूरा होना बाकी है। इतिहास का यह अनुभव रहा है कि दुनिया बदलने की अगुवाई हमेशा नयी पीढ़ी ने की है। आदमी बीमार होता है तो डॉक्टर के पास जाता है, जब पूरे देश में यह बीमारी पैâली हो तो उसका इलाज तो युवाओं के पास ही है। महात्मा गांधी ने 10.09.31 को यंग इंडिया में लिखा है ‘‘मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है—जिसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्त्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें ऊंचे और नीचे जैसे वर्गों का भेद नहीं होगा और विविध सम्प्रदाय में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियाों को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों के होंगे। शेष दुनिया के साथ हमारा संबंध शांति का होगा, न तो हम किसी का शोषण करेंगे न किसी द्वारा शोषण होने देंगे।’’
आज आसमान छूती आर्थिक विषमता, लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संस्था एवं अधिकारों की रक्षा साम्प्रदायिकता, फासीवाद, हिंसा एवं आतंकवाद तथा भ्रष्टाचार आदि समस्याओं से निजात पाने के लिए सशक्त राष्ट्रीय अभियान की आवश्यकता है। इस कार्य के लिए मानवता प्रेमी देशभक्त लोगों को एक साथ आने एवं पहल करने की आवश्यकता है, जिसमें युवाओं की भूमिका निर्णायक होगी। तभी हम सब अपने सपनों व गांधीजी की कल्पना का भारत का निर्माण कर पायेंगे, जिसमें समाज के सबसे अंतिम पायदान पर अवस्थित लोग भी यह महसूस करें कि यह उनका देश है, जिसके निर्माण में उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
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