बिहार में बदलाव के आसार

बिहार में चुनावी सरगर्मी चरम पर है । 3 चरणों में होने वाले विधानसभा के लिए मतदान का  पहला चरण 28 अक्टूबर,  दूसरा चरण 3 नवंबर और तीसरा 7 नवंबर को है। । चुनावी सभाओं का दौर जारी है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी इसमें  में शामिल हो गए हैं।   एक तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में  सरकार बनाने के लिए एक बार फिर  जनादेश प्राप्त करना चाहती  है,  तो दूसरी तरफ राजद,  कांग्रेस और वाम दलों का महागठबंधन है। इस बार दोनों गठबंधन टूट और  पाला बदल की शिकार हुई है।चुनाव से ठीक पहले जीतन राम मांझी की ‘हम’ और मुकेश सहनी की ‘वी आई पी’  महागठबंधन से नाता तोड़ कर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो गए। जबकि उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा महागठबंधन छोड़ ग्रांड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट   (जी डी एस एफ)  बना कर चुनाव मैदान में है।   खास बात यह है कि केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल लोजपा  बिहार में अकेले चुनाव लड़ रही है और बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के  घटक जनता दल यूनाइटेड  का मुखर विरोध कर रही है।  उसने जनता दल यूनाइटेड के खिलाफ सभी स्थानों पर अपना उम्मीदवार उतारा है। लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान नरेंद्र मोदी को अपना नेता मानते  हैं और बीजेपी के समर्थन में उन्होंने अपने मतदाताओं को मतदान करने का अपील भी  की  है । जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।  लोजपा में  बीजेपी के लोग शामिल हो रहें हैं और वह उन्हें टिकट भी  दे रही है। इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जो भाजपा के विधायक हैं और इन्हें इस बार पार्टी ने टिकट नहीं दिया है।  इन दो मुख्य गठबंधन के अतिरिक्त भी कई गठबंधन और दल इस चुनाव में अपना किस्मत आजमा रहे हैं जिनमें ग्राड  डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट , प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक एलाइंस तथा पुष्पम प्रिया की प्लुरल्स पार्टी  प्रमुख है। पुष्पम प्रिया की प्लुरल्स पार्टी ने  विधानसभा की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने  एवं खुद को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया है। यह पार्टी बिल्कुल नयी है और मतदाताओं के बीच कितना अपना प्रभाव बना पाती है वह तो चुनाव के नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। वैसे पुष्पम प्रिया  27 साल की ऊर्जावान युवती हैं और उन्होंने  लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स से पढाई की है।

उपेंद्र कुशवाहा के रालोसपा, बहुजन समाज पार्टी,  पूर्व सांसद देवेंद्र प्रसाद यादव की जनवादी सोशलिस्ट पार्टी और ओवैसी की एआईएमआईएम वाली ग्राड डेमोक्रेटिक सेकुलर  फ्रंट (जी डी एस एफ)   ने  उपेंद्र कुशवाहा को मुख्यमंत्री का  उम्मीदवार  घोषित किया है। दूसरी तरफ पप्पू यादव की जन अधिकार  पार्टी  छोटे दलों के साथ प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक एलाइंस बनाकर चुनाव लड़ रही है,  जिसके नेता पप्पू यादव मुख्यमंत्री के उम्मीदवार हैं।  वैसे तो जी डी एस एफ और पी डी ए का बिहार में कोई खास जनाधार नहीं है,  लेकिन आंचलिक स्तर पर ये  कई उम्मीदवारों का खेल बिगाड़ सकते हैं,  जिसमें ज्यादातर नुकसान महागठबंधन को पहुंच सकता है।  लोजपा ने 143 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है जिसमें 122 सीट  जनता दल यूनाइटेड के खिलाफ और 21  बीजेपी के खिलाफ  उम्मीदवार उतारने की घोषणा की है। बीजेपी के   सुशील कुमार मोदी और अन्य नेता कह चुके हैं कि  नीतीश कुमार ही  एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं और जेडीयू को कम सीट आने पर भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे,  लेकिन जिस तरह भाजपा के लोग लोजपा में शामिल हो रहे हैं और उन्हें टिकट दिया जा रहा है उससे तो यही अंदाजा लगता है कि कहीं ना कहीं लोजपा का बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का अघोषित समर्थन प्राप्त है।  यह देखना रोचक होगा कि लोजपा चुनाव को कितना प्रभावित करती है और चुनाव के बाद कोई नया गठबंधन उभरता  है या नहीं।

 सामाजिक और जातीय समीकरण  में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन मजबूत स्थिति में दिख रही है।  राज्य  के सवर्ण (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ)  मतदाताओं का झुकाव  बीजेपी के प्रति पिछले कई चुनावों में रहा है,  जो इस बार भी दिखाई दे रहा है । इसके अतिरिक्त उनके परंपरागत वोटर वैश्य –  बनिया समुदाय का उन्हें समर्थन प्राप्त है।  इसके साथ अति पिछड़ों और दलितों का वोट का एक हिस्सा भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मिल सकता है।  लोजपा के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग होने से हुई  दलित वोट की कमी की भरपाई जीतन राम मांझी की ‘हम’  को एनडीए में शामिल कर के करने की कोशिश है।  मुकेश सहनी  की वी  आई पी को एन डी ए  में शामिल कर सहनी  मतों को एकजुट करने का भी प्रयास है। वैसे लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान ने  मतदाताओं से अपील की है कि जहां लोजपा चुनाव नहीं लड़ रही है वहां वे बीजेपी को वोट करें। बीजेपी के चुनाव अभियान की कमान स्वयं प्रधानमंत्री ने संम्भाली है। बीजेपी ने  राष्ट्रवाद, धारा 370,  राम मंदिर और लालू प्रसाद यादव के 15 साल के शासन, जिसे वह जंगल राज कहती है , को चुनावी मुद्दा बनाया है।

दूसरी तरफ  राष्ट्रीय जनता दल , कांग्रेस और वामदलों का महागठबंधन चुनावी समर में है, जिसने   तेजस्वी यादव को  मुख्यमंत्री का  उम्मीदवार बनाया  है।  तमाम राजनीतिक विशेषज्ञों की राय और आकलन के उलट तेजस्वी यादव की चुनावी सभा में भारी भीड़ आ रही है,  जिसमें ज्यादा संख्या युवाओं और मजदूरों का है , जो लॉकडाउन के कारण बेरोजगार हो गए थे।   पहली बार यह हो रहा है कि विपक्ष एजेंडा तय कर रहा है और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को उस पर प्रतिक्रिया देनी पड़ रही है।  आम तौर पर भारतीय जनता पार्टी एजेंडा तय  करती  थी और विपक्षी पार्टियों  को उसका जवाब देना पड़ता था। इस बार इसका उल्टा हो रहा है। तेजस्वी  यादव ने अपनी चुनाव सभाओं में 10 लाख  सरकारी नौकरी देने का देने का वादा कर रहे हैं, जो  युवाओं को आकर्षित कर रहा है।  बिहार में मई-जून में बेरोजगारी की दर 46.6 फीसदी थी।  इस समय जब राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी की दर 6.67फीसदी है तो बिहार में 11.9 फीसदी। बिहार में रोजगार बड़ा मुद्दा रहा है। बिहार में रोजगार के अवसर नहीं उपलब्ध होने से लोगों को  दूसरे राज्यों का रुख करना पड़ता है। लेकिन लॉक डाउन के कारण उन्हें दूसरे राज्यों से लौटना पड़ा है। जिसमें उन्हें भारी मुसीबतों से गुजरना पड़ा है। इसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रवैया नकारात्मक और असहयोगात्मक रहा है। उनमें से कुछ लोग पुनः दूसरे राज्य लौटने को बाध्य भी हुए हैं। मगर अभी भी बड़ी संख्या में युवा बिना काम के बैठे हैं, भूखे सोने को बाध्य हैं। तेजस्वी यादव ने रोजगार को मुख्य मुद्दा बनाया है  और अपनी चुनाव घोषणा पत्र में , जिसे वे संकल्प पत्र कह रहे हैं,  10 लाख सरकारी नौकरी का वादा किया है। वे  अपनी हर चुनावी सभा में इसे  दुहराते हैं । वे यह भी बतलाता नहीं भूलते कि 10 लाख नौकरियाँ कैसे देंगे। वे अपनी पूरी योजना हर सभा मे विस्तार से रखते हैं।  लोग उसपर विश्वास भी करने लगे हैं। लोग कहने लगे हैं कि भले ही 10 लाख नौकरी न दे मगर दो चार लाख तो देगा।  तेजस्वी यादव समान काम समान वेतन  की भी बात कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि समान काम समान वेतन संविदा शिक्षको का बहुत बड़ा मुद्दा रहा है,  जिसके लिए शिक्षकों ने हड़ताल भी किया था। इसके अलावा आजीविका, आंगनबाड़ी, आशा वर्कस के भी मानदेय तथा वृद्धा पेंशन को बढाने की बात कर रहे हैं।  

तेजस्वी की सभाओं में भीड़ देखकर भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के खेमे में बेचैनी देखी जा रही।  इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता  है कि  बीजेपी के नेता सुशील मोदी एक  दिन पहले 10 लाख  सरकारी नौकरी देने  के  राजद के वादे का मजाक उड़ा रहे थे। लेकिन एक  दिन बाद  भाजपा ने अपनी चुनावी घोषणा पत्र में 19 लाख रोजगार सृजन के अवसर का वादा किया जिसमें तीन लाख नौकरी भी शामिल है। भाजपा और जेडीयू के  उम्मीदवारों को क्षेत्र में जनता के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है।  दरअसल मुख्यमंत्री के रुप में  नीतीश कुमार का तीसरा कार्यकाल ज्यादा प्रभावी नहीं रहा । खास करके कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के कारण उत्पन्न भीषण बेरोजगारी की समस्या के निराकरण में सरकार का रवैया गैर जिम्मेदाराना और असंवेदनशील रहा है।  लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों में काम करने गए मजदूरों को लाने और वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करने में सरकार पूरी तरह विफल रही है । मुख्यमंत्री ने  उन्हें वापस बिहार लाने की उचित व्यवस्था करने के बजाय नहीं लाने का बहाना ढूंढते रहे।  उनके  15 साल के शासनकाल में बिहार में मजदूरों का पलायन नहीं रुका । उन्होंने चुनावी सभा में स्वीकार कर लिया है कि बिहार में कोई उद्योग नहीं लग सकता।  बिहार में पहले से ही स्वास्थ्य सेवा  का खस्ता हाल है।  करोना काल में यह स्थिति   और भी खराब हो  गई।  न डाक्टर,  न दवा  जनता को भागवान के भरोसे छोड़ दिया गया । खुद मुख्यमंत्री कई महीने जनता से मुखातिब नहीं हुए।  जबकि अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री इस दौरान  सक्रिय दिखे। करोना महामारी के बीच बिहार के लोगों को भीषण बाढ़ का भी सामना करना पड़ा।  18 जिलों  के लगभग एक करोड़ आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई । राहत के नाम पर दो किलो चिउरा , गुड़ और पालिथीन । बाढ पीडितों को  6000 रु   देने की घोषणा की गई वह  भी  सभी प्रभावित लोगों तक समय पर नहीं  पहुंचान।  न ही  कोई जनप्रतिनिधि उनके हालचाल लेने उनके बीच पहुंचा।  इससे  सरकार से लोगों की नाराजगी है।  आज भी मजदूर भूखे सोने को बाध्य  हो रहे हैं।  इसका असर इस चुनाव में देखने को मिल रहा है।

 यहां यह बात गौर करने लायक है कि 15 दिन पूर्व तक चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक विशेषज्ञ यह  मान कर चल  रहे  थे कि बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बढ़त हासिल है और उनके सामने कमजोर विपक्ष है।  मगर  चिराग पासवान ने चुनाव को रोचक और तेजस्वी यादव ने इसे कांटे की लड़ाई बना दिया है।  15 साल सत्ता में रहने के बाद नीतीश कुमार को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है जिसका नुकसान एन डी ए  को हो सकता है।  दूसरा इस बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एकजुट हो कर चुनाव नहीं  लड़ रही है।   ऊपर ऊपर नीतीश कुमार एनडीए के नेता है परंतु अंदर खाने सब कुछ ठीक नहीं है,  जिसका असर चुनाव नतीजों पर पड़ सकता है। जबकि महागठबंधन एकजुट हो कर चुनाव लड़ रही है।  तेजस्वी यादव ने   रोजगार को चुनावी मुद्दा बनाया है   उससे युवा आकर्षित हो रहे हैंऔर उनकी चुनावी सभा में भीड़ जुट रही है।   उसका काट अभी तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन निकाल नहीं पाई है।  अगर तेजस्वी यादव की सभाओं में आने वाली भीड़  वोट में तब्दील हो गई, जिसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता,  तो चुनाव सर्वेक्षण और विश्लेषकों को अपनी राय बदलनी पड़  सकती है। और बिहार  चुनाव के  नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं।

अशोक भारत

8709022550

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